कांग्रेस का ज़िंदा रहना क्यों ज़रूरी है

आज की बात

परसों एक्ज़िट पोल आने के मौके पर एक टीवी चैनल से बात करते समय स्वराज अभियान के अध्यक्ष और चुनाव एवं राजनीति के विशेषज्ञ योगेंद्र यादव ने कांग्रेस के खत्‍म होने की इच्छा ज़ाहिर की है। इस चैनल में अपनी बात कहने के बाद उन्होने ट्वीट करके कहा कि “कांग्रेस मस्ट डाई” या कांग्रेस को अब मरना चाहिए। जहां तक मुझे मालूम है योगेंद्र गांधीवादी-समाजवादी धारा से आते हैं और वह भारतीय राजनीति के दार्शनिक समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं। डॉ लोहिया गैर-कांग्रेसवाद के सिद्धांत के जनक माने जाते हैं।

आज जब भाजपा दूसरी बार भी सत्ता के मुहाने पर खड़ी आ रही है और मोदी जी का वर्चस्व फिर एक बार पाँच साल के लिए स्थापित होता नज़र आ रहा है तो लोहियावादी समाजवादियों को निराश होना स्वाभाविक है। ऐसी विकट परिस्थिति में यह कहना कि कांग्रेस हर मोर्चे पर असफल रही है और उसे अब विकल्प के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए, एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया लग सकती है। लेकिन हमें लगता है कि यह जल्दबाज़ी में कही गई बात है और असल में ऐसा कहना सच्चाई से मुंह मोड़ना है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के आज़ादी के बाद वाले इतिहास में अनगिनत ऐसी गलतियाँ रही होंगी जिनके कारण आप उसकी आलोचना कर सकते हैं। 1975 में आपातकाल लागू करना और 1984 में सिक्ख-विरोधी दंगे तो खैर ऐसे बदनुमा दाग हैं जो कभी नहीं साफ नहीं हो सकते। लेकिन दिक्कत ये है कि कांग्रेस चुनाव हार रही है और भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकी, तो क्या ऐसे समय में ये मान लेना ठीक होगा कि ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के रास्ते में वही सबसे बड़ी बाधा है?  ये बात तर्कपूर्ण नहीं लगती है और ऐसा लगता है कि गैर-कांग्रेसवाद के अपने एक आग्रह के कारण योगेन्द्र यादव ने एक ऐसे समय में ये बात कह दी है जब भाजपा-आरएसएस के खिलाफ तमाम ताकतों का एकजुट होना आवश्यक है।

यों भी पिछले वर्षों में कांग्रेस ने ये दिखाया है कि वो समय के साथ अपने प्रगतिशील स्वरूप को भी अलमारी से झाड़ पोंछ कर सामने ले आती रही है। क्या पिछले दो दशकों में आपने सूचना के अधिकार, (RTI)  ग्रामीण रोजगार योजना (नरेगा), फॉरेस्ट राइट्स एक्ट या वन अधिकार नियम (2006) जैसे कोई और प्रगतिशील कानून देखे हैं? ये सभी कांग्रेस सरकारों द्वारा लाये गए कानून हैं। इसके अलावा ये बात भी है कि जब आपके सामने भाजपा और आरएसएस से लड़ने के लिए कोई विकल्प ही उपस्थित नहीं है तो फिर इस समय के सबसे बड़े विरोधी दल को मरने का श्राप देकर क्या योंगेंद्र ये कोशिश कर रहे हैं कि आरएसएस और भाजपा से लड़ने वाली कोई भी ताकत ना बचे?

योगेन्द्र की विचार-यात्रा देखकर या उनका राजनीति का पुराना ट्रेक रेकॉर्ड देखकर ऐसा नहीं लगता कि वो किसी योजना (षड्यंत्र) के तहत अंदर ही अंदर भाजपा के लिए साफ मैदान चाहते हैं।

फिर उन्होने ऐसा बयान क्यों दिया और क्यों उसे लगातार डिफेंड भी कर रहे हैं, ये समझ से परे है। अगर कोई ये कहे कि कांग्रेस के ना रहने से भाजपा को कोई लाभ नहीं होगा तो वो महज़ किताबी बात हो सकती है। सच्चाई से ऐसे मुंह मोड़ेंगे तो लोगों को लग ही सकता है कि आप भाजपा को मदद कर रहे हैं।

योगेंद्र वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने के काम में पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों से लगे हैं। यह अच्छी बात है कि उन्होने इसमें हार नहीं मानी है और चाहे वह कभी भी इस स्थिति में नहीं पहुंचे कि उनकी वैकल्पिक राजनीति की कोशिश चुनावी मोर्चे पर सफल होती (सिवाय उस संक्षिप्त समय के जब वह अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के सदस्य थे) – यह अच्छी बात इसलिए है कि इस स्तंभकार को लगता है कि वैकल्पिक राजनीति करने वाले लोग, चाहे वो योगेन्द्र यादव हों या मेधा पाटेकर या फिर अन्य सैंकड़ों आंदोलन समूह जो देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों, आदिवासियों और हाशिये पर पड़े लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं, चुनावी राजनीति में चाहे सफल ना रहते हों, लेकिन फिर भी उनकी राजनीति, उनकी ईमानदार बुलंद आवाज़ सत्ता की और मुख्यधारा की राजनीति करने वालों को प्रभावित करती है और उनका असर नीति-निर्धारण पर अवश्य पड़ता है। यही उनकी ताकत है और हमारे लोकतन्त्र की अब तक की ये बड़ी उपलब्धि है कि हमारी ये ताकत अभी बनी हुई है।

ऐसे में हम योगेन्द्र यादव की राजनीति को खारिज करने का साहस कतई नहीं कर रहे – हम तो केवल इतना कह रहे हैं कि वह अपनी विकल्प की राजनीति करते रहें लेकिन उनका कांग्रेस जैसी मुख्य-धारा की पार्टी को ये श्राप देना कि अब उसे मर जाना चाहिए लोकतन्त्र की भावना के ही खिलाफ लगता है। उनके इस वक्तव्य का इससे गलत समय कोई और नहीं हो सकता था क्योंकि उस एक्ज़िट पोल के अनुमान पूरी तरह भाजपा या यूं कहें कि मोदी के पक्ष में जा रहे थे और इन अनुमानों के अनुसार कांग्रेस पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुकी है। 23 मई को चुनाव परिणाम जो भी रहें, इतना तो मानना होगा कि कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी ने भाजपा-आरएसएस का बिना हिम्मत खोये हुए, डटकर मुक़ाबला किया।

वैकल्पिक राजनीति करने वालों से हमारी उम्मीद है कि वो जब तक इस स्थिति में नहीं आ जाते कि संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक परम्पराओं के परखचे उड़ाने वाली भाजपा और उसके मूल संगठन आरएसएस का वह स्वयंं मुक़ाबला कर सकें, तब तक वह कांग्रेस के विकल्प को ना मरने दें। वैकल्पिक राजनीति करने वाले चाहे कोई क्रांतिकारी स्वरूप लें या फिर वह एक आदर्शवादी, उदार और मध्यमार्गी राजनीति कर लें, उन्हें कोई नहीं रोक रहा। ऐसे में उन्हें भी चाहिए कि यदि आरएसएस-भाजपा के साथ लड़ाई में मुख्य धारा की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का साथ नहीं भी दे सकते तो कम से कम उसका इस प्रकार का विरोध भी ना करें कि उसका सीधा लाभ भाजपा और आरएसएस को मिल जाए।

ये बताने की आवश्यकता नहीं कि इस समय देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है गांधी जी के नेतृत्व मे चले स्वतन्त्रता संग्राम से उपजी हमारी राजनीतिक विरासत और संवैधानिक मूल्यों को बचाने की (जिसे आपने ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ कहा है) और इन दिनों ये चुनौती हमें भाजपा-आरएसएस से मिल रही है ना कि कांग्रेस से। हमारे विचार में तो ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को बचाने की लड़ाई में इस समय कांग्रेस देश की प्रगतिशील ताकतों के साथ है और इस समय में उसे कमजोर करना इस लड़ाई में भाजपा-आरएसएस के साथ देने जैसा होगा।

– विद्या भूषण अरोरा

2 COMMENTS

  1. विद्याभूषण अरोड़ा जी का यह आलेख बहुत ही सारगर्भित और समय अनुकूल है कांग्रेस ही अकेली ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो वैमनस्यता और सांप्रदायिकता के खिलाफ मजबूती से खड़ी है और खड़ी रहेगी

  2. योगेन्द्रजी की विडम्बना ये है कि विगत बीस वर्षों मे भाजपा और काँग्रेस शासन बारी बारी रहा अन्य घटकों को साथ लेकर। इन दोनो बड़े दलों के अतिरिक्त जो भी दल है वो सीमित हैं किसी विशेष क्षेत्र, या जाति, और अधिकांश किन्हीं परिवारों की बपौती से ग्रस्त हैं। जनता पार्टी बनने के पहले तक काँग्रेस के अलावा जो भी राजनैतिक दल थे भले ही आकार मे छोटे थे लेकिन एक निश्चित विचारधारा के पोषक थे परिवारवाद नहीं था। मजे की बात ये है कि काँग्रेस के वंशानुगत शासन का विरोध करते करते इन दलों से निकले क्षत्रपों ने जो राजनैतिक दल स्थापित किये वो नाममात्र के लिये सिद्धांत की राजनीति करते हैं सब के सब क्षेत्रवाद, जातिवाद और वंशवाद के पोषक हैं। यहां तक कि भाजपा स्वयं कईबार इन्हीं नीतियों पर चलती नजर आती है। अब सभी लगभग एक जैसे हैं और एक जैसे भृष्ट भी। ऐसे मे जब कोई स्थान कोई स्पेस रिक्त न हो योगेन्द्रजी जैसे ईमानदार सोच वाले व्यक्ति के लिये बाहर से अपने विचार प्रकट करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। कोई नया जन आन्दोलन ही इस धुंध को साफ करेगा।

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