श्रद्धांजलि भाई जगबीर सिंह: खोना एक ‘ दाएं हाथ ‘ का

अजीत सिंह*

कहावत है कि भाई आपके दाएं हाथ की तरह होता है। दुख सुख का साथी, मुसीबत में आपके साथ जूझने को तैयार, आपका विश्वसनीय हथियार!

आज मैंने अपना वो ’दायां हाथ’ खो दिया।

मेरे छोटे भाई चौधरी जगबीर सिंह आज नहीं रहे। कैंसर ने उन्हें लील लिया। दो साल तक वे इस नामुराद लाइलाज बीमारी से लड़े और जमकर लड़े – पूरे हौसले के साथ लड़े बल्कि यूँ कहिए उनके परिवार ने भी ये जंग उनके साथ लड़ी लेकिन आखिरकार कैंसर ने उन्हें हरा ही दिया। यह बताना जरूरी है कि इससे पहले वे कभी बीमार भी नहीं हुए थे। बुढ़ापे में भी गबरू जवान जैसे थे वो! लेकिन कैंसर ने उन्हें पानीपत, करनाल, अंबाला और दिल्ली के खूब चक्कर कटवाए। पैसा भी खूब बहाया। चार बार सर्जरी, अनेक बार कीमो का झंझट झेला। और तो और झाड़े-झपटे भी लगवाए। पर कुछ भी उन्हें बचा न सका।  

गांव के शमशान घाट पर अंतिम संस्कार कर लौटा हूं तो यादों का सैलाब सा उमड़ कर आंखों से बार-बार निकल रहा है।

भाई जगबीर 75 वर्ष के थे, मुझसे दो वर्ष छोटे! डील डौल ऐसा कि शुरू से ही सभी उन्हें मेरा बड़ा भाई समझते थे। मैं तो पहले पढ़ाई और फिर नौकरी के चक्कर में 1962 में ही गांव से निकल गया था। 1975 में पिताजी के स्वर्गवास के बाद परिवार और खेती की ज़िम्मेदारी भाई जगबीर ने उठा ली थी। इसे उन्होंने बखूबी निभाया और घर का काम आगे बढ़ाया।

घर की खेती में सीमित आमदनी देखते हुए उन्होंने पहले तो ठेके पर ज़मीनें लेकर खेती का ही काम बढ़ाया लेकिन जब ऐसा लगा कि इस काम में मेहनत और लागत के हिसाब से आमदनी उस अनुपात में नहीं हो रही तो उन्होंने उद्यमी वाला रास्ता अपनाया। भाई जगबीर ने फिर दो कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें खरीदी जिन्हें लेकर वह मार्च-अप्रैल के महीनों में गुजरात चले जाते थे क्योंकि वहां फसलें जल्दी तैयार होती हैं। दो महीने उनकी हार्वेस्टर मशीनें वहीं किराये पर चलतीं। फिर वहां से वह राजस्थान और फिर अंत में हरियाणा आते। तब तक अपनी फसल तैयार हो जाती और वे गांव लौट आते, अच्छी खासी किराए की कमाई के साथ!

भाई जगबीर ज़्यादा पढ़ाई नहीं कर सके थे। पढ़ाई में उनका मन ही नहीं लगता था लेकिन खेती में खूब लगता था। लंबे कद और भारी डील डौल के साथ वे खूब रौबीले इंसान थे। धोती-कुर्ता पहनते थे। वे गांव के चौधरी थे। गाँव में खूब लोकप्रिय भी थे और एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे कि उनके कहे को कोई आसानी से टालता नहीं था। लेकिन फिर भी भाई जगबीर खुद न कभी पंच बने और न सरपंच पर उन्होंने ‘किंग-मेकर’ की भूमिका खूब निभाई! तीन बार तो छोटे भाई सुखपाल को सरपंच बनवाया। जब सीट महिला के लिए आरक्षित हुई तो हमारी माता जी को सरपंच बनवा दिया। भाई की पत्नी को ज़िला परिषद का मेंबर बनवा दिया।

मेरी आकाशवाणी शिमला में पोस्टिंग दौरान वह एक बार शिमला में मुझसे मिलने आए। हम मॉल रोड पर सैर कर रहे थे कि  एक के बाद एक फ़ौजी उनकी तरफ आए और तपाक से राम राम भाई कह कर उनका हाल चाल पूछने लगे। गांव में फसल-बाड़ी का पूछा तो कभी बारिश का। वे सभी हरियाणा निवासी फौजी थे। धोती-कुर्ता से उन्होंने भाई जगबीर को पहचान लिया था कि वे भी हरियाणा से हैं।

उसके बाद तो वह जितने दिन शिमला में रहे, रोज़ाना फौजियों से मिलने जाते थे। वहां उन्हें हुक्का भी मिल जाता था और खूब रौनक भी। वापसी से एक दिन पहले फौजियों द्वारा उनकी विदाई पार्टी में खूब खाना पीना हुआ।

गांव में खेती की घटती जोत और युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी और नशे की लत के साथ कुछ युवकों में तो आपराधिक प्रवृतियों के बढ़ने से वह चिंतित भी रहते थे। जब उन्होंने देखा कि रिश्तेदारियों से कुछ युवा विदेशों में अच्छा रोज़गार कमा रहे हैं, तो उन्होंने अपने परिवार और गांव के युवाओं को भी इसके लिए प्रेरित किया। अपने पोते को ऑस्ट्रेलिया भेजा। आज हमारे ही गांव से करीब 20 युवा विदेशों में काम कर रहे हैं।

मुझे ऐसा लग रहा है कि उन्हें अब लगने लगा था कि बस उनका समय आ गया है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जब दस दिन पहले मैं भाई जगबीर से मिलने गांव गया था तो मैने पहली बार उनकी आखों में आंसू देखे। इससे पहले मैंने उन्हें कभी इस तरह भावुक अंदाज़ में नहीं देखा था बल्कि वह तो हम लोगों को चिंतित देखकर मज़ाक करने लगते थे। लेकिन इस बार कुछ बाद फ़र्क था। इस बार तो वह मुझ से लिपट कर रोने ही लगे। कहने लगे, “भाई क्या पता फिर मिलना हो या न हो”। मैं थोड़ा रूआँसा हो आया हालांकि मैंने उन्हें हौसला देने की कोशिश तो की पर ज़्यादा कुछ कह नया सका। मैंने कहा, “देख भाई, मैं बड़ा हूं, मेरा नंबर काटने की बात मत करना। फिर पोते प्रिंस की बात भी याद कर। उसने ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले कहा था, दादा जी, यहीं बैठे मिलना”।

भाई जगबीर आंखों में आंसू भरे सिर हिलाते रहे। कहा, प्रिंस की शादी हो जाती तो अच्छा होता।

भाई जगबीर माता वैष्णोदेवी के भक्त थे। जम्मू में मेरे करीबन 20 साल आवास के दौरान वे कई बार दर्शन को आए थे। एक बार तो अपने एक दोस्त के साथ मोटर साइकिल पर करीबन 1200 किलोमीटर का सफर कर उन्होंने यात्रा पूरी की। ऐसे दमदार थे मेरे जगबीर!

भाई जगबीर जिंदादिल इंसान थे। वे शान से जीए और अंतिम समय भी उनके चेहरे पर रौनक थी। वे कई बार कैंसर का भी मज़ाक करते थे। कैंसर का पहला फोड़ा उनकी पेशाब की नली पर था तो डॉक्टरों ने नली को ही काट दिया था। मैंने हाल पूछा तो कहने लगे, आप मुझे अब भीष्म पितामह भी कह सकते हैं।

भाई जगबीर के पास हमेशा परिवार के और गांव के लोगों का जमावड़ा रहता था। उनसे बातचीत में, हंसी मज़ाक में उन्हें कुछ देर बीमारी का दर्द भूल जाता था। दोपहर बाद चार बजे खेतों में जरूर जाते थे। उन्हें हरे भरे खेत और हल्की ठंडी हवा से सुकून मिलता था।

अलविदा भाई जगबीर। आप परम आनंद में चले गए हैं, हम सब को छोड़ कर। आप जहां भी हों, शांति से हों। नमन भाई चौधरी जगबीर सिंह की स्मृति को!

*****

लेखक अजीत सिंह वर्तमान में हिसार में रहते हैं ।  वह 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए ।  वह अब एक स्वतंत्र पत्रकार हैं ।

Mob. 9466647037

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here