वो जिनकी कहानियां नहीं लिखी जातीं

विशाख राठी*

बछड़ों से हैं हम — गूंगे, भूखे  बछड़े

हम हैं गऊ -पालक — पर खाता दूध, मलाई कोई और है    

ख़ून पसीने से सींचते हैं खेत, उगाते हैं मोती 

पर हमारे बच्चे सोते हैं भूखे   

श्रीकृष्ण कळंब

श्रीकृष्ण कळंब, विदर्भ में कपास की खेती करने वाले एक छोटे किसान थे।  कळंब को अपने खेत में होने वाले कपास से उतना ही लगाव था जितना अपनी कविताओं से। जैसा उनकी इन पंक्तियों से ज़ाहिर होता है, उनका जीवन किसानी पर आश्रित था, लेकिन उससे ‘दूध-मलाई’ तो दूर, बच्चों को भर पेट भोजन मुहैय्या कराना भी कठिन पड़ता था। किसानी से खर्चा निकालना दूभर था, कर्ज़ों के चक्र में फँसे कळंब ने 24 मार्च, 2008 को ख़ुदकुशी कर ली। उनके पीछे रह गयीं उनकी  पत्नी और पाँच बेटियां। 

आत्महत्या करने वाले सैकड़ों किसानों के आंकड़ों में श्रीकृष्ण कळंब का  नाम भी जुड़ गया। 

जयदीप हार्डिकर लिखित ‘रामराव‘ की शुरुआत, श्रीकृष्ण कळंब की कहानी से होती है। 

(RAMRAO Harper Collins, Paperback, 265 pages, Published:2021)

रामराव के लेखक जयदीप हार्डिकर (यह चित्र उनके ट्विट्टर प्रोफ़ाइल से)

कळंब की तरह, रामराव पंचलेनिवार भी विदर्भ के एक छोटे किसान हैं। मुख्यतः कपास की खेती पर आश्रित, लेकिन कई और फसलों की खेती भी करते हैं। कळंब ही की तरह, उन पर भी परिवार की जिम्मेदारियां हैं, ढेर सारा कर्ज़ा है, उम्मीदें हैं — जो एक दिन टूट जाती हैं। 

रामराव, 2014 में होली के दिन एक कीटनाशक की दो बोतलें पी जाते हैं।  सौभाग्य से समय पर अस्पताल पहुंचा दिए गए, जान बच गयी। 

कळंब की तरह रामराव कविता तो नहीं लिखते, मगर अपने तंग हालात पर तंज ज़रूर कसते रहते हैं — ठेठ देहाती व्यंगात्मक अंदाज़ में। जैसे जान बच जाने के बाद मज़ाक करते हुए कहते हैं कि शायद उन (महंगे) कीटनाशकों में  मिलावट थी….  जिस कंपनी ने उसे बनाया उस पर मिलावटी कीटनाशक बेचने के लिए मुक़दमा करेंगे…                        

उन्हीं की कहानी है रामराव‘ — और उनके ज़रिये कपास की खेती करने वाले विदर्भ के सैकड़ों-हज़ारों छोटे और मंझले किसानों की। किसानों के जीवन को किसानों के नज़रिये-ज़बानी से देखने की एक कोशिश। रामराव पंचलेनिवार के सुख-दुःख में सात साल — 2014 से 2021 तक जयदीप शरीक़ रहते हैं। इन सात सालों में रामराव के जीवन के उतार-चढाव को कुछ डायरी-नुमा अंदाज़ में पाठकों के सामने पुस्तक  के रूप में पेश किया गया है।   

कुछ साल पहले तक किसानों की आत्महत्याओं के बारे में कुछ ‘राष्ट्रीय’ अख़बार और समाचार-चैनल कभी भूले-बिसरे कोई खबर चला दिया करते थे।  लेकिन चौंकाने वाले आंकड़ों के बावजूद इन खबरों को ना तो अखबारों में वो तवज्जो मिलती थी  जो मिलनी चाहिए थी, ना ही इन पर हमारे हुक्मरानों और मध्यम वर्ग के लोगों का इतना ध्यान जाता था, जितना कि अपेक्षा किया जाना चाहिए कि एक सभ्य समाज का ऐसे मुद्दे पर जाना चाहिए।   

जब ऐसी मानवीय आपदा को एक गंभीर समस्या का दर्जा भी नहीं दिया जाता, तो सरकारें भी बेपरवाह हो जाती हैं। 2015 के बाद किसानों की आत्महत्याों के आंकड़े छापना भी सरकार ने बंद कर दिया।  . आश्चर्य की बात यह है कि अखबारों में इस मुद्दे पर छपने वाली एक-दो छोटे कॉलम की खबरें जो पहले छप जातीं थीं, वो भी अब दिखाई नहीं देंती। तो क्या अब यह समस्या, समस्या नहीं रही? 

रामराव के अंतिम कुछ पन्नों में, विदर्भ और महाराष्ट्र के अन्य किसान संगठनों की किसान आत्महत्याओं के मुद्दे पर चुप्पी  के बारे में टिप्पणी है — यह वैसी ही चुप्पी प्रतीत होती है, जैसी 2014 के बाद हमारे देश के कई संस्थानों ने दबाव, डर, ‘विचारधारा-परिवर्तन’ या प्रलोभनों के बोझ तले अपनाई है। रामराव पढ़ के ज़ाहिर होता है कि विदर्भ के किसानों की समस्याएं जस की तस हैं। कपास की फ़सलों में कीड़ा लगने की समस्या हो, सिंचाई के पानी की कमी हो, बेमौसम बरसात हो, सूखा हो, कीटनाशकों और उर्वरकों के बढ़ते दाम हों, कम ब्याज पर ऋण ना मिलने की कठिनाई हो, आदि  — जिन समस्याओं से हमारा कृषक समाज जूझता आया है, वो सब वही हैं, जिनके बारे में हम बचपन से पढ़ते-सुनते रहे हैं। नोटबंदी जैसे कदमों से पैदा हुई नई दिक्कतें, बस जुड़ती चली जाती हैं। कहीं कोई सरकार, स्थायी समाधानों के बारे में सोच रही हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। जयदीप हार्डिकर, रामराव‘ में इन बातों की तरफ़ बार-बार ध्यान दिलाते हैं।                     

किताब, एक पत्रकार ने लिखी है, यह एकदम साफ़ तौर पर झलकता है। कहीं कोई अतिश्योक्ति नहीं —  बहुत पारदर्शी ढंग से सब तथ्य सामने रखते जाते हैं। कहीं-कहीं बहुत सूक्ष्म (minute) डिटेल्स छोड़े भी जा सकते थे, जो किताब की पाठनीयता को और बढ़ा देते — लेकिन इसके लिए एडिटर जिम्मेदार हैं, लेखक नहीं। 

लेकिन तथ्यों पर ज़ोर होने के बावजूद बहुत संवेदनशीलता और गहराई से मुद्दों की तह तक जाने की कोशिश बार-बार झलकती है। विषयवस्तु  और मुख्य पात्र — दोनों के बारे में काफी संवेदनशीलता के साथ लिखा गया है, मगर भावुक हो कर नहीं। यह किताब की ख़ूबी भी है, और शायद कुछ पाठकों के लिए कमी भी।     

जैसा कि शायद स्वाभाविक है — रामराव और लेखक के बीच एक आत्मीयता बनती चली जाती है। अपने ऊपर आई अकल्पनीय आपदाओं (पत्नी की लम्बी बीमारी के कारण मृत्यु, अकेले दो बेटियों की परवरिश, फ़सल का बर्बाद हो जाना, दामाद की आत्महत्या, बेटी और पोती का ससुराल से बेदखल किया जाना) के बावजूद, रामराव कई बार टूट ज़रूर जाते हैं, मगर उनमें दूसरों की समस्याओं के प्रति अद्भुत संवेदनशीलता दिखाई पड़ती है। फिर वह चाहे उनके खेत में काम करने वाले मज़दूर की समस्या हो, अकेले रह रहे गाँव के बुज़ुर्ग दम्पति की देख-रेख करना हो, या खुद जयदीप के जीवन में आ रहीं दिक्कतें क्यों न हों। जयदीप की अचानक नौकरी चले जाने पर रामराव से उनकी बातचीत का वाक़या इस सन्दर्भ में ख़ास तौर पर याद आता है।    

किसानी में रह कर रामराव कभी भी अपने हालात सुधार नहीं पाएंगे, कभी कर्ज़े से मुक्ति तक नहीं पाएंगे — यह वह खुद समझते, जानते, कहते रहते हैं, पर उसके बावजूद खेती-किसानी में ही बने रहते हैं। रामराव के आस-पास के किसान, शहरों-कस्बों में जा कर बस रहे हैं, लेकिन वह न केवल खुद के खेत, बल्कि गाँव के कुछ और लोगों के खेतों को भी भाड़े पर ले कर ले कर उनमें खेती करते हैं। साल-दर-साल या तो भारी नुकसान सहते हैं, या बस इतना कमा लेते हैं की मज़दूरों का वेतन और उस साल लिए कर्ज़े को पाट सकें। और फिर वही चक्र —  बुआई कर पाने के लिए पैसे और संसाधन जुटाने की कोशिशें; फिर बुआई;  पानी बरसने का इंतज़ार; कीड़ों, जंगली जानवरों और  आपदाओं से खड़ी फ़सल को बचाने की कोशिशें; कटाई का ख़र्च; बाजार में फ़सल के लिए सही दाम की उम्मीदें; उन कोशिशों, या उन उम्मीदों पर पानी फिरना…  

कर्ज़ों का पहाड़ बढ़ता जाता है, साल-दर-साल छोटे और मंझले किसान खेती (या अपना जीवन ही) त्यागते चले जाते हैं — यही रामराव और भारतीय कृषि की नियति जान पड़ती है। 

रामराव पंचलेनिवार की कहानी सिर्फ रामराव की नहीं — जयदीप इसके ज़रिये कृषि संबंधी सरकारी नीतियों; गाँव-कस्बों का बदलता स्वरूप — सांस्कृतिक, सामजिक और आर्थिक; छोटे-मंझले किसानों की दिक्कतें; बाज़ार, कंपनियों, व्यापारियों, सूद-ख़ोरों का रवैय्या; और इन सब के आपसी टकराव के नतीजे से होने वाले सामाजिक-ऐतिहासिक बदलावों के बारे में भी लिखते हैं। देसी बीजों के ख़ात्मे और उनकी जगह जादुई पैदावार, कीड़ा-मुक्त फ़सलें, लहलहाते खेतों का सपना दिखाने वाली मल्टी-नेशनल कंपनियों के बीजों की सच्चाई के बारे में भी पता चलता है।  

किताब पढ़ते हुए, एक दो बातों पर बार-बार ध्यान जाता है।  पहला यह कि (रामराव जैसे) जब एक छोटे-मंझले किसान का जीवन इतना कठिन है, तो खेत मज़दूरों का जीवन कितना और बदतर होगा? 

और दूसरा यह, कि जिन परिस्थितियों के कारण पुरुष-किसान आत्महत्या करते हैं उन्हीं परिस्थितियों (या उनसे बदतर) का सामना कर के कई विधवा-किसान महिलाएं उनको बदलने में भी सक्षम हुई हैं। शायद इस दूसरी बात में इस समस्या के सामाजिक-राजनीतिक कारणों (पैतृक, पुरुष-प्रधान समाज की कुरीतियां) और उन से  निदान पाने के बीज मौजूद हैं (महिला किसानों को सम्पत्ति में अधिकार देना, ग्रामीण घरों, पंचायतों आदि में उनकी आवाज़ बुलंद करना और उनकी सलाह को महत्ता देना)? 

देश के इतने बड़े समूह की समस्याओं के प्रति हमारे सरकारी तंत्र, मीडिया और आभिजात्य वर्ग की उदासीनता हमारे समाज और हमारी परंपरा के बारे में क्या कहती है? 

एक साल से दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चल रहे किसान आंदोलन के प्रति हमारा रवैया इस बात का सूचक है कि जिन्हें हम अन्नदाता कहते हैं, उनके खुद के सुख-दुःख, हमारे लिए कितना मायना रखते हैं। 

रामराव का अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में भी होना चाहिए, और शायद मराठी में सबसे पहले। रामराव की कहानी देश के हर ‘रामराव’ तक ज़रूर पहुंचनी चाहिए और हर उस पाठक तक जो देश की कृषि और कृषक की चिंता करता है।

जयदीप हार्डिकर की यह क़िताब यहाँ ऑर्डर की जा सकती है।

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*Vishakh Rathi is a media professional with over two decades’ experience. He was formerly associated with news (Headlines Today, CNN-IBN) as well as non-news channels (Star TV) besides various reputed production houses. Presently, freelancing as a communication consultant for some NGOs and has also been doing story development assignments for web-series based on factual events. He can be contacted at [email protected]

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