फिर शुरू महिलाओं व पिछड़ों के लिए  फिक्रमंद दिखने की कवायद  

राजकेश्वर सिंह*

“सरहदों पर तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या”, मरहूम शायर राहत इंदौरी का यह शेर देश की मौजूदा सियासत पर काफी हद तक सटीक बैठती है। सटीक इसलिए, क्योंकि सभी सियासी जमातें इस साल देश के पांच राज्यों और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही इन दिनों  अपना हर कदम उठा रहीं हैं और इस मामले में केंद्र में सत्तारुढ़ राजग, खासतौर से भाजपा सबसे आगे है। तभी तो चुनाव से पहले उसने देश में विमर्श का सारा एजेंडा ही बदलकर रख दिया है।

देश में बीते 48 सालों में सबसे ज्यादा बढ़ी बेरोजगारी दर, महंगाई और दूसरे तमाम नकारारात्मक संकेतक (इंडिकेटर) बहस के केंद्र से एक तरह से बाहर हो गए हैं। सारी बहस संसद व राज्य विधानसाओं में लगभग पांच साल से भी अधिक समय बाद मिलने वाले महिला आरक्षण, पिछड़ों को साधने वाली राजनीति, नए संसद भवन, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण व आगामी जनवरी में उसके लोकार्पण के इर्द-गिर्द सिमट गई लगती है। इतना ही नहीं, लगभग तीन महीने तक बुरी तरह हिंसा की चपेट रहा देश का सीमावर्ती राज्य मणिपुर और वहां की महिलाओं के साथ हुई जुल्म-ज्यादती तक के मसले पर देश की संसद में आसानी से चर्चा तक नहीं हो सकी और बाद में सरकार के खिलाफ लाये गए अविश्वास प्रस्ताव के बहाने लोकसभा में चर्चा हुई भी तो ज्यादातर सदस्यों ने मूल मुद्दे से हटकर दूसरे मसलों पर ज्यादा बातें की। यह स्थिति बताती है कि जरूरी मुद्दों पर देश के सियासी दल, खासकर देश की सरकार कितनी गंभीर है।

खैर, देश की इन स्थितियों के बीच ही सियासी दलों का फोकस अब महिलाओं व पिछड़ों को अपनी ओर आकर्षित करने पर हो गया है। लोकसभा के 2014 व 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिले बड़े बहुमत में महिला मतदाताओं ने बड़ी भूमिका निभाई थी। आकड़ों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां 67 फीसदी  पुरुषों ने मतदान में हिस्सा लिया था, वहीं 65.54 फीसदी  महिलाओं ने भागीदारी की थी, जबकि 2019 में यह स्थिति बदल गई। 2019 के लोकसभा में जहां 67.1 फीसदी पुरुषों ने मतदान में हिस्सा लिया तो महिला मतदाताओं की संख्या उनसे बढ़कर 67.18 फीसदी  हो गई। इसी तरह 2014 के बाद हुए राज्य विधानसभाओं के चुनावों पर नज़र डालें तो उनमें भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी ही है। इस मामले में जम्मू-कश्मीर और झारखंड में 2014, बिहार में 2015, असम और केरल में 2016 के चुनाव नतीजों में पुरुषों से ज्यादा महिला मतदाताओं ने भागीदारी की थी। महिला मतदाताओं के वोटिंग प्रतिशत में इसी तरह की बढ़ोत्तरी उत्तर प्रदेश के भी बीते दो विधानसभाओं में भी देखी गई थी। इस राज्य में 2017 के विधानसभा चुनाव में पुरुषों ने 59.15 फीसदी  तो महिलाओं ने 63.31 फीसदी  भागीदारी की थी, जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में जहां 62.22 फीसदी  महिलाओं ने मतदान में हिस्सा लिया, वहीं सिर्फ 59.34 पुरुषों ने मतदान में शिरकत की थी।

नतीजों की रोशनी में देखें तो मतदान में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को ही मिला है। यह स्थिति बताती है कि बीते कुछ वर्षों में चुनाव में मतदान को लेकर महिलाओं की भागीदारी में तेज इजाफा हुआ है। इस स्थिति को महिलाओं में बढ़ी जागरूकता और खुद के फैसले को लेकर उनमें बढ़े आत्मविश्वास से जोड़कर देखा जा सकता है। शायद यही वजह है कि अब  सभी राजनीतिक दल इस पर एकमत हैं कि संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलना ही चाहिए। इस बाबत केंद्र सरकार की ओर से लाये गए विधेयक पर संसद के विशेष सत्र में मुहर भी लग चुकी है। हालांकि, उस विधेयक का समर्थन सभी दलों ने किया है, लेकिन कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों की ओर से उस आरक्षण में भी पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अलग से कोटा तय करने की बात को सरकार ने दरकिनार कर दिया है। फिर भी चुनावी राजनीति के लिहाज़ से सत्ता और विपक्ष उसे अपने-अपने तरीके से भुनाने में कोई कोताही करने वाले नहीं हैं। अब कांग्रेस और ‘इंडिया’ गठबंधन वाले दूसरे दल इसे चुनावी मुद्दा बनाने में जुट गए हैं कि सरकार ने इस विधेयक के ज़रिए जान-बूझ कर पिछड़े वर्ग की महिलाओं के साथ हकतल्फी की है। दूसरी तरफ सरकार इसे इस आधार पर भुनाने की फिराक में है कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण का जो काम अब तक कोई सरकार नहीं कर सकी, उसने वह कर दिखाया है।

महिला आरक्षण के अलावा राजनीतिक दलों के बीच दूसरा अहम मामला जो मुद्दा बन रहा है, वह है जातीय जनगणना का। पिछड़े वर्ग के नेताओं ने बीते कुछ वर्षों में इस पर आस लगाई है। पिछड़े वर्ग के बड़े नेताओं का मानना है कि देश में पिछड़ों की आबादी 50 फीसदी  से ज्यादा है और जातीय जनगणना से यह बिल्कुल साफ हो पाएगा कि देश में पिछड़े वर्ग की आबादी कितनी है? एक बार यह स्थिति साफ हो गई तो भविष्य में उस लिहाज़ से नीतियां और कार्यक्रम बनाने में आसानी होगी। इस मामले में वैसे तब तक ज़्यादातर पिछड़े वर्ग के नेता ही मुखर रहे हैं, लेकिन अब कांग्रेस पार्टी भी इस पर खुलकर सामने आ गई है। उसकी भी पुरजोर मांग है कि जातीय जनगणना कराई जानी चाहिए। उधर, सरकार इस मामले का विरोध तो नहीं कर रही है, लेकिन विपक्ष की इस मांग के साथ खुलकर आ भी नहीं रही है और कुछ करने के बजाय बात को इधर-उधर घुमाने के रास्ते पर है। माना जा रहा है कि सरकार इस पंडोरा बॉक्स को खोलने से डर रही है। उसे लग रहा है कि यदि एक बार पिछड़ों की वास्तविक संख्या देश के सामने आ गई तो वे तो उस आधार पर अपने हक की बात करेंगे ही, दूसरे वर्ग भी इसी तरह की मांग के साथ सामने आ जाएंगे और फिर तो यह सिलसिला ही अंतहीन हो जाएगा।

गौर करने वाली बात है कि 1990 के दशक में सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के आरक्षण को लेकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट जब लागू हुई थी, तब उसके विरोध में पूरे देश में बवाल मच गया था। जगह-जगह न सिर्फ भारी विरोध प्रदर्शन हुए बल्कि सवर्ण वर्ग के कई छात्रों ने उसके विरोध में ख़ुदकुशी भी कर ली थी। बाद में लंबी कानूनी लड़ाई के बाद वह आरक्षण लागू हो पाया था। उस समय देश की सियासत में पिछड़ों की हिस्सेदारी को लेकर जो लड़ाई शुरू हुई, बीच में कुछ वर्षों को छोड़ दें तो वह अभी तक जारी है। या यूं कहें कि राजनीति में पिछड़ों की हिस्सेदारी बढ़ाने का जिन्न एक बार फिर बाहर आ गया है, जातीय जनगणना की मांग को उस धार को और तेज करने की कवायद के रूप में देखा जा सकता है।

राजनीति की मौजूदा परिस्थितियों के बीच इन आंकड़ों पर नजर डालें तो वह स्थिति साफ होती है कि सभी दल पिछड़ों के वोट पर नजर क्यों गड़ाए हुए हैं। दरअसल देश में 264 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां ओबीसी आबादी 42 फीसदी  से लेकर 71 फीसदी  के बीच है। ऐसे में चुनावी नफा-नुकसान के लिहाज़ से कौन सा दल उन्हें अपने पाले में करने में कोताही करेगा! बीते वर्षों में भाजपा को इस वर्ग से बहुत फायदा मिला है। लिहाजा उत्तर भारत के राज्यों में किसी भी प्रकार से भाजपा इस वोट बैंक पर अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने देना चाहती है। उसी लिहाज़ से मोदी ने 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद सरकार बनने के कुछ समय बाद जब अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो उसमें दलितों व पिछड़ों को खास तवज्जो दी गई। मोदी सरकार में इस समय 27 मंत्री ऐसे हैं जो पिछड़े वर्ग से आते हैं। प्रधानमंत्री खुद पिछड़े समाज से आते हैं और भाजपा पिछड़ों को साथ लेकर चलने में इन बातों का खूब प्रचार भी करती है। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 22 फीसदी  वोट मिला था जो 2014 में बढ़कर 34 फीसदी  हो गया था। फिर 2019 में यह और भी बढ़कर 44 फीसदी  तक हो गया। समझा जा सकता है कि पिछड़ों का जो वोट पहले  दूसरे दलों को मिलता था, पिछले दो लोकसभा चुनावों में वह उनसे छिटककर भाजपा के पास चला गया। यही वजह है कि सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले दलों में बीते वर्षों में अपने इस वोट बैंक को लेकर अजीब सी बेचैनी देखी गई, लेकिन इस बीच राजग, खासतौर से केंद्र की सत्ता से भाजपा को बाहर रखने के लिए बने 28 विपक्षी दलों के ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस) गठबंधन के नेताओं ने जातीय जनगणना की मांग के सहारे इस वोट बैंक पर फिर से अपनी नजर गड़ा दी है। उस लिहाज़ से उन्हें तवज्जो भी दी जा रही है।

मामले की गंभीरता को इस लिहाज़ से भी समझा जा सकता है कि राहुल गांधी ने कर्नाटक विधानसभा चुनावों के दौरान ही वादा किया था कि यदि विपक्षी दल सत्ता में आए तो देश में ओबीसी गणना करवाई जाएगी। हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री मोदी के सामने ऐसी ही मांग की है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ओबीसी आरक्षण 21 फीसदी  से बढ़ाकर 27 फीसदी  करने की घोषणा की है। यानी हर किसी की नजर ओबीसी वोट बैंक पर है। समाजवादी पार्टी ने अपने संगठन में आधे से अधिक पदाधिकारी पिछड़े वर्ग से ही बनाए हैं। नीतीश कुमार की पार्टी की 32 सदस्यों की कार्यकारिणी में 16 ओबीसी के हैं।

उधर, केंद्र सरकार भी पिछड़ों को लेकर कुछ ज्यादा ही फिक्रमंद दिखने लगी है। प्रधानमंत्री ने पिछड़ों को ही ध्यान में रखकर इस साल स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से विश्वकर्मा योजना की घोषणा की थी। सरकार अब उस पर  आगे भी बढ़ चुकी है। है। विश्वकर्मा योजना के तहत तेरह हजार करोड़ रुपये रखे गये हैं। वह धन ओबीसी कारीगरों को एक लाख रुपये के हिसाब से बिना ब्याज के दिया जाएगा। देश में नाई, धोबी, कहार आदि कुछ जातियां भी अति पिछड़ों में आती हैं। भाजपा की नज़र अब उन पर भी है। दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी यह हिमायत कर रहे हैं कि जिस जाति की जितनी संख्या है, उसी के हिसाब से उसको हिस्सेदारी भी मिलनी चाहिए। साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से सभी दलों का फोकस महिलाओं व पिछड़े वर्ग के मतदाताओं पर है और राजग व ‘इंडिया’ गठबंधन में से किसकी बात उसकी उनकी समझ मे आती है, यह चुनाव बाद ही पता चलेगा।

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से दो आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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