इस वैबसाइट पर कविता के पाठक अजंता देव की कविताएं पहले भी पढ़ चुके हैं। वह अपनी कविताओं में आजकल विविध प्रयोग कर रही हैं। कभी हम उनसे इन प्रयोगों के बारे में एक लेख अलग से लिखने का भी अनुरोध करेंगे या फिर इस विषय पर उनसे स्काईप या ज़ूम पर चर्चा भी हो सकती है। वह सब बाद के लिए, फिलहाल तो आप ये कविताएं देखिए जिन में बहुत वज़नदार बिम्बों को कितनी कुशलता से प्रयोग किया गया है। ये कविताएं आपको थोड़ा असहज कर सकती हैं लेकिन साथ ही थोड़ी ‘एडिक्टिव’ भी हैं – इस संपादक की तरह आप भी शायद इन्हें एक बार पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ना चाहें, और उसके बाद एक बार फिर! एक मायने में ये कविताएं थोड़ी ‘enigmatic’ भी हैं, थोड़ी गुत्थीदार (रहस्यपूर्ण सही शब्द नहीं लग रहा था, इसलिए….) !
अलेप्पो में पेड़
मनुष्य चले गए छोड़ कर
पेड़ों ने जाने से मना कर दिया
अब भी आबाद है शहर रोज़ नई पत्तियों के साथ
पुराने आगे खड़े हैं
तोपखाने की तरह ।
(अलेप्पो की तस्वीर देख कर )
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युद्ध
तन कर खड़ी होती है
हिंसा के विरुद्ध अहिंसा
नफ़रत के विरुद्ध प्रेम
शान्ति भी एक युद्ध है
युद्ध के ख़िलाफ़।
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पंचतत्व
नश्तर के नीचे
साहसी होते हैं मृतक
कुछ नहीं बताता उनका शरीर
जो वाक़ई काम का होता
नहीं बताता उनका दिमाग़ कि क्या विचार चलता रहा आख़िरी समय
दिल बंद होने से ठीक पहले किसके लिए धड़का
ऑक्सीजन कम होता गया तो कौनसी मुलाक़ात तक दौड़ गई थी स्मृति
नथुनों में गन्ध
त्वचा में स्पर्श
एड़ियों के नीचे धूल
सब कुछ छिपा लेता है मृतक
जीवित के हाथ आता है एक नष्ट हो रहा शरीर
और वह भी लेने को तत्पर खड़े हैं पाँच तत्व!
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स्वर- अस्वर
कोमल गंधार की तरह उतरा हुआ मन
चीखता नहीं, भन भन कर रहा है मंद्र सप्तक में
गुनकली रामकली सारी कलियां नोची जा चुकी हैं
किसी वाद्य में संगीत नहीं बचा
तबले में ताल ,पखावज में लय नहीं बची
बेसुरा होने का भय नहीं बचा
नहीं बची गायक में कल्पना
बची नहीं पृथ्वी में रहने की इच्छा
काम क्रोध मद मत्सर नहीं रहा
रह गई एक असंभव कहानी सी दुनिया
फूहड़ हंसने वालों के लिए घटिया पटकथा
जिसे कभी भी हतकथा में बदल दिया जा रहा है ।
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निशानदेही
बारिश आगे आ जाती है
धुंधला करती हुई पीछे का दृश्य
नरम रेखाओं में दिखता है क्रूर चेहरा
मिट जाते हैं कुछ भयावह निशान
इस पृथ्वी को ज़रूरत है मूसलाधार की
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उपचार
लगातार मुझे गोली मारी गई!
डॉक्टर की पर्ची में लिखा था दस, जो मारी जानी थी दस साल में।
पहली गोली मारते ही असर हुआ तुरन्त और नसों में रक्त नीला हो गया।
दूसरे साल गोली मारते ही आंखों में उतर आया रक्त
और दृष्टिदोष दूर होने पर आँखे ख़ूबसूरत देखने लगीं, दिखती तो पहले से थीं।
तीसरी गोली लगते ही पूरा शरीर लचीला हो गया।
चौथी और पाँचवी गोली लगते लगते त्वचा पर से रोएँ तक झड़ गए –
प्रतिक्रिया से दाने निकलने बन्द हो गए!
छठी सातवीं और आठवीं गोली के बाद दिमाग़ के तन्तु नम्र हो गए,
कल्पना में डरना रुक गया, चैन मिलते ही तनाव जाता रहा।
नवीं गोली लगने तक मारने वाला मित्र और मैं हंसने लगे थे।
कल मेरी ख़ुराक ख़त्म होगी,
दसवीं गोली के साथ ही शफ़ा मिल जाएगी
चलो बीमारी से छुटकारा मिला,
एक सदी तक!
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बहुत सुंदर
मैंने रुक- रुक कर, दो-तीन अंतरालों में ये कविताएं पढ़ीं। शब्दों के इतने आयाम, अर्थ -ध्वनियां हो सकती हैं, ये सोच कर चमत्कृत हूँ। हमारे यहां साहित्य केनौ रसों की परंपरा है। यह अंततः मुझे शांत का , समेट लेने वाला विस्तार है।
मुझे मालूम है, अटपटी टिप्पणी है। पर मैं पकड़ नहीं पा रहा हूँ।
भाषा और विचार के स्तर पर गूढ़ कविताएं। एइसी कविताएं अब दुर्लभ हो रही हैं
बेजोड़ रचनाएं ,गूढ़ अर्थ छिपा है इनमें
दादू सब हैरान हैं, गूँगे का गुड़ खाय।
झकझोर देने और विचलित करने वाली रचनाएँ। साधुवाद।
शेयर की हैं कुछ अपने मित्रों के साथ।
शांति भी एक युद्ध है, युद्ध के साथ। वाकई।