महाकुंभ का आगाज़ : हरकत में आलू-टमाटर-प्याज़

सत्येन्द्र प्रकाश*

सत्येन्द्र प्रकाश जिनका पूरा परिचय आप लेख के अंत में देख सकते हैं, इस वेब-पत्रिका के लिए पिछले कुछ सप्ताह से नियमित लिख रहे हैं लेकिन आज का यह व्यंग्य उनके अब तक के लेखों से बिल्कुल अलग प्रकृति का है। विषयवस्तु और शैली, दोनों ही आपको इनके पूर्व में प्रकाशित लेखों जैसे मनभरण काका और उपहार या कल्लू पर लिखे लेखों से बिल्कुल भिन्न भावभूमि में ले जाएगी।

महाकुंभ का आगाज हो चुका है। प्याज़ हरकत में आ गया है। उसने बैठक बुलायीं है। आलू, टमाटर के साथ अन्य छोटी बड़ी सभी सब्जियों को बुलाया है। कई दाल मसलन तुअर, चना, मूंग, मसूर आदि भी आमंत्रित है। चीनी की बिसात कालांतर में फीकी पड़ गई है, तो भी उसे न्योता गया है।

नियत स्थान पर सभी एकत्रित हैं।

औपचारिक बैठक में विलंब है। काना फूसी चल रही है। क्या मसला हो सकता है। इधर काफी दिनों से प्याज़ ने कोई बड़ी हरकत नहीं की है। बिना उथल पुथल बिना उतार चढ़ाव जीवन सामान्य रूप से चल तो रहा है। लोगों के कोसने का सिलसिला भी थम गया सा लगता है। तो फिर इस बैठक का प्रयोजन!!

किसी कोने से आवाज आई। जानते नहीं हो प्याज़ के फितरत को। इसका तो जन्म ही हुआ है रुलाने के लिए। सो अवश्य कोई खुराफात सूझी होगी इसे। दूसरी ओर से आवाज आई, हमारी तरह ये निरीह तो नहीं है। कटो तो भी कोई प्रतिकार नहीं। प्याज, काटने वाले के आँखों में आँसू लाकर कम से कम अपने दर्द का एहसास तो करा देता है। और हाँ सब्जी और गोश्त का जायका बढ़ाता है तो इतना हक तो बनता है कि आँखों को नम कर दे। तीसरी आवाज आई। खामख्वाह दार्शनिक मत बनो। प्याज़ भाई को तो बड़ा गेम खेलने का चस्का लगा है। इनमें बड़े बड़ों को हिला देने की क्षमता है। क्या पता इनके मन में कुछ ऐसा ही चल रहा हो।

अरे भाई फिर देर तो ना करें, जो मन में है वो सबसे साझा करें। प्याज़ को भी लगा जिसे आना है आ चुका है। चर्चा शुरू करें। कहीं ऐसा न हो, जो आए हैं उनमें से भी कुछ बिदक जाए।

‘२०२४ महाकुंभ आने वाला है’ कहते हुए प्याज़ ने चर्चा शुरू की। २०१९ के महाकुंभ में गंगा तो कुछ उलटी ही बही। उलटी बहती गंगा ने तो हमारा वजूद ही समाप्त कर दिया। ऐसा कभी सुना था आपने कि हमारे networth में स्थिरता या गिरावट आम चर्चा का मुद्दा  बने। १९५२ के महाकुंभ से लेकर २०१४ तक हमारी बढ़ती आर्थिक हैसियत ही मुद्दा बनता  रहा है।  

१९८० आप सब को याद ही होगा, प्याज़ ने कहा। थोड़ी सी फड़फड़ाहट क्या दिखाई मैंने, किसी की चौधराहट ही समाप्त हो गई। इंद्रासन (या कहिए इंदिरासन) फिर सुदृढ़ हो गया। चीनी तो बस जैसे मौके की तलाश में ही थी । तपाक से बोली, अरे  भाई, सत्तर के दशक के शुरुआती दौर में जब इंदिरासन सुदृढ़ था, मैनें बहुत ऐश की। बिना कोटा परमिट के तो मैं अच्छे अच्छों के हाथ नहीं लगती। कुछ अन्य भाइयों के सहयोग से हमने ऐसी हालात कर दी कि पूरे देश में खलबली मच गई। उन दिनों एक दो प्रजातियों का बड़ा सक्रिय साथ मिला। अगर ठीक ठीक याद है तो शायद इन्हें बिचौलिये और जमाखोर कहते थे। जो उधम मचाई हमने कि हर तरफ हाय तौबा। त्रस्त जनता की हाय-तौबा ने जन-आक्रोश का रूप ले लिया। हम फिर भी नहीं मानने वाले थे। देश में, क्या कहते हैं उसे, कोई अलग आपद काल लग गया।

घासलेट जो बिन बुलाए मेहमान की तरह एक कोने में दुबका पड़ा था, बोल बैठा, वो मेरा टाइम भी था। अगर चीनी जिंदगी की मिठास कम करने में लगी थी तो मैंने भी लोगों को घासलेट के आँसू रुलाए। बड़ा मजा आया। डबल मार खाती जनता, और उछलते कूदते हम।

फिर एक दिन रेडियो ने गाना बजाया, ‘बरेली के बाजार में झुमका गिरा’। ये झुमका क्या गिरा, हम सब, चीनी, घासलेट भी गिरने लगे। कोटा परमिट का तो जैसे मातम ही हो गया। बिचौलिये, जमाखोर आदि प्रजातियाँ विलुप्त प्रायः हो गईं। बदलते आबो हवा में कईयों का दम घुटने लगा। खासकर अंगूर की बेटी के गम में तो कई पागल हुए पड़े थे। इन सब ने मिलकर ऐसा चक्कर चलाया कि आधे समय से भी पहले ही महाकुंभ आ गया।

प्याज़ ने फिर सभा की कमान अपने हाथ में ली। कहा, अंगूर की बेटी का लाख-लाख शुक्र। किन्तु उसका क्या जब मैं रसोई में पहुँचने के पहले ही लोगों को रुलाने लगा। पहले गृहिणियों को ही रुलाता था जब वे मुझे काटती थी। अब तो मैंने अपनी नई ताकत पहचान ली थी। मर्द बड़े सूरमा बनते थे। अब वे मुझे देखते ही रो पड़ते थे। आलम ये कि सब मिल कहने लगे चाहे पेट आधा ही भरे, इंदिरासन फिर सुदृढ़ हो।

प्याज़ ने बात आगे बढ़ाई। १९९८ में मैंने फिर अपना करतब दिखाया। इस बार तो मुझे सस्ते में पाने के लिए मदर डेयरी जैसी दुकानों पर थैलियों की कतार बिछ गई। थैलियाँ घंटों पड़ी रहती तब जाकर कहीं उनका नंबर आता था। परिणाम जो हुआ आप सब को तो याद ही होगा। 

दालों का समुदाय अब तक चुप बैठा था, मौके की तलाश में! मौका देखकर तुअर उछल पड़ी। भाई हमें हल्के में नहीं लो। मैंने चना, मसूर और उड़द के साथ कुलांचे क्या भरी हमारे साथ लोग भी उछलने लगे। पीली मटर के जैसे दिन फिर गए। हाँ भाई हाँ, इनका अहसान मैं नहीं भूलने वाली। इनकी ऐसी कृपा हुई, या यूं कहें कि कहर बरपा कि मेरा गुणगान किया जाने लगा। अब तक तो रसोई का मुंह देखने को तरस जाता था। अचानक मेरी पौष्टिकता की दुहाई दी जाने लगी। साथ में ये प्रचार भी कि ये सस्ता, सुलभ और लाभकारी है। लेकिन तुअर आदि की करामात तो लाजबाब साबित हुई। फिर एक शील हरण। दिल्ली के दिल ने पलटी मार दी।   

तुम सब अपने अपने भूत की महिमा मंडन में लगे रहो और कहीं ऐसा न हो कि २०२४ के महाकुंभ का हश्र भी २०१९ वाला ही हो। २०१९ के महाकुंभ में हम चुप रहे। लोगों ने किसानों के मर्म को हमारी दुहाई देते हुए उटकेरा। हम नहीं उछले तो किसान का बड़ा नुकसान हो गया। हमें सींचने सहेजने में किसानों ने जो खर्च किया वह डूब गया। हम टमाटर, प्याज़ लाल पीले हुए ही नहीं, किसान बहुत नाराज हैं। आसन तो हिलेगा ही। पर हुआ बिल्कुल उलट।

टमाटर जो अब तक चुप था, बोला, आने वाले अर्धकुंभ से ही मैनें महाकुंभ का वॉर्म अप शुरू कर दिया था। अभी एक दो माह पहले की ही तो बात है। मुझे देखते ही लोगों के चेहरे सुर्ख हो जाते थे। लेकिन तब तो तुम लोगों ने मेरा साथ ही नहीं दिया। प्याज़ ने थोड़ी सुगबुगाहट दिखाई थी पर वह जल्द ही शांत बैठ गया। मैं अकेला क्या करता। ऊपर से ये जादूगर। पता नहीं कैसे हर मर्ज की दवा होती है इसके पास।

प्याज़ अपना आत्मबल बटोरते हुए सामने आया। अभी भी अर्धकुंभ में थोड़ा समय बचा है। महाकुंभ के तो अभी छ: माह से ऊपर हैं। भरोसा रखो। अगर हम साथ मिलकर चले और कुछ शारदीय सहारा मिल गया तो इस आने वाले अर्धकुम्भ और महाकुम्भ में खूब खेला होबे!  तरह तरह के गणना मनना भी हो ही रहे हैं। लालू टमाटर और प्याजनीति  हरकत में हैं ही। बाकी सब के कमर कसने की जरूरत है। 

एक कोने से लुढ़कता पुढ़कता काशीफल बोला, ‘”देखता हूँ करोड़ों माँओं के आँसू मुक्त आँखों से छलकती ममता और ८० करोड़ पेट को मिले अन्न के आशीष के सामने तुम सब की कमर कब तक टाइट रहती है। ज्वार-बाजरा का महिमा मंडन भी अब श्री अन्न के रूप में दुनिया कर रही है। ये चुप बैठेंगे क्या। और हाँ भाई ये बताओ, खेतों से चल कर अब जिस सहजता और सम्मान के साथ गोदामों और बाजारों तक पहुंचते हो ये पहले हुआ है क्या? फिर भी करतब दिखाने के ताक में ही लगे रहते हो। अब तो संभल जाओ”।

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है। इन्होंने पहले भी इस वेब पत्रिका के लिए लेख दिए हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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11 COMMENTS

  1. Bazar, bhrastachar aur rajniti ka bahut hi saral aur sunder udaharan hai ye vyang laghu katha.iske madhyam se sabhi vishayo pur ek satik kataksh karne ka prayas apne Kiya hai ,jo kafi hud tuk sahi hai.

  2. वाह! बेहतरीन. यह व्यंग्य से ज्यादा इतिहास है. कहन की खूबसूरती के क्या कहने…

  3. कहानियों के सिलसिले के बाद व्यंग्य का ये करारा तड़का। शानदार, जानदार और जबरदस्त… वाह मजा आ गया पढ़कर। समसामयिक व्यंग्यकारों के मुकाबले कहीं सुंदर और सरल लेखन। इतिहास से लेकर वर्तमान तक के घटनाक्रम को इतनी सहजता से पिरोया गया है कि सबकुछ फिल्म की तरह आंखों के सामने आ गया। जिन लोगों ने वो दौर नहीं देखा था वो भी कड़ियों को जोड़ पा रहे हैं।

  4. बहुत ही बढ़िया राजनीतिक स्टायर है
    मैंने इससे अच्छी लेखनी राजनीतिक स्टायर पर नहीं पढ़ी है

  5. ज्वार बाजरा सदा सौम्य और सरल बने रहें यही मनोकामना (मनूकामना) है।
    ये तड़का भिन्न था,तेज़ धार👌

  6. खेला होबे। बहुत ही सुन्दर समसामयिक ब्यंगात्मक राजनीतिक वार्तालाप।👍👌

  7. लेखक द्वारा हास्य और व्यंग्य के चतुराईपूर्ण उपयोग करते हुए राजनीतिक परिदृश्य पर व्यंगात्मक कटाक्ष करती हुई कहानी सराहनीय है। इस तरह की व्यंग्यात्मक कहानियाँ आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करती हैं और हमारी राजनीतिक व्यवस्था का चतुरता से वर्णन करती हैं। लेखक का प्रयास अत्यंत ही प्रशंसा योग्य है।

  8. बहुत खूब लिखा है आपने। काफ़ी समय बाद ऐसा व्यंग लेख पढ़ने को मिला है। १०वीं क्लास पढ़ी हुई हरिशंकर परसाई जी के एक व्यंग की याद ताज़ा हो गई।

  9. पाठक मित्रों की राय लेखक के लिए बहुत मायने रखती है। और राय प्रशंसा के रूप में आये तो भविष्य के लिये प्रेरणा बन जाती है। लेखन के इस जॉनर को भी आपने सराहा है जो आगे भी मुझे अलग अलग शैलियों में लेखन के प्रेरित करती रहेंगीं। सभी का आभार

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