रेलवे के सम्पूर्ण विद्युतीकरण का शिगूफ़ा

प्रियदर्शी दत्ता*

विद्युतीकरण का आधे से भी ज़्यादा काम बाकी है जबकि प्रचार कुछ ऐसा है कि मानो ज़रा सा काम बचा है

भारतीय रेलवे ने अपने सम्पूर्ण परिपथ का विद्युतीकरण का महत्वाकांक्षी बीड़ा उठाया है। बताया जा रहा है कि इस लक्ष्य के पूरे होने पर भारतीय रेल दुनिया का अकेला बड़ा रेलतंत्र बन जाएगा जो सम्पूर्ण रूप से विद्युत चालित हो। सरकार की तरफ से इस प्रक्रिया के जो लाभ गिनाए जा रहें हैं, उनमें से मुख्य हैं – क) उर्जा व्यय में वार्षिक करीब 13,000 करोड़ रुपए की कटौती ख) सालाना 2.8 अरब लीटर डीजल की खपत से छुटकारा ग) सौर, पवन आदि नवीकरनीय उर्जा स्रोतों से विद्युत उत्पादन की संभावना घ) यात्री तथा माल गाड़ी के परिचालन में गतिशीलता च) कार्बन फुटप्रिंट के कमी से पर्यावरण को लाभ।

भारत की पहली विद्युत चालित ट्रेन मुम्बई में आज से करीब एक सदी पहले चली।  यह लोकल ट्रेन फरवरी, 1925 में हार्बर लाइन पर विक्टोरिया टर्मिनस (आज का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) से कुर्ला तक दौड़ी थी। मार्च, 1928 तक मुम्बई शहरी रेल व्यवस्था का सम्पूर्ण विद्युतीकरण हो चुका था। परन्तु क्यों इस सफलता को देश भर में लागू नहीं किया गया? कारण का अनुमान लगाना कठिन नहीं। भारत में कोयले का विशाल भंडार सिद्ध हो चुका था। दूसरी तरफ बिजली की भारी कमी थी। प्राथमिकता यह थी कि पहले घरों, कार्यालयों, विद्यालयों, स्वास्थ्य केन्द्रों तक बिजली पहुंचाई जाए। किसी रूट के विद्युतीकरण के लिए आधारभूत संरचना पर भी बहुत व्यय होता।

स्वतंत्रता से पहले रेलवे के इंजन विदेश से आयात होते थे। लेकिन स्वतंत्रता के उपरान्त चित्तरंजन लोकोमोटिव कारखाना (1950) बना। भाप से चलने वाले इंजिनों (steam engine) के निर्माण में भारत ने प्रतिमान बनाया। सन 1925 से लेकर 1947 तक केवल 388 किलोमीटर रेलमार्ग का विद्युतीकरण हुआ था। यह कुल रेलमार्गों की लम्बाई का आधा प्रतिशत भी नहीं था। वास्तव में 1980 के दशक तक विद्युतीकरण के गति मन्द ही थी। सन 1981 में भारतीय रेल के पास कुल 10,908 इंजिन थे, जिनकी संख्या 2014 में कुल इंजिनों (10,499) से भी थोडा अधिक थे। लेकिन अन्तर उनके उर्जा उपयोग में था। सन 1981 में डीज़ल (2,403)  तथा विद्युत् चालित इंजिनों (1,036) को जोड़कर जो संख्या बनती थी उससे दुगनी भाप से चलने वाली इंजिन (7,469)  थे किन्तु 2014 आते आते भाप से चलने वाले रेल इंजन समाप्ति की कगार पर पहुँच गए थे। अब वे केवल मीटर गेज तथा नैरो गेज पर ही प्रयोग किए जा रहे थे। इस तरह इंजिन अब करीब बराबर बराबर डीजल तथा विद्युत् के खेमों में बंट गए थे।

हम 1980 के दशक में कर्षण (Traction) के मामले में दुनिया के आधुनिक रेलतंत्रों से बुरी तरह पिछड़े हुए थे। लेकिन आज विद्युतीकरण के मामले में वैश्विक औसत के बराबर हैं। अंतर्राष्ट्रीय रेलवे हैंडबुक, 2017 के अनुसार औसतन तेल से 56 प्रतिशत इंजिन चलते हैं। भारत में रेलवे कर्षण में डीज़ल का प्रभुत्व 1990 के दशक में बढ़ा। अर्थात कोयले ने जो जगह छोड़ी, वह डीज़ल ने ले लिया। 

अब ज़रा सम्पूर्ण विद्युतीकरण के शिगूफे को टटोल कर देखें। सरकार ने अपने कई रिपोर्टों तथा प्रश्नों के उत्तर ‘बचे’ हुए अविद्युतीकृत रेलमार्गों का कुछ ही वर्षों के भीतर विद्युतीकरण का दावा किया है। इस ‘बचे’ हुए शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि लक्ष्य बहुत ही करीब है। देश में 1 अप्रैल, 2018 को विद्युतीकृत तथा अविद्युतीकृत रेलमार्गों की तुलनात्मक स्थिति कुछ ऐसी थी – रेलमार्गों की कुल लम्बाई 67,368 किलोमीटर; विद्युतीकृत रेलमार्ग 30,212 किलोमीटर; अविद्युतिकृत रेल मार्ग 37,156किलोमीटर (देखें लोक सभा अतारांकित प्रश्न संख्या 1351/दिनांक 25.07.2018) । यानि कि जो ‘बचा’ हुआ है वह दस, बीस या पच्चीस प्रतिशत नहीं पूरे 56 प्रतिशत है। इसमें मीटर गेज तथा नैरो गेज के लगभग 5,500 किलोमीटर भी शामिल हैं जिनका विद्युतीकरण नहीं होगा परन्तु चूंकि  इनको भी भविष्य में ब्रॉड गेज में बदला ही जाएगा तो इसका अर्थ यह हुआ कि आज की तारीख में आधे से भी अधिक काम बाकी है।

(इस लेख की दूसरी किश्त जल्दी ही)

क्या रेलवे का सम्पूर्ण विद्युतीकरण वांछनीय है?

एक भाप के इंजन की आकृति भारतीय रेल का लोगो है। यह उन दिनों की याद दिलाती है जब ऐसे धुआं उगलते ऐरावत रेल की पटरियों पर धड़ल्ले से दौड़ते थे।  अस्सी के दशक के मध्य तक उनका ही दबदबा बना रहा। नब्बे के दशक में जब उनका वर्चस्व ढलान पर चला गया तब उनकी जगह डीज़ल के इंजनो ने ले लिया। नई सदी के शुरुवाती दिनों में भी विद्युत् चालित इंजन डीज़ल के मुकाबले कहीं नहीं थे। सन 2014-15 तक ही दोनों में बराबरी दिखाई पड़ती है। आज की तारीख में भी थोडा ही सही, फिर भी पलड़ा डीज़ल के तरफ ही झुका हुआ है। अलबत्ता लंगड़े घोड़े की तरह भाप के इंजन अब मुकाबले से बाहर हो चुके हैं।

भारतीय रेल कुछ ही वर्षों में सम्पूर्ण ब्रॉडगेज रेलतंत्र का विद्युतीकरण का दावा कर रही है। विद्युत् चालित इंजन दौड़ाने के लिए समूचे रेल मार्ग का विद्युतीकरण आवश्यक है। लेकिन गौर से देखा जाए तो यह पाएंगे कि कुछ ऐसे रेलवे ज़ोन हैं जिनमे विद्युतीकरण हुआ ही नहीं है। वहां विद्युत् चालित इंजन हैं ही नहीं। इसमें उत्तरपूर्व सीमान्त रेल, उत्तर पश्चिम रेल तथा दक्षिण पश्चिम रेल प्रमुख है (देखिए लोक सभा अतारांकित प्रश्न 831 दिनांक 20.12.2017)। उत्तर पूर्व रेल (मुख्यालय- गोरखपुर) में भी विद्युतीकरण कम हुआ है। विद्युतीकरण के कामों से उत्तर पूर्व और दक्षिण घाट के पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

कहा जा रहा है कि सम्पूर्ण विद्युतीकरण से कार्बन फुटप्रिंट में कमी आएगी। इससे वातावरण में सुधार होगा। भारतीय रेल का लक्ष्य 2030 तक अपने उत्सर्जन में एक तिहाई कमी लाने की है। यह लक्ष्य पर्यावरण पर पेरिस समझौता, 2015 के अनुसार है जिसका भागीदार भारत भी है। लेकिन क्या डीज़ल की स्थान पर बिजली के प्रयोग से वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? आज की तारीख में देश की 54 प्रतिशत बिजली कोयले से ही बनती है। पहले रेल चलाने के लिए कोयले को इंजन के भट्टी में जलाया जाता था। अब हम वही कोयला सयंत्र में जला कर उससे बिजली बना कर रेल चलाना चाहते हैं।

प्रदूषण के दृष्टि से दोनों में अधिक अन्तर नहीं है क्योंकि भारत में पाए जाने वाला कोयला स्तरीय नहीं होता है, इससे प्रदूषण अधिक होता है । परन्तु क्या डीज़ल से प्रदूषण नहीं होता है? होता है, परन्तु उतना नहीं जितना हम आम तौर पर सोचते है। रेल का इंजन डीजल का प्रयोग उस प्रकार नहीं करता है जैसे कि कोई बस या ट्रक। डीज़ल इंजन में पहले डीज़ल से बिजली बनाई जाती है फिर उस बिजली का प्रयोग ट्रेन चलाने में होता है। डीज़ल चालित इंजन को विद्युत् चालित इंजन में परिवर्तित किया जा सकता है। हाल ही में कुछ इंजिनों में ऐसा हुआ भी है।

परन्तु बिजली बनाने के लिए खदानों से संयंत्रों तक कोयले को ले जाने के लिए भी रेल का प्रयोग करना पड़ेगा। सोचिए इससे रेलमार्ग कितने व्यस्त होंगे। रेलवे ईअर बुक 2016-17 (पृ.33) के अनुसार भारतीय रेल की माल ढुलाई का 48 प्रतिशत केवल कोयला ही है। माल ढुलाई का 22 प्रतिशत सामान वह कोयला ही है जो खदान से विद्युत् संयंत्रों तक जाता है। इसको और ज़्यादा बढ़ाना कहीं रेलवे के अपने लिए ही उल्टा न पड़ जाए।

अच्छी बात यह है कि आजकल तेज़ी से नई तथा नवीकरणीय उर्जा का विकास हो रहा है। देश में बिजली का पांचवा हिस्सा अब सौर तथा पवन शक्ति आदि से बन रहा है। भारतीय रेल ने भी अपने कई रेल स्टेशनों तथा कार्यालयों में सौर पट्टियाँ लगाई हैं। परन्तु हो सकता है इससे उन स्टेशनों तथा कार्यालयों में बल्ब जलाई जाए या पंखा चलाया जाए। यहाँ तक कि कुछ ट्रेनों के कमरे के बत्तियां तथा पंखे भी ऐसे ही चलें। लेकिन एक भारी भरकम ट्रेन को खींचने के लिए जिस 25,000 वोल्ट विद्युत् की आवश्यकता पड़ती है उस में सौर या पवन का योगदान कहीं नज़र नहीं आता।

इसके उलट एक ट्रेन के पटरी से गुज़र जाने के कम्पन से जिस शक्ति का उत्पादन होता है, हम उसी को प्रयोग में लाने की बात सोचें। आजकल तो ऐसे सेन्सर का प्रयोग हो रहा है जिससे एक क्षेत्र में लोगों की चहलकदमी से जो उर्जा बनती है उसको बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। नागपुर रेलवे स्टेशन पर एक ऐसा प्रयोग हुआ है।

परन्तु जिस प्रकार से साइबर प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है समूचे भारतीय रेल को एक केंद्रीकृत उर्जा के हवाले कर देना खतरे से खाली नहीं है। अगर सिस्टम को हैक कर दिया जाए, या जाम कर दिया जाए, तो एक साथ एक ज़ोन में या डिविज़न में ट्रेनें रुक जाएँगी।

अच्छा यही होगा कि उर्जा की टोकरी (energy basket) का प्रयोग हो अर्थात हमें इस ऊर्जा बास्केट में कई प्रकार के ईंधन रखने चाहियेँ। साथ ही डीज़ल में भी हमें बायोडीज़ल का प्रयोग बढ़ाना होगा।

*लेखक एक स्वतंत्र शोधकर्ता तथा लेखक हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक “The Microphone Men: How Orators Created a Modern India” प्रकाशित हुई है। लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं।

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