पारुल हर्ष बंसल*
एक चुटकी सिंदूर
एक चुटकी सिंदूर,
जिसकी क्रय वापसी है अति दुर्लभ।
आ गिरी दामन में मेरे,
चुका कर कीमत ताउम्र आज़ादी की ।
कितना सुर्ख है रंग इसका कि
उसी लाली में डूब गई है अस्मिता मेरी।
ज़माना खराब
अनार के दाने की तरह
महफूज रखा लख्त-ए-जिगर को
अपने।
पर मेरी ही शाख के परिंदे ने,
ज़ख्मी कर डाला उसे ।
ज़माना खराब है जनाब !
आस्तीन के सांप और पीठ में छुरा घोंपने वाले,
गाहे-बगाहे मिल ही जाते हैं ।
अर्पण
हो चुकी छिन्न-भिन्न
अर्पण कर सर्वस्व
नहीं शेष अभिलाषा कोई
कतरा -कतरा भी संजोए
अहमियत मेरी।
भीषण गर्मी की तपती दोपहरी में
मैंने छुपाई आंचल में
माथे पर उभरी बूँदें पसीने की ,
मुझसे ही लिपट हुआ
ब्याह गुड्डे और गुड़िया का।
कभी बनी नववधू
तो कभी सासू मां,
मुझे यूं ना दरकिनार करो
तेरे बचपन की सखी ….
सूती धोती ….
अभिलाषा

आज एक घुंघरू ने फिर हिमाकत की है,
पृथक हो समूह से ,
नवीन सियासत रची है ।
खरे मुकद्दर की उम्मीद की है,
फूंका है बिगुल अब बगावत का,
न रहेंगे गुलाम किसी गणिका के ,
तजेंगे प्राण चरणों में बिहारी जी के।

*पारुल हर्ष बंसल मूलत: वृन्दावन से हैं और आजकल कासगंज में हैं। इनकी कवितायें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित होती रही हैं। हमें विश्वास है कि स्त्री-अस्मिता पर लिखी इनकी ये कवितायें राग दिल्ली के पाठकों को पसंद आएंगी।
बेहद उम्दा अभिव्यक्तियां
बेहतरीन
सशक्त लेखन