ओंकार केडिया*
मुझे नहीं देखने
शहरों से गाँवों की ओर जाते
अंतहीन जत्थे,
सैकड़ों मील की यात्रा पर निकले
थकान से चूर
स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बच्चे.
मुझे नहीं देखने
पोटली में बंधे घर,
पाँवों में पड़े छाले,
पानी-सा बहता पसीना,
कन्धों पर चढ़े बिलबिलाते बच्चे,
ख़ुद को घसीटतीं गाभिन महिलाएँ.
मुझे नहीं देखने
ख़ाली पेट, ख़ाली ज़ेब,
छिपते-छिपाते, बचते-बचाते,
आशा-निराशा के बीच झूलते
फटेहाल बेबस लोग.
बड़ी उबाऊ है यह यात्रा,
मुझे चैनल बदलना है,
बस रामायण-महाभारत देखना है.

*Onkar Kedia has been a career Civil Servant who retired from the Central Government Service recently. He has been writing poems in Hindi and English on his blogs http://betterurlife.blogspot.com/ and http://onkarkedia.blogspot.com/
I am ashamed of the complete lack of humanity of the privileged.Speechless.
Apathy of the middle class 🙁
सादर नमस्कार,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (29-05-2020) को
“घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं” (चर्चा अंक-3716) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
…
“मीना भारद्वाज”
एक अंत हीन पीड़ा दायक यात्रा
बहुत बड़ा जिगर चाहिए देखने सुनने के लिए
बहुत ही सटीक । एक संवेदनाओं से भरे मन के लिए , भयावहता लिएजीवन के वो मर्मांतक अनुभव देखना बहुत पीड़ादायक है। बहुत मार्मिक ही आपकी रचना , ओंकार जी ??
सटीक!
दिल दुखाने वाली सच्चाई, जो शायद हमारे देश नसीब बन गई है।
कभी गर्व होता था भारतीय होने पर अब शर्मिन्दगी होती है