दलित वोट बैंक पर गड़ा रखी है सबने नज़र

राजकेश्वर सिंह*

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के चलते देश में बने चुनावी मौसम में वैसे तो मुद्दों की भरमार है, लेकिन उसमें जातियों का सवाल बहुत अहम होकर उभरा है। तात्कालिक तौर पर तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम में ही राज्य विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं, लेकिन सभी दलों की नजरें अभी से अगले साल लोकसभा के चुनावों पर टिकी हुई हैं। संसद के पिछले सत्र में महिला आरक्षण की कानूनी व्यवस्था होने और फिर उसके बाद बिहार में जातीय सर्वे के नतीजों के उजागर होने से देश में पिछड़ों की गोलबंदी व जातीय जनगणना को लेकर उठी तेज मांग ने कई पार्टियों के चुनावी समीकरण को बिगाड़ कर रख दिया है। लिहाज़ा लगभग सभी दलों ने दलितों के वोट बैंक पर न सिर्फ अपनी नजरें गड़ा दी हैं, बल्कि उनको रिझाने की हर कवायद शुरू कर दी है।

देश में यह बात आम है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। वजह यह कि आबादी के लिहाज़ से बड़ा होने के चलते यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं। राज्य में दलितों की आबादी लगभग 22 प्रतिशत है, लिहाज़ा हर चुनावी हार-जीत में दलित वोटर बड़ी भूमिका निभाते हैं। प्रदेश में लगभग तीन दशक तक दलितों के वोट बैंक पर कांशीराम और फिर उनके बाद मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का करीब-करीब एकाधिकार रहा है। देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछड़ों के उभार से उत्तर भारत व हिंदीभाषी राज्यों में राजनीति ने जो करवट बदली, उसके चलते राजनीतिक दलों को गठबंधन की सरकारों का रास्ता अपनाने को मजबूर होना पड़ा। साथ ही आज़ादी के बाद से अपर कास्ट (उच्च वर्ग) की अगुवाई में चली आ रही राजनीति को बड़ा झटका लगा।

इसका असर यह भी हुआ कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश समेत कई दूसरे राज्यों में सरकारों की अगुवाई प्राय: पिछड़ों के हाथों में ही चली गई। उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं रहा। पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसद आरक्षण का कानूनी प्रावधान होने के बाद सामाजिक बदलाव के रूप में उसका जो असर हुआ उससे प्रदेश में लगभग 18 साल तक गठबंधन की सरकारों का ही दौर चला और फिर 2007 में अपने ही बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर उस पर विराम लगाया मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने। हालांकि उसके बाद 2012 से वह प्रदेश की सत्ता से बाहर हैं, लेकिन कुछ बरस पहले तक भी उनका अपने दलित वोट बैंक पर काफी हद तक कब्जा बरकरार रहा था।

इस बीच बदला यह कि 2017 और फिर उसके बाद 2022 में मायावती की पार्टी प्रदेश में एकदम हाशिए पर चली गई। केंद्र में 2019 में भाजपा की अगुवाई में फिर से राजग की सरकार बनने के बाद तो बसपा को जैसे सांप सूंघ गया हो और वह निष्क्रिय हो गई। पार्टी प्रमुख के तौर पर मायावती बहुत कभी-कभार ही कोई राजनीतिक ब्यान देती हैं और वह भी आम तौर पर सोशल मीडिया पर यानि कुल मिलाकर यह कि वह पहले जैसी कतई सक्रिय नहीं रह गई हैं। लिहाज़ा भाजपा, सपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने बसपा के दलित वोट बैंक पर अपनी नज़रें गड़ा दी हैं। मौजूदा समय में इन दलों इस दिशा में कुछ ज्यादा ही तेजी दिखाना शुरू कर दिया है। उसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि बीते कुछ महीनों में पिछड़ों को लेकर जो गोलबंदी हुई है और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी उस समुदाय की जनगणना को लेकर जिस तरह मुखर हुई है, उससे सभी दलों को पिछड़ों के वोटों में बड़ा बंटवारा होने का डर सताने लगा है। महत्वपूर्ण है कि यह डर उन दलों को भी परेशान कर रहा है, जो अमूमन पिछड़ों के नाम पर और उनके बहाने ही अपनी राजनीति करते रहे हैं। ऐसे में उस घाटे की भरपाई के लिए कई दल दलित वोट बैंक को बड़ी हसरत भरी नज़र से देख रहे हैं।

भाजपा की उसके जन्म के समय से अमूमन सवर्णों की पार्टी की पहचान रही है। उसकी वह छवि अब भी काफी हद तक कायम है, लेकिन बदली परिस्थितियों में उसने राजनीति की नब्ज को समझा है और पिछड़ों, अति पिछड़ों के साथ ही उसने दलितों को भी अपने करीब लाने की हर कवायद की है। उसे उसमें सफलता भी मिली। 2019 का लोकसभा चुनाव उसके लिए 2014 से भी ज्यादा मुफीद रहा। यही वजह रही कि केंद्र में दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने 2021 में जब अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो उसमें ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) समाज के 28 और अनुसूचित समाज के 12 मंत्रियों को न सिर्फ जगह दी, बल्कि उस समुदाय को संदेश देने के लिए उसका भरपूर प्रचार भी किया। तब उसमें उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से सात मंत्री शामिल किए गए थे, उसमें सिर्फ एक ब्राह्मण समुदाय से था। उसके बाद 2022 में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भाजपा जब फिर सत्ता में लौटी तो उसमें में ओबीसी वर्ग के 21 तो अनुसूचित जाति के आठ मंत्रियों को जगह दी गई। इस तरह भाजपा ने इन दोनों समुदायों को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी।

इस सबके बीच अब भाजपा ने नए सिरे से दलितों पर काम करना शुरू किया है। यह इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि राजनीतिक क्षेत्रों में यह आशंका भी जताई जा रही है कि पिछड़ों की जातीय जनगणना की मांग को लेकर उठा शोर कहीं 2024 में भाजपा का बड़ा नुकसान न करा दे। ऐसे संकेत इसलिए भी आ रहे हैं क्योंकि जातीय जनगणना की बात विपक्षी दलों के अलावा खुद राजग गठबंधन के भीतर से भी उठने लगी है और भाजपा ने उस पर अब तक खुलकर अपनी सहमति नहीं जताई है।

इस बीच, भाजपा के साथ ही जहां दूसरे कई विपक्षी दल पांच राज्यों के चुनाव में उलझे हैं, वहीं भाजपा ने उत्तर प्रदेश में आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। उसमें भी दलित वोट बैंक उसके एजेंडे में सबसे ऊपर है। उसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमूमन जाति-पांति का विरोध करने वाली पार्टी अब प्रदेश भर में दलित गौरव संवाद कर रही है। इस बाबत पार्टी के सभी जिलाध्यक्षों, विधायकों, पूर्व विधायकों के साथ मशविरा किया जा रहा है। दलित गौरव सम्मान के तहत सभी लोकसभा क्षेत्रों में दलित संवाद पत्र भरवाया जा रहा है। दलित अधिकार मांग पत्र भी तैयार किया गया है, जिस पर डा. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम, ऊदा देवी, संत गाडगे और जगजीवन राम की फोटो लगाई गई है। समुदाय के लोगों के बीच कोर ग्रुप का गठन भी किया जाना है। साथ ही विधानसभा क्षेत्रवार दलितों की आबादी, वोटरों की स्थिति का डाटा भी तैयार किया जा रहा है। इसी क्रम में प्रदेश में दलित सम्मेलन भी शुरू हो चुका है। भाजपा के लिए दलितों को जोड़ने का मुद्दा कितना अहम है, समझा जा सकता है कि खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अनुसूचित जाति सम्मेलनों को संबोधित कर रहे हैं। दलितों की अब तक हुई उपेक्षा के लिए वे पूर्व की सरकारों व दूसरे राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बता रहे हैं। उनके मुताबिक उनकी सरकार आगामी दिसंबर तक अनुसूचित समुदाय के सवा करोड़ लोगों को स्वामित्व योजना के तहत जमीन का पट्टा उपलब्ध करने की तैयारी में हैं। साथ ही इस वर्ग की छात्राओं के लिए छात्रावास तो बनेगा ही, कोचिंग की भी व्यवस्था की जाएगी। दो नवंबर को अवध क्षेत्र व तीन नवंबर को गोरखपुर में इस तरह के सम्मेलन होने हैं।

उधर, उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद समाजवादी पार्टी भी खुद को फिर से खड़ा करने के कई असफल प्रयास कर चुकी है। इस क्रम में दो अलग-अलग चुनावों में वह कांग्रेस व बसपा से बारी-बारी चुनावी समझौता भी करके निराश ही हुई है। लिहाज़ा यूपी के 2022 के विधानसभा चुनाव में उसने राष्ट्रीय लोकदल के अलावा किसी का साथ नहीं लिया। हालांकि सरकार तो वह तब भी नहीं बना पाई, लेकिन उसके प्रदर्शन में सुधार जरूर हुआ। उस चुनाव से पहले उसने बसपा के कई पिछड़े व दलित नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करा लिया था। उसकी नजर अब भी बसपा के दलित वोट बैंक पर है। उसका नया नारा पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) है, जिसको आगे रखकर वह अपनी सारी तैयारी कर रही है। इससे पहले वे दलित नेता व भीम आर्मी प्रमुख चन्द्रशेखर व रालोद प्रमुख जयंत चौधरी के साथ इसी साल अंबेडकर की जयंती पर मध्य प्रदेश में उनके जन्म स्थान महू भी जाकर दलितों को राजनीतिक संदेश देने की कोशिश कर चुके हैं।

इसके अलावा, कांग्रेस भी दलितों को अपनी ओर लाने की कोशिशें करती रही है। वह दलित समुदाय से आने वाले पूर्व बसपा नेता बृजलाल खाबरी को एक बार प्रदेश अध्यक्ष बना चुकी है। खाबरी दलित समुदाय की लड़ाई में कांशीराम के करीबी रहे हैं। अब खाबरी की जगह अजय राय आ चुके हैं। राय पार्टी को प्रदेश में सक्रिय करने में जुट गए हैं। उनके कुछ बयानों को लेकर समाजवादी पार्टी ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है और लोकसभा चुनाव से पहले सपा और कांग्रेस में खटास पैदा हो गई है। जाहिर है पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की जानकारी के बिना इस तरह कुछ होना संभव नहीं है। संकेत हैं कि कांग्रेस अब अरसे से अपने छिटके वोट बैंक को नए सिरे सहेजने की कोशिशें कर रही है, जिसमें दलित बहुत महत्वपूर्ण हैं।

यह सारा घटनाक्रम 2024 के लोकसभा चुनावों का परिदृश्य अत्यंत रोचक बना रहा हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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