सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं के बहाने राजेन्द्र भट्ट ने इस लेख में यह सिफ़ारिश की है कि कविताओं को पढ़ते-गुनते समय अगर आप अपना बुद्धिजीवी और अति-गंभीर होने का आग्रह छोड़ कर समालोचना करेंगे तो इस बात की संभावना बढ़ जाएगी आप कविताओं में छिपा उल्लास और जीवंतता करीब से महसूस कर सकेंगे। भट्ट जी ने इस वेब पत्रिका में अक्सर राजनीतिक विषयों पर ही लेख लिखे हैं लेकिन वो साहित्यिक विषयों पर भी अच्छी पकड़ रखते हैं, इस लेख से पता चलता है। हम उनसे और भी लेखों के लिए आग्रह करेंगे, फिलहाल आप यह पढ़िये।
राजेन्द्र भट्ट*
उल्लास की कविता सी ज़िंदगी
किसी कवि, लेखक या विद्वान की मन पर सबसे ज्यादा, सबसे गहरे असर करने वाली कौन सी बात होती है? जवाब में सबसे मौजूं पंक्तियाँ अंग्रेजी के कवि शेली की हैं कि “Our sweetest songs are those that tell of saddest thoughts.” इसी की तर्ज पर हिन्दी मेँ भी प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रा नन्दन पंत ने लिखा है -–“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।“
तो क्या महत्वपूर्ण, कालजयी, गहरे अर्थों वाला कवि होने के लिए दुख, संघर्ष, आक्रोश की गहराई ही एकमात्र कसौटी है? क्या उम्मीद, चुटीलेपन और खुशनुमा माहौल बनाए वाली, कुछ अच्छा-सा महसूस करवाने वाली कविता हल्की होती है और ज्यादा समय तक टिकती नहीं है?
हिन्दी कवियत्री – सुभद्रा कुमारी चौहान की छवि तो एकदम सामने आती है जो घोषित रूप से – खुशी, आशा और आह्लाद बिखेरती रहती हैं। उनकी अपनी ही पंक्तियाँ हैं –
जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आई।
जग झूठा है – यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आई।
हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों मेँ एक शब्द होता था – ‘प्रसाद’ गुण। वह कुल मिला कर ऐसे साहित्य से मिलता था जिसमें शब्द, भाव, भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण होते थे, और सब के मिले-जिले प्रभाव से जैसे जीवन की सार्थकता की, खुशी की, चारों तरफ कुछ अच्छा-सा होने की लय मिल जाती थी। दुख-उलझन-हताशा के टूटे तारों वाला सितार, कम से कम कुछ समय तक तो, नज़र से दूर हो जाता था। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं के प्रवाह मेँ करुणा, वीरता, आदर्श और आह्वान की कमी नहीं है। लेकिन, इन सब धाराओं से कोई हताश- गुस्से वाली नहीं, ‘प्रसाद’ गुण की अठखेली-सी करती निर्मल पहाड़ी नदी बन जाती है। लगता है, जैसे दिल से पूजा करके वास्तव मेँ ‘प्रसाद’ ले रहे हों; थोड़ा ज्यादा समृद्ध, ज्यादा पूर्ण हो रहे हों।
सुभद्रा कुमारी चौहान का लेखन ‘बहुत गहन’, आह-आक्रोश भरा नहीं है। शायद, इसीलिए उनकी प्रायः सभी कविताओं को ‘बाल कविता’ के खांचे मेँ डाल दिया जाता है। वैसे देखा जाए तो अगर अपनी तमाम समस्याओं, दार्शनिकता, आक्रोश, चिंतन के पुरस्कार मेँ हम ‘बचकाने’ नहीं, बल्कि ‘बच्चों जैसे’ – (childish नहीं, child-like) बन सकें तो सौदा बुरा नहीं है। आक्रोश-निराशा वाले इकहरे चिंतन की ‘गहराई’ कभी-कभी ‘बचकाने’ तरीके से उग्र और खतरनाक होने की ओर भी ले जाती है।
चलिए, सवाल को उल्टी तरफ से पूछें कि सुभद्रा कुमारी चौहान की कौन सी रचना वाकई इतनी ‘हल्की’ है कि मन को न छूए, कि हमें कुछ ज्यादा भला-सा, बड़ा-सा न बनाए! या समय की कसौटी पर टिके नहीं! क्या यह कथित ‘हलकापन’ बिना किसी मन की गांठ वाली उदार,सौम्य पारदर्शिता नहीं है? जब तक गंभीर समालोचक सुभद्रा जी की ऐसी हल्की कविताओं का ‘पोस्टमॉर्टम’ करें; चलिए, इस लेख की सीमा मेँ, हम भी उनकी कुछ कविताओं के ज़रिए जवाब तलाशें।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता ‘झांसी की रानी’ को लें। इसकी लोकप्रियता पर तो कुछ अधिक कहने की आवश्यकता ही नहीं है। शायद बचपन मेँ चार-पाँच साल भी हिन्दी पढे सभी वयस्कों की ज़ुबान पर इस कविता के कुछ हिस्से अवश्य गुनगुनाहट बन कर निकल जाते होंगे। शायद कभी इस कविता के ‘हल्के’ होने का ख्याल नहीं आया होगा। इस कविता की भाषा-शैली, ओज-प्रवाह का जादू सिर पर चढ़ कर बोलता है। आइये, हम ‘बड़ों के गंभीर विमर्श’ की ही भाषा मेँ इस कविता पर बात करते हैं।
एक तो, कवयित्री कविता के हर अंतरे मेँ पूरी सौम्य पारदर्शिता से स्वीकार करती हैं कि उन्होंने ‘बुंदेले हरबोलों से यह कथा’ सुनी है। यानि बुन्देली लोक-गाथाओं का प्रभाव वह स्वीकार करती हैं। यह भी एक विनम्र, ईमानदार ‘बड़प्पन’ है। लेकिन इस स्थानीय लोक-गाथा की सीमाओं को विस्तृत कर इसे हिन्दी का कालजयी, ‘साहित्यिक लोकगीत’ बनाने का काम सुभद्रा जी ने किया है।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम पर अब विपुल साहित्य उपलब्ध है। एक ‘डिबेट’ हमेशा रही है कि क्या यह महज कुछ गद्दी छिने रजवाड़ों का विरोध था, या आम जन भी इसमें शामिल था। पिछले कुछ दशकों से परंपरागत ऐतिहासिक स्रोतों के साथ-साथ जन-स्रोतों, वाचिक परंपरा (लोकगीतों-कथाओं), समाज के हाशिये पर रहे – किताबी ज्ञान और सत्ता से वंचित वर्गों के नजरिए और स्रोतों से हासिल ‘सबाल्टर्न’ विमर्श भी इतिहास में महत्वपूर्ण हो गया है।
एक साहित्यिक, घोषित रूप से बच्चों की कविता से आप इस बारे में क्या अपेक्षा कर सकते हैं? लेकिन, बहुत ही सरल-प्रवाहपूर्ण शब्दों में, सुभद्रा जी इस विमर्श का निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं। ये पंक्तियाँ देखिए- किस खूबसूरत, संक्षिप्त तरीके से 1857 के संघर्ष में राजा-सामंतों, ब्रिटिश फौज में अपमान झेल रहे सिपाहियों के साथ-साथ आम जन की तकलीफ़ों और भागीदारी को रेखांकित किया गया है। आप इन पंक्तियों में धार्मिक-सांस्कृतिक कारणों की धमक भी सुन सकते हैं–
‘कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान।
वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अपमान।
और
महलों ने दी आग, झोपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी।
यह स्वतन्त्रता की चिंगारी अंतरतम से आई थी।
इस संघर्ष के नेतृत्व में भी विविध वर्गों, धार्मिक विश्वासों के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा-विचारों और रणनीति के जानकार थे। यह इकहरा सामंती विद्रोह या अपढ़ सिपाहियों – आम लोगों का अनियंत्रित ‘गदर’ नहीं था। कविता में, कुछ ही पंक्तियों में नेतृत्व का यह ‘रिप्रजेंटेशन’ देखिए-
इस स्वतन्त्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम।
नाना धुंधूपंत, तांतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम।
अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुँवर सिंह सैनिक अभिराम।
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुर्बानी थी।
इस सूची में मराठा साम्राज्य के प्रतिनिधि हैं, उस जमाने के प्रगतिशील बरेलवी मुस्लिम धारा के मौलवी अहमद शाह हैं, तो अंग्रेजी पढे-लिखे यूरोप-रूस का चक्कर लगा आए, नाना साहब के राजनयिक दूत ‘चतुर’ अजीमुल्ला हैं जो आम आदमी के भी प्रतिनिधि हैं। आम आदमी के ही प्रतिनिधि, कुशल रणनीतिकार तांत्या टोपे भी हैं। पूरब में, बिहार के जमींदार कुँवर सिंह हैं – जिनकी वीरगाथा को विस्तार में पढ़ चुके लोग ‘सैनिक अभिराम’ शब्द से निश्चय ही गदगद होंगे। और ‘मर्दानी’ रानी तो हैं ही। तो महलों के साथ-साथ, स्त्रियों और अन्य ‘सबाल्टर्न’ तबकों, मौलवियों और जमीदारों के प्रतिनिधि भी हैं। कुछ ही पंक्तियों में, ‘चतुर’ और ‘सैनिक अभिराम’ जैसे सारगर्भित विशेषणों वाला यह कितना सुंदर विमर्श है!
और अंग्रेजी राज में लिखी ये ‘राजद्रोही’ कविता और उन्हें ज्यादा चिढ़ाने वाली ‘लेकिन आज जुर्म कहलाती’ वाली पंक्ति तो – आज के दौर में कहें तो एकदम ‘टूल किट’ वाला मामला है। सुभद्रा जी, ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ शीर्षक की ‘राजद्रोह’ का इशारा कर रही एक अन्य कविता में – “है कलम बंधी, स्वच्छंद नहीं’ कह कर ब्रिटिश राज में कलम की आज़ादी का सवाल बुलंद करती हैं। लगता है, ये कविताएं 80 साल का अर्सा फांद कर आज के दौर की कविताएं बन गई हैं। ‘बच्चों की ऐसी कविताओं’ की लेखिका की बहादुरी को हम सलाम कर सकते हैं।
अब ‘खूब लड़ी मर्दानी’ की इस कविता में, थोड़ा महिला विमर्श की भी बात करें। रानी से पहले लड़ने आए, लेफ़्टीनेंट वॉकर का हाल देख लें –
लेफ़्टीनेंट वॉकर आ पहुंचा, आगे बढ़ा जवानों में।
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद अ-समानों में।
जख्मी होकर वॉकर भागा, उसे अजब हैरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी।
इन पंक्तियों की भाषा में वीरता के साथ विनोद भी है! थोड़ा आपको ‘विजुअल’ आँखों के सामने लाना होगा। कवियत्री ने इस द्वंद की ‘डीटेल्स’ नहीं दी हैं। इस ‘अचानक’ सम्पन्न हुए प्रसंग में – ‘अ-समान’ औरत से मामला निपटाने के लिए लेफ्ट-राइट’ कर आगे बढे और तुरंत ही ‘जख्मी और अजब हैरान’ होकर भागने वाले फौजी वॉकर का ‘कैरीकेचर’ आपको सामंती मर्दानगी का- ‘पैट्रियार्की’ का कैरीकेचर नहीं लगता? शायद बुंदेले हरबोलों ने भी यह कहानी मज़े लेकर ही सुनाई होगी!
पूंजीवाद की व्यापारी व्यवस्था सामंती मूल्यों, नज़र के पर्दे और नफासत को ध्वस्त कर, सब कुछ बाज़ार में ले आती है। इस तथ्य को ये सरल पंक्तियाँ कितनी खूबसूरती से समझती हैं –
रानी रोईं रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेज़ार।
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार।
‘सरे आम नीलाम’ छापते थे अंग्रेजों के अखबार।
नागपुर के जेवर ले लो, लखनऊ के लो नौलख हार।
और एक व्यवस्था की दूसरी पर जीत देखिए –
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महारानी थी।
गौर कीजिए, पूंजी के बुनियादी चरित्र ने बेगमों-रानियों, नागपुर (मराठों) और लखनऊ के कारीगरों के रोने और गम के बीच कोई परहेज नहीं किया है!
अगर आप ध्यान से पढ़ें तो इस ‘बच्चों की घोषित कविता’ में महाकाव्यात्मक व्याप्ति के सूत्र हैं। इस लेख की अपनी सीमा है। बस, आखिरी बात – रानी के बलिदान के बाद इस कविता की करुण समाप्ति होनी थी। लेकिन, यहाँ पर आप ‘प्रसाद’ गुण की, आप निराश, क्रुद्ध, दुखी नहीं होते बल्कि एक तरीके का ‘फुलफिलमेंट’, एक उम्मीद देखते हैं।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी।
यह तेरा बलिदान जगाएगा स्वतन्त्रता अविनाशी।
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फांसी।
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे फांसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी तू खुद अमिट निशानी थी।
ये निर्णायक जंग, केवल भारत की अंग्रेज़ से आज़ादी तक नहीं, ‘सचाई को फांसी लगाती हर मदमाती विजय’ के खिलाफ है। क्या ये संकेत आपको हर युग में नहीं दिखाई देती।
सुभद्राकुमारी चौहान की एक और ‘बाल-कविता’ है ‘मेरा नया बचपन’। इसमें बचपन के भोलेपन और प्रसंगों को याद करती माँ की कुछ बहुत सुंदर पंक्तियाँ और बिम्ब हैं। और तभी उनकी नन्हीं बिटिया आ जाती है –
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
(पूरी कविता आप इस यहाँ देख सकते हैं।)
बाल-मनोविज्ञान, माँ की मनःस्थिति और ‘बच्चा’ बन जाने का जो समाधान है, जो बिम्ब हैं, वे कितने सुंदर-सटीक हैं! और मिट्टी से खेलने, उसे खाने वाला यह बचपन और उस पर रीझने वाला मातृत्व उस शारीरिक-मानसिक व्याधियों से ग्रस्त प्रदर्शन-प्रिय, हल्के मध्य तथा उच्च वर्ग से कितना अलग है जहां का मातृत्व और वात्सल्य डेटौल, दिखावे और डिटर्जेंट का बंदी है।
सुभद्रा जी की एक प्रसिद्ध कविता है – कदम्ब का पेड़। एक नटखट शिशु की कल्पना है कि अगर कदंब का यह पेड़ यमुना के तट पर होता तो वह कैसे मां को चिढ़ने को उस पर चढ़ जाता, बांसुरी बजाता और फिर माँ के मनाने पर उसके पास चला जाता –
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
बहुत ही मोहक इस कविता में कृष्ण और माँ यशोदा के बेहद सौम्य, जीवंत बिम्ब बनते हैं।
सुभद्रा जी की कथित ‘वयस्क’ कविताएं भी नारी-मन की गहन भावनाएँ हैं, पर भाषा-शैली यहाँ भी बेहद सरल है। यहाँ भी शिकायत, आक्रोश, तंज़, दुख नहीं हैं। है तो पूर्णता का भाव, देने का, कृतज्ञता का भाव – ‘अनोखा दान’ कविता की ये पंक्तियाँ उनकी पूरी मनःस्थिति को बता देती हैं –
मैं अपने झीने आँचल में
इस अपार करुणा का भार
कैसे भला सँभाल सकूँगी
उनका वह स्नेह अपार।
लख महानता उनकी पल-पल
देख रही हूँ अपनी ओर
मेरे लिए बहुत थी केवल
उनकी तो करुणा की कोर।
‘बड़ों’ के लिए कविताओं के अलावा सुभद्रा जी के तीन कहानी संग्रह भी हैं। उनका कथा-साहित्य भी स्त्री-विमर्श पर ही केन्द्रित है। इस पर चर्चा यहाँ संभव नहीं होगी, लेकिन आस्था, आशा और सकारात्मकता का स्वर उनकी सभी रचनाओं में है।
ऐसा भी नहीं है कि सुभद्रा कुमारी चौहान की निराशा, गुस्से और घृणा से दूर आशा-आस्था वाली सकारात्मकता जीवन-संघर्ष से उनका पलायन था। 1904 में जन्मीं सुभद्रा स्वाधीनता संग्राम में कई बार जेल गईं। ब्रिटिश शासन-काल में उनकी कविताएं किस बहादुरी से ‘राजद्रोह’ कर रही थीं, इसकी बानगी इस लेख में दी गई है। गांधी जी की मृत्यु से वह बहुत व्यथित थीं और महज़ एक पखवाड़े बाद -15 फरवरी 1948 को एक कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई। कार के आगे आ गई एक मुर्गी को बचाने को उन्होंने ड्राइवर से कहा और कार का संतुलन बिगड़ने के बाद, 44 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। यह अंत समय तक उनकी मानवीयता का अनुपम उदाहरण था।
यह अवश्य है कि बचपन में और विवाह के बाद भी उन्हें प्रगतिशील पिता (ठाकुर रामनाथ सिंह) और पति ( ठाकुर लक्ष्मण सिंह) का पूरा सहयोग मिला। उनकी सकारात्मक जीवन-दृष्टि को परिवार का पूरा संबल मिला।
एक दिलचस्प बात यह, कि प्रसन्नता और आशा की इस कवयित्री की घनिष्ठ मैत्री महादेवी वर्मा से रही जो वेदना, विरह और करुणा का काव्य रचने वाली सबसे बड़ी रचनाकार थीं। महादेवी उनसे तीन साल छोटी और उनकी बहन जैसी थीं। शायद जैसे सुख-दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं, वैसे ही महादेवी की करुणा, सुभद्रा की आस्था को पूर्ण करती रही हों।
निष्कर्ष यह कि अगर कोई सुख की, आस्था की, उल्लास की बात करे और अगर उसकी भाव-भंगिमा में वयस्कों में बहुधा पाई जाने वाली निराशा या फिर ‘समझदार गंभीरता’ न हो तो हमें उसे खारिज नहीं करना चाहिए – कोई ‘जजमेंट’ नहीं देनी चाहिए। हो सकता है, उसके ज्ञान और अनुभव का दायरा ज्यादा समृद्ध हो। हो सकता है, ऐसे लोग किसी भी गंभीर लगते व्यक्ति से ज़्यादा बड़ी कुर्बानी कर सकते हों।
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लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं।
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सहज सरल शैली में साहित्य की पेचीदा बातों को इस लेख मे बहुत सलीके से रख दिया गया है। सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी चर्चित कवयित्री को और पढ़ने की ललकभी पैदा करता है यह लेख। राजेन्द्र भट्ट जी को बधाई।
अद्भुत। विधा, विषय कोई भी हो। लेखनी पहाड़ी नदी सी कल कल छल छल करती मन को हरहराती है।
अब प्रसाद गुण का उल्लेख हुआ तो उस पर कुछ और प्रकाश डाला जाए।
जयशंकर प्रसाद भी क्यों वंचित रहें इस लेखनी से।
क्यों न एक श्रंखला हो जाए। पाठक को भी घूंट घूंट पीने का आनंद लेने दें।
बधाई
भट्ट साहेब की लेखन शैली अदभुत है, वे हर शैली में निपुण हैं।
बहुत ही गंभीर और सारगर्भित। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं का जैसा sociological historical विश्लेषण किया है वैसा बहुत कम पढ़ने को मिलता है। सरल दिखने वाली कविताओं में भी गंभीर अंतर्दृष्टि निहित हो सकती है यह आपके विश्लेषण से स्पष्ट होता है।
राजेन्द्र भट्ट जी का बहुत ही सुंदर और पठनीय आलेख !! ऐसे ही लिखते रहें राजेन्द्र जी। दो बार पढ़ गया।
शानदार लेख. सुभद्रा कुमारी चौहान के बहाने यह लेख समालोचना के मानदंड और साहित्य और इतिहास के संबंधों को भी बखूबी सामने लाता है.
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं की पंक्तियां जो बचपन में पढ़ी थी, आज भी याद हैं. जो कविता इतने गहरे जा कर चुपचाप हमारे अवचेतन में अपना घर बना सकती वो अपनी महत्ता के लिए किसी आलोचक की संस्तुति की मोहताज नहीं होती.
लेखक को अनेकानेक साधुवाद…आप साहित्य पर भी और लिखें…आपका दृष्टिकोण एक ताजी हवा की तरह होगा, जैसा इस लेख में निकल कर आया है
सुभद्राकुमारी जी की …खूब लड़ी मर्दानी ….बहुत लोकप्रिय रचना है।हमारी पीढ़ी ने कोर्स में पढ़ी और शायद इतनी बड़ी
कोई कविता हमने कभी याद नहीं की उसके बाद।सस्वर इसका पाठ करना बहुत अच्छा लगता है। अब तो कविता कहानी ..सब कुछ आधुनिकता के नये आयाम छू रहा है ऐसे में सुभद्रा जी को याद करना बड़ा सुखद लगा। मेरा नया बचपन ..बरसों बाद पढ़ी ।आभार ।
सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं, उनके व्यक्तित्व पर आपकी आलोचना एक नई दृष्टि डालती है जो स्थापित आलोचकों से अब तक छूटी हुई थी या जानबूझकर नज़रंदाज़ की गई। सहजता और सरलता से आम जन की भाषा में जो कविताएं लिखी गई हैं वे अधिक प्रसिद्ध हुई हैं, यह कविता की सफलता का सबसे बड़ा पैमाना होता है, ऐसा मेरा मानना है। क्योंकि ये अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचती और समझी जाती हैं। आपने इसे खामी नहीं खूबी के रूप में बखूबी स्थापित किया है। इसके लिए हार्दिक बधाई। आपसे आलोचना ही नहीं, साहित्य और विचार की हर धारा में बहुत कुछ जानने और समझने का अवसर मिलता रहा है।
बहुत ही गहन अध्ययन और अभिरुचि के साथ आपने मर्म स्पर्शी विचार व्यक्त किए हैं। ऐसा लेखन आज लोग बहुत कम कर रहे हैं। साधुवाद।
आदरणीय गौतम जी, वागीश जी, राजेश जी, नंदिता जी, अमिताभ जी, संजीव जी, भाई अखिल और छोटे भाई जय और समीर – आपने तो जैकपॉट दे दिया। थोड़ा तो मेरे प्रति स्नेह का कंशेसन भी होगा। आपके सुझावों से सीखूंगा।
मेरे जैसे बेशर्म कामचोर से लिखा लेने, लेखों को जुटाने, तराशने की मेहनत और सुरुचिपूर्णता के लिए विद्याभूषण जी को धन्यवाद नहीं दे रहा हूँ। ये तो उनकी आदत ही है। हां, आप लोग अगर उनके संपर्क में आएंगे, तो ये पक्का है कि आप और वह – दोनों समृद्ध होंगे।
सारगर्भित विद्वतापूर्ण लेख। अभिनंदन।
विद्या भूषण जी का भी अभिनंदन
प्रिय जितेंद्र, इस लेख का इनाम आप से फिर संपर्क कायम होना है। उम्मीद है,आप सपरिवार खुश होगे। खूब तरक्की करो।
अछे लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई। मैं हिंदी का ज्ञाता नहीं हूँ परन्तु मुझे आपका लेख बहुत अच्छा लगा। आपकी लेखनी यूँ ही अग्रसर रहे ।
आदरणीय कोतवाल जी, आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत उत्साह बढ़ाने वाली है।
धन्यवाद।
राजेन्द्र जी
आनन्द आया
आपकी अध्ययनशीलता और विश्लेषण की तारीफ़ है
संदेह जन्मा , थोड़ी पेडागागिकल एक्सरसाइज़ भी है शायद
अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा
बहुत धन्यवाद, राजीव जी।