–*इन्दु मेहरा
वो संकरी गलियां जहां लम्बे अरसे से चहल-पहल रही है, रौनक रही है, हैरानी है आज वहाँ क्यूं इतना सन्नाटा छाया है, जैसे दिन में ही अंधेरा हो। या क्या हो गया हमारे जीवंत मोहल्लों को या यूं कहें कि हमारे समाज को? यहाँ ऐसी कैसी खामोशी है – सब तरफ जैसे एक डरावनी चुप्पी पसरी है।
ऐसा क्या हो गया है हमारी समाजिकता को कि इंसान अपनी इंसानियत ही भूल गया है। यही इंसानियत ही तो इंसान को सभ्य बनाती है और पशुओं से अलग रखती है। मानव के पास विवेक है, बुद्धि है, सोचने की अद्भुत शक्ति है, यदि हम अध्यात्म की भाषा में कहें तो यह परमात्मा की दी हुई सबसे बड़ी पूंजी है। विडंबना यही है कि वह इसे ही वह छोड़कर हिंसक पशुवत व्यवहार करने पर उतारू हो गया है। प्रकृति में कैसे विभिन्नता रखने वाले पशु-पक्षी तक एक साथ रह लेते हैं और धरती, आकाश, जल-स्रोतों, वायुमंडल का, प्रकृति का सदुपयोग अपनी अपनी ज़रूरत के मुताबिक मिलकर कर लेते हैं।
मानव को ये क्या हो गया है? उसके पास तो हर प्रकार का ज्ञान उपलब्ध है, सही और गलत की पहचान करने के साधन हैं, वह क्यों इतना स्वार्थी और भ्रमित हो गया है कि वह अपनी मानव होने की पहचान ही भूल गया है. बल्कि यूँ लगने लगा है कि मानव चित्त अस्वस्थ मानसिकता के इतने निम्न स्तर पर पहुंच गया है कि विकृत मानसिकता वाले जो मार्ग दिखाते हैं उसी पर चलने लगा है। कहाँ गए हमारे संस्कार कहाँ गई हमारी शिक्षा?
यह शोध का विषय होना चाहिए कि क्यों माता-पिता, परिवार, शिक्षा संस्थान और समाज की अन्य संस्थाएं आज युवा-वर्ग का सही मार्गदर्शन नहीं कर पा रही हैं ऐसा कैसे हो गया कि कोई भी उसे इतनी आसानी से उसे भटका सकता है। देश और समाज और उसकी अमूल्य संस्थाएं कोई छोटे से समय में नहीं बनती हैं। समाज में संस्थाओं का बनना एक लंबी प्रक्रिया होती है। फिर ये कैसे हो जाता है कि चंद असामाजिक तत्वों द्वारा हमारे सामाजिक ताने-बाने को ऐसे छिन्न-भिन्न करने का कुत्सित अवसर मिल जाता है?
जो दर्द और जो ज़ख्म जिस्म पर पड़े, वो तो ज़रूर कुछ समय में सही हो जाएंगे परंतु उन लोगों के दिल और दिमाग से वह अहसास क्या कभी भी ठीक हो सकता है जो उन्हें हाल में झेलना पड़ा? क्या ये पूरे समाज के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि कैसे उसके एक हिस्से को – चाहे वह किसी भी मज़हब, वर्ग या जाति का हो – डर के वातावरण में रहना पड़ रहा है? इस डर को दूर करने के लिए समाज के हर तबके को भरसक प्रयत्न करना होगा। ऐसी भावनाओं को पूरे समाज में विकसित करना होगा। साथ मिलकर रह सकें, एक दूसरे के सहायक बने तभी तरक्की होगी, खुशहाली होगी, सर्वांग विकास होगा। याद रखना चाहिए मानव शरीर में यदि रोग के कीटाणु बाहर से आक्रमण करते हैं तो उन्हें रोकने का हर प्रयास किया जाता है ताकि स्वस्थ रहा जा सके।
जब भी कभी समाज पर ऐसे विकृत तत्व आक्रमण करते हैं तो समाज की रक्षा के लिए एकजुट हो पूरी शिद्दत से प्रयास की आवश्यकता होती है तभी समाज स्वस्थ, सुरक्षित, प्रगतिशील बनता है। ऐसे ही समाज की व्याख्या हमें हर शास्त्र में, ग्रंथों में, संतों की वाणियों में मिलती है। इसके लिए आवश्यक है कि इन अमूल्य रत्नों को हम पढ़ें, समझें और जीवन में उतारे। जिस प्रकार गुरुनानक देव जी की गुरुवाणी कहती है –
ईश्वर अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौ मंदे।
*इन्दु मेहरा आध्यात्मिक और समाज-शास्त्रीय विषयों की जानकार हैं