डॉ वेड की डायरी – उपन्यास अंश (1)

विनोद रिंगानिया*

असम में खूब चर्चित और असम के बाहर भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके साहित्यकार विनोद रिंगानिया ने अपने हाल ही में प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत” का एक बड़ा अंश हमें भेजा है। हम प्राप्त अंश को साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित करेंगे। ऐसा लग रहा है कि पाँच या छ: किश्तों में यह प्रकाशित हो सकेगा।हमें भेजे गए अंश को पढ़ने से लग रहा है कि उपन्यास पाठकों से अच्छे से बांध कर रखेगालीजिए प्रस्तुत है इस बार की पहली किश्त!

रूपसिंह की कहानी

ऊँचे पहाड़ लगभग समाप्त हो चुके हैं और अब जो पहाड़ियाँ हैं वे काफी नीची हैं। इसका मतलब है मार्ग का सबसे कठिन हिस्सा समाप्त हो चुका है। यहाँ से खड़े होकर उन ऊँचे पर्वतों की ओर देखने पर उनका रंग नीला दिखायी देता है। गन्धूला को आश्चर्य है कि जब वे इन पर्वतों पर थे तब इनका रंग नीला नहीं था और अब यहाँ से देखने पर वे नीले नज़र आते हैं। प्रकृति अपने रहस्यों के कारण और भी मोहक बन जाती है।

गन्धूला और महेश्वर फूकन इन्तज़ार कर ही रहे थे कि जुहान सिंह आ गया। गन्धूला ने देखा कि आज उसके साथ एक और लम्बा-चौड़ा हिन्दुस्तानी था। उस हिन्दुस्तानी को देखते हुए गन्धूला की आँखें सिकुड़ गयीं। पास आने पर जुहान ने बताया कि उसके साथ आये हिन्दुस्तानी का नाम रूपसिंह है। गन्धूला ने सोचा यह हिन्दुस्तानी बर्मा से जब हमारा क़ाफ़िला चला था तब तो साथ नहीं था, अब कहाँ से आ गया। वह कुछ पूछता तब तक इन्तज़ार कर रहे महेश्वर फूकन ने आवाज़ दे दी, “किससे बात कर रहे हो गन्धूला। लगता है जुहान सिंह के साथ कोई और भी है।” गन्धूला ने नीचे झुककर चटाई पर बैठे महेश्वर फूकन को धीमे स्वर में बताया कि जुहान सिंह के साथ एक और हिन्दुस्तानी आया है जो अपना नाम रूपसिंह बता रहा है। रूपसिंह शब्द सुनने के बाद महेश्वर फूकन ने उस शब्द को दो-तीन बार अपने मुँह में दोहराया और कहा, रूपसिंह, तुम कहीं रूपसिंह सूबेदार तो नहीं, जो बदन चन्द्र का अंगरक्षक था। रूपसिंह ने घुटने के बल बैठकर महेश्वर फूकन को प्रणाम किया और कहा, आपको प्रणाम करता हूँ फूकन देउता। हाँ मैं वही रूपसिंह हूँ। आपने ठीक पहचाना। “तुम क्या मुझे जानते हो” फूकन बोले। “जिस किसी ने भी जोरहाट में थोड़ा समय बिताया हो वह आपको कैसे नहीं जानेगा देउता?” रूपसिंह के स्वर में अतिरिक्त विनम्रता घुली हुई थी। शायद महेश्वर फूकन की शारीरिक स्थिति देखकर। या फिर यह सोचकर कि जिस दौर में महेश्वर फूकन की आँखें निकाली गयी थींं वह स्वयं उनके विपरीत खेमे था।

चारों इत्मीनान से बैठ गये। गन्धूला अपने तम्बू के अन्दर जाकर फूकन के लिए एक कटोरे में पानी ले आया। रूपसिंह ने गन्धूला और फूकन के आग्रह पर बताया कि दो साल पहले तक वह आसाम में ही था और ब्रिटिश साहब डेविड स्कॉट ने उसे काम पर रखा हुआ था। वह साहब का हर तरह काम कर दिया करता था। कभी दफ़्तर का चपरासी बन जाता, कभी उनका अंगरक्षक, कभी गुप्तचर बनकर उनके लिए ख़बरें ला दिया करता। उसने बताया कि साहब ने उसे भागती हुई बर्मी फ़ौज के पीछे-पीछे भेज दिया था यह पता लगाने के लिए बर्मी कहाँ तक पहुँच गये हैं। और इसी चक्कर में वह फँस गया।

अँधेरा घिरने लगा था इसलिए उसने संक्षेप में बता दिया कि किस तरह भागती हुई बर्मी सेना के लोग रास्ते में मिलने वाले लोगों को बन्दी बनाकर अपने साथ ले जा  रहे थे। सारी सावधानी रखने के बावजूद उस पर दो बर्मी सैनिकों की नज़र पड़ गयी और वह उनके हत्थे चढ़ गया। फिर क्या था उसे भी पैरों में बेड़ियाँ पहना दी गयीं और कमर में मोटा रस्सा बाँध दिया गया ताकि वह कहीं भागने न पाये। उसी तरह बँधे बँधे उसे कठिन पहाड़ की चढ़ाई चढ़नी पड़ी। ग़ुलाम बनाये लोगों को रास्ते में बहुत ही कम खाना दिया जाता और पानी भी बस नियत समय पर मिलता। बाद में जब उतराई शुरू हुई और आवा राज्य का इलाका शुरू हो गया तब उनकी टुकड़ी का नायक एक-एक कर ग़ुलामों को रास्ते में पड़ने वाले गाँव वालों को बेचता जाता। रूपसिंह को देखकर गाँव के किसान ललचाई नज़रों से देखते लेकिन नायक इतनी अधिक कीमत बता देता कि कोई खरीद ही नहीं पाता। लेकिन टुकड़ी का नायक ग़ुलामों को राजधानी तक नहीं ले जा सकता था क्योंकि इस बार उनके सेनापति ने इस बात का ऐलान कर दिया था कि रास्ते में पड़ने वाले लोगों को ग़ुलाम न बनाया जाये और जल्दी से जल्दी अंग्रेज़ों से सुरक्षित दूरी तक पहुँच जाना है। इसलिए रूपसिंह को भी अंततः एक बर्मी किसान को मोटी रकम लेकर बेच दिया गया।

किसान का खेत आवा की राजधानी से पाटकाई पर्वतमाला पर जाने के रास्ते में ही पड़ता था। सो एक दिन किसान के खेत पर दूसरे कुछ ग़ुलामों के साथ काम करते समय जब उसने देखा कि एक बड़ा क़ाफ़िला वहाँ से गुज़र रहा है तो वह उत्सुकतावश क़ाफ़िले के पीछे-पीछे हो गया। थोड़ी ही देर में उसे पता चल गया कि क़ाफ़िले में आसाम के लोग हैं और वे आसाम जा रहे हैं। उसे यह भी पता चल गया कि अब आसाम बर्मियों से पूरी तरह खाली हो गया है इसलिए ये लोग वापस आसाम लौट रहे हैं। रूपसिंह क़ाफ़िले के पीछे-पीछे अपनी ही धुन में दो मील तक चला आया तब जाकर उसके ध्यान में आया कि वह अपने खेत से काफी दूर निकल आया है। उसी दौरान उसकी नज़र क़ाफ़िले में जुहान सिंह पर पड़ी। जुहान को वह पहले जानता ही था। सो उसने उसे अपनी सारी कहानी बतायी। जुहान ने कहा कि चिन्ता करने की कोई बात नहीं। ये निहत्थे किसान तुम्हें हम लोगों के बीच से निकालकर नहीं ले जा सकते। उसने उसे बदलने के लिए दूसरे कपड़े दे दिये ताकि यदि उसका मालिक उसे खोजते हुए आ भी जाता है तो वह दूर से उसे पहचान नहीं पायेगा।

रूपसिंह के बर्मियों के चंगुल में पड़ने की कहानी सुनने के बाद महेश्वर बोले–“रूपसिंह, तुम स्वर्गदेव चन्द्रकान्त और बदन चन्द्र के बहुत नज़दीक रहे हो। मुझे यह तो पता है कि बहुत सारी घटनाओं में तुम्हारी सीधे भागीदारी थी लेकिन सबकुछ कैसे क्या हुआ यह सब बारीकी से जानने की इच्छा है। जहाँ भी हम डेरा डालते हैं हम लोग दोपहर के बाद इकट्ठा होकर कहानियाँ सुनते हैं। जब तक मौक़ा है तुम भी आ जाया करो हमारे पास।”  “फूकन देउता, आपसे कुछ भी छुपा थोड़े है। लेकिन फिर भी बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो सिर्फ़ मुझे ही मालूम हैं। इस बार आसाम पहुँचने के बाद सीधे अपने देश चले जाने का इरादा है। और बाद में भगवान ही जानता है कि कभी वापस आसाम आना होगा या नहीं। इसलिए वे घटनाएँ यदि मैं बता दूँ तो मेरा भी जी थोड़ा हल्का हो जायेगा।”

रूपसिंह की कहानी -2

आठ ब्राह्मणों को जोरहाट के चौराहे पर खड़ाकर उनकी आँखें निकाल लिये जाने के कारण राजमहल में बदन चन्द्र के विरुद्ध खुसर-फुसर होने लगी थी लेकिन तब तक बर्मी सेना जोरहाट के बाहर ही रुकी हुई थी। बर्मी सेनापति मिंगामाहा तिलवा बदन चन्द्र के इशारे पर काम कर रहा था इसलिए किसी भी दरबारी में चूँ तक करने की हिम्मत नहीं थी। लेकिन बर्मी सेना को हेमो आइदेओ और ढेर सारे उपहारों-हाथियों के साथ वापस उनके देश रवाना कर देने के बाद बदन चन्द्र और भी अधिक स्वच्छन्द हो गया। स्वर्गदेव और राजमाओ को तो वह कुछ समझता ही नहीं था। वह लोगों से कहता फिरता था कि उसका इरादा गौरीनाथ सिंह के बेटे गर्भे सिंह को स्वर्गदेव बनाने का था। लेकिन जब राजमाओ उसके सामने गिड़गिड़ाने लगीं तब उसने चन्द्रकान्त को ही राजा बने रहने दिया। उसने अपनी मनमर्जी से नये बरबरुवा और बरगोहाईं नियुक्त कर दिये। श्रीनाथ की जगह पर धनीराम को बरबरुवा बनाया गया और निर्भयनारायण नाम के एक अन्य दरबारी को बरगोहाईं।

पूर्णानन्द के रहते लोग उसके कठोर कदमों की आलोचना करते थे लेकिन अब बदन चन्द्र के शासन में लोगों को फिर से पूर्णानन्द याद आने लगा। लेकिन कोई चारा भी नहीं था। बदन चन्द्र इतना शातिर था कि अपने विरुद्ध किसी भी साज़िश को बहुत पहले ही ताड़ लेता था और जरा भी सन्देह होने पर ऐसे लोगों को भी मरवा देता था जिनका साज़िश से दूर-दूर का वास्ता नहीं होता था। रूपसिंह सूबेदार और रहमान खान जमादार नाम के दो अंगरक्षक सुबह उठने से लेकर देर रात सोने तक बदन चन्द्र को घेरे रहते। इन दोनों अंगरक्षकों की उपस्थिति में बदन चन्द्र अपने आपको पूरी तरह महफूज़ समझता।

बदन चन्द्र सुबह पौ फटते ही उठ जाता है। उसके कक्ष के दरवाजे पर एक लिगिरा रात भर तैनात रहता है जो सुबह उसके उठते ही उसके पाँवों में हरिन के चमड़े से बनी चप्पल डाल देता है। बदन चन्द्र दिन भर कवच पहने रखता और उसकी कमर पर बँधी रहती एक तेज़ धार वाली तलवार जो उसने विशेष रूप से बर्मा में बनवायी थी। देश के महामन्त्री में कूटबुद्धि के साथ-साथ शारीरिक बल भी पर्याप्त होना चाहिए जोकि बदन चन्द्र में था। और वह मौक़ा मिलते ही अन्य दरबारियों के सामने इस बात का उल्लेख किये बिना नहीं रहता था कि किस तरह आसाम आते समय पाटकाई की पहाड़ियों पर उसने इसी तलवार से एक तेंदुए को रात के अँधेरे में भी ढेर कर दिया था। मात्र सुबह नित्यक्रिया करने के समय बदन चन्द्र अपना कवच खोलता और तलवार उतारता था।

बदन चन्द्र अपने निवास के पिछवाड़े जहाँ शौच करने जाता था उसके पास ही एक पोखर पर मिट्टी से हाथ धोया करता था। यह पोखर राजमाओ के महल की खिड़की से भी दिखायी देता है। आज राजमाओ अपने नियत समय से पहले उठ गयी थीं। राजमाओ आज उठने के बाद एक पीढ़ा लेकर खिड़की के पास बैठ गयीं। उनकी सेविका कन्निमाई को आश्चर्य हुआ कि आज राजमाओ को इतनी जल्दी उठने की क्या सूझी। बदन चन्द्र पोखर के पानी की ओर मुँह करके मिट्टी से अपने हाथ धो रहा था कि तभी पीछे से किसी की पदचाप सुनायी दी। बदन चन्द्र ने चौंककर फुर्ती से अपना चेहरा घुमाया और यह देखकर आश्वस्त हो गया कि आने वाले और कोई नहीं उसके ही विश्वस्त अंगरक्षक रूपसिंह और रहमान खान थे। उसके चेहरे से तनाव समाप्त हो गया। उसने पूछा–“आज इतनी सुबह कैसे?”। दोनों अंगरक्षकों ने एक-दूसरे की ओर देखा और रूपसिंह ने दाँत निपोरते हुए जवाब दिया–“देउता, आज मेरा सूर्य भगवान का व्रत है। इसलिए मैंने सोचा इस अवसर पर सबसे पहले अपने देउता के दर्शन कर लेना अच्छा होगा। इससे भगवान भी प्रसन्न होंगे।”

“अच्छी बात है, अच्छी बात है” कहकर बदन चन्द्र वापस दूसरी ओर मुँह करके मिट्टी से अपने हाथ धोने लगा।

उधर राजमाओ के कक्ष में लिगिरी कन्नीमाई के कौतूहल का अन्त नहीं था। वह देखना चाहती थी कि आख़िर क्या देखने के लिए आज राजमाओ खिड़की के पास बैठी हैं। उसने चोरी छुपे उस दिशा में देखा जिधर राजमाओ की दृष्टि थी। तभी कन्नीमाई की नज़रें पोखर के किनारे पर पड़ीं और वह उत्तेजना के मारे चीख उठी। राजमाओ भी उत्तेजना के मारे काँपने लगी लेकिन चीखी नहीं। उन्होंने पीछे घूमकर कन्नीमाई को तीखी नज़रों से देखा मानों कह रही हों यह इस वक़्त यहाँ कैसे आ गयी और उसे पानी लाने के लिए बाहर भेज दिया। उत्तेजना के बीच भी राजमाओ के होठों पर एक मुस्कान तैर गयी। वे सोचने लगीं पता नहीं धनीराम और निर्भयनारायण को इस बारे में पता लगा या नहीं।

बदन चन्द्र के चेहरा घुमाते ही रूपसिंह ने अपनी तलवार निकालकर उसकी गरदन पर पूरी ताकत के साथ प्रहार कर दिया था। बदन चन्द्र ने चीखने लगा लेकिन तभी रहमान खान ने अपनी तलवार के लगातार प्रहारों से उसका चीखना हमेशा के लिए बन्द करा दिया। उधर आदेश मिलते ही बड़ी संख्या में चन्द्रकान्त के वफ़ादार सैनिक पोखर के किनारे दौड़कर आ गये। थोड़ी देर के लिए वहाँ भारी अफरा-तफरी का माहौल रहा क्योंकि बदन चन्द्र के वफ़ादार सैनिक समझ ही नहीं पा रहे थे कि अचानक यह क्या हो गया। लेकिन माज़रा समझ में आने के बाद उनलोगों को इसी बात में समझदारी लगी कि हथियार डालकर अपनी जान बचा ली जाये। बदन चन्द्र का महल लूट लिया गया।

दोपहर होते न होते यह ख़बर पूरे जोरहाट में फैल गयी और बदन चन्द्र के सताये लोग रास्तों पर निकलकर अपनी खुशियाँ प्रकट करने लगे। सारा काम योजना के मुताबिक हो जाने के कारण राजमाओ के मन में संतोष था। बर्मी सेना वापस चली गयी और अब बदन चन्द्र के अत्याचार से भी लोगों को मुक्ति मिली। अब बस एक योग्य बुढ़ागोहाईं नियुक्त हो जाये तो राजमाओ अपना बाकी समय धर्म-कर्म में बिता सकती हैं। शाम को राजमाओ ने एक तेज़ गति वाली नौका को बंगाल भेज दिया पूर्णानन्द के बड़े बेटे रुचिनाथ को वापस बुलाने के लिए ताकि उसे बुढ़ागोहाईं का पदभार दिया जा सके।

कम्पनी का बोर्डरूम

31 मई 1817। कलकत्ता में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल का सभागार। आज बैठक कुछ ज़्यादा ही लम्बी चल गयी। पारी बदल-बदलकर पंखा हिलाने वाले नौकरों के हाथ भी दर्द करने लगे हैं। खसखस पर पानी ढालते ही वह तुरन्त सूख जाता। शाम होने के बाद सदस्यों ने सोचा कि शायद सारे मामले निपट गये हैं और अब वे बोर्डरूम की इस उमस भरी गर्मी से निकलकर अपने बंगलों में नहा-धोकर हवाखोरी के लिए गंगा किनारे जा सकते हैं। लेकिन गवर्नर जनरल मारक्वेस ऑफ हैस्टिंग्स की कार्यसूची समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही है। बोर्ड के एक्टिंग प्रेसीडेंट रिचर्ड रॉक कुछ ही दिनों में इंगलैण्ड जाने वाले हैं इसलिए गवर्नर जनरल हैस्टिंग्स चाहते हैं कि आज की बैठक में अधिक से अधिक काम निपटा लिया जाये।

अब अगला विषय है आसाम से आये आवेदनों पर विचार। गवर्नर जनरल के इतना कहते ही रिचर्ड रॉक ऐसा चेहरा बनाता है मानों इस विषय के उच्चारण मात्र से उसे ऊब होने लगी है। रॉक का चेहरा देखकर गवर्नर जनरल ने कहा कि 1794 में आसाम से कम्पनी की टुकड़ियों को वापस बुलाने के बाद हमने उस देश को लेकर कभी सर नहीं खपाया। लेकिन वहाँ के विभिन्न पक्षों की ओर से कम्पनी के अधिकारियों के पास आवेदन आते रहते हैं। इन आवेदनों की रिपोर्ट बोर्ड के सम्मानित सदस्यों के सामने रखना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।

हमने एक बहुत ही क़ाबिल और युवा अफसर डेविड स्कॉट को रंगपुरा का मजिस्ट्रेट और कूचबिहार का कमिश्नर नियुक्त किया है। आसाम के मामलों पर नज़र रखने का दायित्व भी उसे ही दिया गया है। डेविड स्कॉट की भेजी एक विस्तृत रिपोर्ट कल ही मुझे मिली है जिसके बारे में मैं माननीय सदस्यों को अवगत कराता हूँ।

बर्मा के एक गवर्नर मिंगीमाहा तिलवा ने कमिश्नर डेविड स्कॉट को पत्र लिखा है जिसमें कहा गया है कि आसाम नरेश चन्द्रकान्त ने बर्मा के राजा की अधीनता स्वीकार कर ली है और अब वह दूसरी प्रजा की तरह ही हमारे राजा का ग़ुलाम है। डेविड स्कॉट ने जब अपने गुप्तचरों की मदद से इसकी तहक़ीक़ात की तो बड़े चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। अन्य बातों के अलावा इससे यह भी पता चलता है कि हमने किस तरह इतने दिनों तक अपने पड़ोस की घटनाओं से आँख-कान बन्द कर रखे थे।

पता चला कि वहाँ मार्च महीने के मध्य में बर्मा से एक भारी सेना आयी और उसने आसाम नरेश को अपनी एक बहन को बर्मा के राजा के लिए भेजने के लिए मजबूर कर दिया। बड़ी संख्या में हाथी, सोना-जेवरात भी भेजा गया। इससे सन्तुष्ट होकर बर्मी सेना अप्रैल महीने में वापस अपने देश लौट गयी। जाते-जाते वह एक मन्त्री बदन चन्द्र को वहाँ का महामन्त्री नियुक्त करवा गयी। माननीय सदस्यों को याद दिला दूँ कि यह बदन चन्द्र वही है जो दो साल पहले कम्पनी के पास मदद की फरियाद लेकर आया था। और हमने जब मदद देने से इनकार कर दिया तो वह कलकत्ता से सीधे बर्मा पहुँच गया।

बर्मी सेना के डर से वहाँ का महामन्त्री रुचिनाथ और उसका भाई जगन्नाथ आसाम से भागकर बंगाल आ गये हैं। वे लोग चिलमारी नामक मुकाम में रहते हैं। एक राजकुमार ब्रजनाथ सिंह भी अपने दस वर्षीय पुत्र पुरन्दर के साथ चिलमारी में रहता है। कम्पनी ने शरणागत को शरण और सुरक्षा देने की अपनी नीति के अनुसार ब्रजनाथ को शरण दे रखी है। अब बर्मी सेना के वापस लौट जाने के बाद ये लोग वापस आसाम जाकर गद्दी पर कब्जा करना चाहते हैं। ब्रजनाथ ने कमिश्नर स्कॉट से कहा है कि वह अपनी बाकी की ज़िन्दगी बंगाल में आराम से बिता सकता था। लेकिन तब उसके बेटे पुरन्दर की शादी नहीं हो पायेगी। क्योंकि राजपरिवार के लोग कुछ चुनिन्दा परिवारों में ही शादी कर सकते हैं। इसलिए ब्रजनाथ वापस आसाम जाना चाहता है।

“ब्रजनाथ कम्पनी से आख़िर क्या चाहता है?” अब तक अधीर हो चुके रिचर्ड रॉक ने पूछा।

स्कॉट की रिपोर्ट के अनुसार ब्रजनाथ ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन पद से हटा दिये गये महामन्त्री रुचिनाथ का भाई जगन्नाथ चाहता है कि या तो हम उसके साथ हमारे सिपाहियों की एक टुकड़ी भेजें या फिर सात सौ बन्दूकें और बारूद उन्हें दें। वे लोग बन्दूक और बारूद की कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं।

“नहीं, इसका सवाल ही नहीं उठता। हमारे सिपाही भेजना तो दूर की बात हम बंगाल से किसी किराये के बरकन्दाज़ को भी ले जाने की अनुमति नहीं दे सकते। पड़ोस के देशों में सत्तापलट में हमारी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। और उस सात सौ बन्दूकें माँगने वाले से भी स्पष्ट कह दिया जाये कि हमारे पास इतनी अधिक बन्दूकें नहीं हैं कि हम अपने पड़ोस के झगड़ों में उनका इस्तेमाल होने दें।” रिचर्ड ने अन्य सदस्यों की राय की प्रतीक्षा किये बिना एक तरह से अपना फैसला सुना दिया। “हाँ, वह राजकुमार, क्या नाम बताया उसका…ब्रजनाथ…वह चाहे तो अपने देश लौट सकता है लेकिन उसके साथ जो भी जायेगा उसके पास किसी तरह का अस्त्र-शस्त्र नहीं होना चाहिए। हमारी नीति बिलकुल स्पष्ट है। हम आसाम में किसी का भी पक्ष लेने नहीं जा रहे।”

……..अगली कड़ी आने वाले बृहस्पतिवार को .

उपन्यास “डॉ वेड की डायरी – असम में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत”अमेज़न पर यहाँ उपलब्ध है।

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विनोद रिंगानिया (जन्म : 1962, असम में), कई दशकों तक गुवाहाटी से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्रों का सम्पादन तथा स्तम्भ लेखन। प्रमुख असमिया कवियों का हिन्दी में अनुवाद। यूरोप के अलावा लगभग 12 देशों की यात्राएँ। कथेतर साहित्य में यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश तथा असम : कहाँ-कहाँ से गुज़र गया प्रकाशित। साहित्य अकादेमी पुरस्कृत असमिया कवि हरेकृष्ण डेका का अनूदित कविता संग्रह कोई दूसरा और असमिया कवि अनीस उज़् ज़मां का अनूदित कविता संग्रह हरा चाँद प्रकाशित। यात्रा वृतान्त ट्रेन टू बांग्लादेश असमिया में भी प्रकाशित। असमिया कवि नीलिम कुमार की अनूदित आत्मकथा एक बनैले सपने की अन्धयात्रा रज़ा फाउन्डेशन, भोपाल से प्रकाशित। कहानियाँ समकालीन भारतीय साहित्य, दोआबा सहित विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित।

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2 COMMENTS

  1. It is a bit difficult to visualise & understand the whole scenario of the story. May be because of my living background : Benares and Delhi. But Jorhat is a very much known as one of my BHU classfellow, close friend and Lohiaite – Kanu Da, who belonged to Jorhat, used to tell many stories from Assam.

  2. Thank you for the comment. You are finding it difficult to visualize, maybe because the setting is of 200 years back, and the characters are telling stories while en route from Burma in 1826. And above all, because this part of the text is selected from the midst of the novel.

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