अरे! यहीं कहीं तो था, कहाँ गायब हो गया स्कूल

सत्येंद्र प्रकाश*

गर्मी की छुट्टियाँ खत्म हुईं थीं .  पहली जुलाई को छुट्टियों के बाद गाँव का स्कूल खुल रहा था। गाँव के सामान्य जीवन की चहल पहल थोड़ी बढ़ी थी। दस बीस बच्चे जो भी स्कूल में पढ़ते थे, स्कूल के लिए निकल रहे थे। थोड़े बच्चे भी साथ चलें तो शरारत और चुहल भी साथ हो लेती हैं। फिर साथ चलते इन बच्चों की आपसी छेड़ छाड़ और हंसी मजाक से राह को गुलजार तो होना ही था।

राह भी लंबी हो गई थी। बारिशें भी तो इस बार समय से आ गईं थीं। खेतों के बीच से निकलती पगडंडी जो स्कूल पहुँचने का सीधा सरल रास्ता था, बारिश के पानी में डूब चुकी थी। खेतों में काम करने वाले बड़े लोग इन पगडंडियों और मेंड़ों से होकर फिर भी गुजर लेते थे पर बच्चों के नन्हे पाँव कहाँ पानी में डूबी इन पगडंडियों पर चल पाते। गाँव के स्कूल में तीसरी कक्षा तक की ही पढ़ाई होती थी और तीसरी जमात तक के बच्चों की उम्र ही क्या होती है। 

सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में मुख्य सड़क भी क्या होती थी, खेतों की सतह से थोड़ी ऊंची, बैलगाड़ी निकलने भर चौड़ी। स्कूल जाते बच्चों को बरसात में इसी का सहारा होता। गाँव की सड़कें घुमावदार होकर आम तौर पर गंतव्य की दूरी बढ़ा देतीं। और तो और बारिश के   पानी का प्यार कभी कभी इतना उमड़ता कि वो सड़क को सहलाते हुए इसके आर-पार बहने लगता। इस रास्ते पर बच्चे फिर भी अपने आप को फिसलन से बचते-बचाते किसी तरह चल लेते।

गाँव की ऐसी ही घुमावदार सड़क के रास्ते बच्चे स्कूल के लिए निकल पड़े थे। एक बच्चे के सिर पर कठई (काठ यानि लकड़ी की बनी) कुर्सी थी। पंडित जी के घर से हर दिन एक बच्चा इस कुर्सी को अपने सिर पर रख कर स्कूल ले जाता माट साब (मास्टर साहब) के लिए। और वही बच्चा शाम में उसे पंडित जी के घर वापस पहुँचाता। इस कार्य के लिए विद्यार्थियों का भाँजा लगता यानि बारी बारी ड्यूटी लगती। बच्चे की संख्या कम थी इस लिए कई बच्चों का महीने में दो दो भाँजा आ जाता। सिर पर रखी कुर्सी के ऊपर ही उस बच्चे ने अपने बैठने  की बोरी (चटाई) मोड़ कर रख ली थी। उसके कंधे पर एक थैला लटक रहा था जिसमें लिखने के लिए लकड़ी की पटरी (तकथी) और एक दो पतली किताबें थीं। बाकी बच्चों के कंधे पर भी ऐसा ही थैला टँगा था और हाथ में चटाई या बोरी थी।

समझ ही गये होंगे। स्कूल के पास फर्नीचर नाम की कोई चीज नहीं थी। ना माट साब के बैठने की कुर्सी ना छात्र छात्राओं के लिए कोई बेंच। ऊपर का विवरण इसी के वैकल्पिक व्यवस्था का है। पंडित जी की कुर्सी हर रोज़ जाती और हर रोज़ वापस आती। कारण, ना तो इसे सुरक्षित रखने की कोई जगह थी स्कूल में, ना ही पंडित जी इसे स्थायी तौर पर स्कूल को देना की स्थिति में थे। सीमित संसाधनों में पंडित जी के लिए शायद ये संभव भी ना था। आखिर उनके दरवाजे पर आने वालों के लिए भी तो दो अदद कुर्सी की जरूरत होती थी।

बच्चों की टोली स्कूल की तरफ बढ़ रही थी। चुहल और शरारतों का दौर भी साथ चल रहा था। खेतों में इकट्ठे पानी में पत्थर मारना, आगे चल रहे बच्चे का झोला खींच कर भागना और फिर आपस में झगड़ना आम शरारतें थी। आम के बगीचे से गुजरते हुए, डंडे से आम तोड़ने का प्रयास भी होता रहता। कभी आम हाथ लगता तो कभी रखवाले की गाली। इसी तरह मौज-मस्ती करते बच्चे स्कूल पहुँचे।

स्कूल के करीब पहुँचते ही एक बच्चे के मुँह जैसे चीख सी निकल गई। अरे! यहीं तो था अपना स्कूल – कहाँ गायब हो गया! बाकी बच्चे भी भौंचक्के हो एक दूसरे को देखते लगे। स्कूल वाली जगह पर बस दो-एक बांस झूल रहे थे. स्कूल कोई घनी आबादी के बीच तो था नहीं जो उसे ढूँढने में बच्चों को कोई मुश्किल होती। एक लंबी-चौड़ी परती जमीन के बीचों बीच अवस्थित था ये स्कूल। ये परती जमीन गाँव के मवेशियों का चारागाह और बच्चों के खेल का मैदान दोनों के काम आता। हाँ गाँव की मुख्य बस्ती से दूरी के कारण ये इलाका आम तौर पर सूना सा ही रहता था।

इसी परती जमीन के एक हिस्से में ये स्कूल हुआ करता था। तीसरी कक्षा तक की ही पढ़ाई होती थी इस स्कूल में। कुल मिलाकर बच्चे भी बीस से ज़्यादा नहीं थे। तो स्कूल भवन के नाम पर क्या ही होना था। एक आठ फुट लंबी छह फुट चौड़ी फूस की झोपड़ी जिसे स्थानीय बोली में मड़ई या पलानी कहते थे, यही था स्कूल भवन। इस मड़ईनुमा स्कूल में बस एक प्रवेश द्वार था। कोई जंगला या खिड़की नहीं थी। जमीन के धरातल को मिट्टी डालकर लगभग एक फुट ऊँचा कर लिया गया था। उसी पर ये मड़ई खड़ी थी ताकि बारिश का पानी रास्ता बना कर इसके अंदर ना आए। गाय के गोबर से लीप कर मिट्टी को तरीके से चिकना कर लिया गया था ताकि मिट्टी भी पूरी की पूरी जम जाए और स्थान शुद्ध भी हो जाए।

अपने स्कूल को नियत स्थान पर न पाकर बच्चों की पहली प्रतिक्रिया थी हमारा स्कूल चोरी हो गया। उन दिनों खेतों में रखवाली के लिए बनाई ऐसी झोपड़ियों का चोरी होना अक्सर सुनने को मिलता था। देश हाल ही में दुर्भिक्ष झेल चुका था। हरित क्रांति के आगाज के बावजूद समाज का एक बड़ा तबका भुखमरी की आसन्न समस्या से जूझ रहा था। समय के ऐसे दौर में खेतों से धान गेहूँ आदि की बालियाँ चोर काट ले जाते थे। चोरों से बचाने के लिए फसलों की रखवाली करनी पड़ती थी जिसके लिए खेतों में किसान अक्सर छोटी झोपड़ी डाल लेते थे। खेतों में बनाई ऐसी झोपड़ियाँ भी चोरों के निशाने पर होती। थोड़ी देर के लिए भी सूनी पड़ी नहीं की चोर इसे उठा ले जाते।

बच्चों के समझ में ये फिर भी नहीं आ रहा था कि चोरों की नियत आज ही क्यों खराब हुई। स्कूल तो पिछले दो तीन सालों से यहीं था। बाल मन का ऊहापोह चल ही रहा था कि माट साब अपने नियत समय से पहुँच गए। स्कूल गायब देख उनके भी आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। एक बार तो उनके मन में भी यही ख्याल आया कि इसे चोर उठा ले गए पर उन्हें मामला समझते देर नहीं लगी। पिछली रात तेज आँधी आई थी। हो ना हो तेज आँधी स्कूल की मड़ई उड़ा ले गयी। प्रौढ़ दिमाग और बाल मन में यही तो फर्क होता। उन्होंने बच्चों के संशय को तुरंत दूर  किया। “कोई चोरी नहीं हुई है, हमारा स्कूल आँधी में उड़ गया लगता है।“

मान लिया स्कूल आँधी में ही उड़ गया था। फिर आगे क्या करना था? मन ही मन बच्चे पुलकित हो रहे थे। चलो पढ़ाई से कुछ दिनों की और छुट्टी। स्कूल की मड़ई (झोपड़ी) जब तैयार होगी तभी तो स्कूल फिर शुरू हो पाएगा। कर्तव्यनिष्ठ माट साब, “टूर्नामेंट के वो आखिरी मैच” के हीरो महेश्वरी बाबू का मन तो कुछ और ही सोच रहा था। “बच्चों की पढ़ाई का नुकसान ना हो, इसे कैसे सुनिश्चित किया जाए”, एक जिम्मेदार शिक्षक के रूप में यह उस समय उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी।                
माट साब वैसे भी हँसमुख स्वभाव के धनी थे। फिर भी उनका चेहरा जैसे एक अद्भुत मुस्कान से खिल उठा। ऐसा लगा, बच्चों की आगे की पढ़ाई कैसे हो इसका समाधान माट साब ने ढूँढ लिया था। बच्चों को एक जगह इकट्ठा कर माट साब ने उनसे सवाल किया, ‘क्या तुम लोगों में से किसी ने शांति निकेतन का नाम सुना है’। गाँव के स्कूल में तीसरी कक्षा तक के विद्यार्थियों से भला शांति निकेतन की जानकारी की अपेक्षा कैसे की जा सकती। बच्चों से ना सुनते ही माट साब ने उन्हें पास के बगीचे में एकत्रित होने का इशारा किया। कहा अगर शांति निकेतन और गुरुदेव रबीन्द्र नाथ की कहानी सुननी है तो आज स्कूल पास के बगीचे में लगेगा।

बच्चों ने प्रश्न भी किया, “क्या स्कूल नहीं ढूँढेगे हम”? बच्चों की दिलचस्पी जितनी स्कूल ढूँढने नहीं थी, उतनी पढ़ाई से मुक्ति पाकर कुछ और करने में थी। पढ़ाई से इतर कुछ करने का आनंद कोई बाल मन ही समझ सकता है। किन्तु माट साब की हाजिरजबाबी व बाल मनोविज्ञान की समझ गजब की थी। उन्होंने छूटते ही पूछा पहले कहानी या स्कूल की खोज? जबाब मालूम था, “कहानी..” ! समवेत स्वर में जबाब मिला। तो चलो पहले कहानी सुनते हैं, फिर टिफ़िन के बाद स्कूल भी ढूँढा जाएगा’।

उन्मुक्त वातावरण में खुले मन से सीखने सिखाने की गुरुदेव की परिकल्पना को माट साब बड़ी कुशलता से बच्चों के सामने रखा। आसन्न चुनौती से निपटने में बच्चों की स्वीकारोक्ति जो सुनिश्चित करनी थी उन्हें। और उसी सोच के साथ उन्होनें शांति निकेतन की स्थापना की कहानी सुनाई। माट साब ने परिस्थितिजन्य चुनौती को मिनटों में अवसर में बदल दिया। माट साब को भी पता था कि स्कूल की उस छोटी झोपड़ी का पुनर्निर्माण आसान नहीं था। आँधी में उडी झोपड़ी अगर ना मिली तो नई झोपड़ी आसानी बनने वाली नहीं थी। पढ़ाई की महत्ता समझने वाले अब भी गाँव में कम ही लोग थे। दस लोग नई झोपड़ी रखने की पहल करते तो बीस विरोध में खड़े हो जाते।

स्कूल अनवरत चलता रहे इसका विकल्प जो माट साब का मन तराश रहा था वो सर्व प्रथम बच्चों को स्वीकार्य होनी चाहिए। बच्चे सहमत ‘तो आधे से अधिक काम हो गया समझो’ की भावना माट साब के मन में बलवती हो चली थी। यही उदेश्य था गुरुदेव और शांति निकेतन की कहानी सुनाने का।  कहानी सुनते ही एक स्वर में बच्चे बोल उठे, “जब तक हमारा स्कूल फिर से नहीं बन जाता हम शांति निकेतन की तरह पढ़ेंगे, खुले आसमान के नीचे खुली हवा में। धूप हुई तो पेड़ों की छाँव में कक्षा लगा लेंगे। सर्दियों में खुले आसमान के नीचे धूप में पढ़ने का मजा ही कुछ और होगा”।  हाँ बारिश के मौसम के लिए समस्या थोड़ी जटिल अवश्य थी। किसी के बरामदे या पलानी का विकल्प था मगर इसकी सहमति प्राप्त करना मुश्किल हो सकता था। यही तो चाह रहे थे माट साब। स्वयं प्रस्ताव रखने की बजाय बच्चों से यही तो सुनना चाहते थे।

आगे की पढ़ाई वैकल्पिक ढंग से बिना रोक टोक चलती रहे इस पर बच्चों की स्वीकारोक्ति मिलते ही खोए हुए स्कूल को ढूँढने का उपक्रम शुरू हुआ। दूर दूर तक खेतों में नजर दौड़ाई गई। स्कूल के सबसे नजदीक के टोले में भी पुछताछ की गई। कहीं कुछ पता नहीं लग रहा था। एक सच्चे शिक्षक के लिए वो स्थान तपस्थली से कम ना थी जहाँ से उसने शिक्षा दान का श्री गणेश किया था। और वो कुटिया  भी मंदिर से कम ना थी उनके लिए।  

देखते ही देखते पास के टोले के कुछ बड़े लोगों और कुछ उत्साही छात्रों की सेना माट साब ने तैयार कर ली। इस खोजी सेना की घंटों के परिश्रम के बाद स्कूल की उस झोपड़ी का कुछ अंश दूर की झाड़ों में अटका दिखा। उसी झाड में उगे किसी बड़े पेड़ के ऊपर झोपड़ी की छत जीर्ण स्थिति में दिखी। स्पष्ट था, उस झोपड़ी के सभी हिस्से मिल जाने पर भी उनसे नई झोपड़ी नहीं बनाई जा सकती। निराश मन से माट साब ने यह सूचना बाकी छात्रों को दी। पर कोई भी बच्चा इस सूचना से दुखी नहीं हुआ। वो तो खुश थे, इस आपदा से उन्हें शांति निकेतन की तर्ज पर विद्या अर्जित करने का अवसर जो मिल गया था।
श्रमदान और सामूहिक सहयोग से स्कूल निर्माण की माट साब की कोशिश एक अलग कहानी है जिसे फिर कभी के लिए छोड़ते हैं. 

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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3 COMMENTS

  1. ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में छोटी बड़ी अनेक ऐसी घटनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का सुंदर प्रयास है यह। गाँव वह नहीं जो बॉलीवुड में दिखता दिखाया गया है। व्यक्तिगत रूप से मदर इंडिया के बाद कोई ऐसा समुचित प्रयास नहीं देखा मैंने।
    ऐसे में यह आलेख,कथा तो अवश्य है किंतु बलवती ग्रामीण सोच का प्रेरक भी है। इन्हीं उत्साही बालकों में से कुछ आगे चल के समाज मे कितने ऊंचे स्थान पर पहुँचे यह जानना भी पाठकों हेतु गीता-पाठ से कमतर ना होगा। कर्मण्येवाधिकारस्ते का मंत्र यही संगत होता दिखे सम्भवतः।

  2. पुराने दिनों के संघर्ष की कहानी का बहुत ही शानदार तरीके से वर्णन किया गया है। उस समय के शिक्षकों का शिक्षा के प्रति समर्पण अतुल्य है। जब वेतन भी कम हुआ करता था। इसके साथ ही बालमन का जिस तरह से वर्णन किया गया है वह भी काफी आनंददायक है, तथा हम सबने इसे अपने बाल्यकाल में महसूस किया होगा। स्कूल से छुट्टी मिलने पर हम सब आह्लादित हो जाया करते थे। लेखक का अत्यंत ही प्रशंसनीय लेखन जिसके लिए लेखक का दिल से आभार।

  3. Thode sansadhan me bhi Jo shikshak ka samarpan hai Vidya daan ke liye vo atulniya hai jiska abhav hame aj mahsoos hota hai.saath hi balsulabh manobhav ka Jo varnan vo bahut hi rochak hai ap ki lekhani hame khud ke bachpan ki taraf le jati hai.vartman samay me is prakar ki rochak aur svachh lekani se parichit karane ke liye apka abhar ,nayi kahani ki pratiksha me ……

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