तय होगा चुनावी मुद्दा – सामाजिक न्याय या हिंदुत्व का वर्चस्व?

राजकेश्वर सिंह*

देश में तीन दशक पीछे की राजनीति (33 साल पहले) को याद कीजिए, जब मंडल और कमंडल की राजनीति उबाल पर भी थी। सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों के लागू करने के विरोध में सवर्ण और ऊंची जातियों के छात्र व युवा सड़कों पर थे, तो दूसरी तरफ हिंदुत्व की राजनीति को धार देते हुए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन चरम पर था। समय बीता और दोनों ही मुद्दों ने देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने में बड़ी भूमिका निभाई, फिर भी इन मुद्दों को मुकाम हासिल करने में कुछ कमी रह गई थी। पिछड़ों को आरक्षण तो मिला, लेकिन उसका लाभ पिछड़ों में भी अति पिछड़ों तक नहीं पहुंचा। उससे उपज रहे असंतोष की आग कहीं न कहीं सुलग ही रही थी कि बिहार में जातीय जनगणना के नतीजे सामने आते ही राजनीति फिर से गरमा गई है। राजनीति समेत दूसरे मोर्चों तक पर पिछड़ों के हक और हिस्सों का मामला फिर बहस के केंद्र में आ गया है।

दूसरी तरफ, इस बीच हिंदुत्व की राजनीति भी और ज्यादा मुखर हो कर सामने आ चुकी है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो रहा है। आगामी जनवरी में उसका लोकार्पण भी होगा। तब देश भर में उत्सव मनाने की बातें कही जा रही हैं। जाहिर है उसी समय लोकसभा 2024 का चुनाव भी सामने होगा। कहना गलत नहीं होगा कि 33 साल बाद एक बार फिर वह समय आ गया है, जब यह नए सिरे से तय होगा कि देश की सियासत अब सामाजिक न्याय और हिंदुत्व की राजनीति में से किस मुद्दे पर तय होगी और हां, इस बार इसकी धार और तेज हो सकती है।

राजनीति से लेकर और दूसरे मामलों में पिछड़ों को ज्यादा अवसर उपलब्ध कराने के मद्देनजर देश में जातीय जनगणना कराने की मांग एक अरसे से हो रही है। केंद्र की मौजूदा राजग सरकार, खासतौर से भाजपा के सामने भी बीते वर्षों में यह बात कई बार उठाई जा चुकी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में पिछड़े वर्ग के कई नेता खुद प्रधानमंती से मिलकर भी इस मुद्दे को पूर्व में उठा चुके हैं। एनडीए से जुड़े राजनीतिक दलों ने इस मांग का विरोध तो कभी नहीं किया  लेकिन केंद्र सरकार ने कभी इस पर हामी भी नहीं भरी। दूसरी तरफ बिहार की नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार ने इस दिशा में ठोस पहल ही नहीं की, बल्कि कानूनी बाधाओं से पार पाते हुए अपने राज्य में जातियों का सर्वे करा डाला और उसका परिणाम भी घोषित कर दिया। हालांकि इसके लिए बिहार सरकार को पटना हाईकोर्ट से रोक के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा, जहां केंद्र सरकार ने भी राज्य में जातिवार जनगणना की कड़ी मुखालिफत की, फिर भी सर्वोच्च अदालत की हरी झंडी के बाद बिहार ने सर्वे पूरा किया जिसके नतीजे भी सामने आते ही सत्ता और विपक्ष के बीच सियासत भी होनी शुरू हो गई है।

आकड़ों के सामने आते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहकर भविष्य में इस मुद्दे को लेकर राजनीति के संकेत दे दिये हैं कि बिहार का जातीय सर्वे देश के लिए नजीर है। उनका मतलब साफ़ है कि यह मामला सिर्फ बिहार तक तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह पूरे देश में जाएगा। साथ ही लोकसभा चुनावों में भी इसके असर को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस नेता राहुल गांधी जो विपक्ष के नेताओं में सबसे आगे बढ़कर देश में जातीय जनगणना की पैरवी कर रहे हैं, कहा है कि बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति की आबादी 84 प्रतिशत है। राहुल गांधी ने जिसकी जितनी आबादी, उस हिसाब से उसकी हिस्सेदारी की वकालत की है। इससे पहले वे विधायिका में महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर संसद में बहस के दौरान भी पिछड़े वर्ग की महिलाओं को कोटे के भीतर अलग से कोटे की पैरवी कर चुके हैं। उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मसले को तूल पकड़ता देख विपक्षी नेताओं की ओर इशारा करते हुए कहा है कि 60 साल पहले भी वे जात-पात के नाम पर देश बांटते थे, आज भी वही कर रहे हैं।

देश में जातिवार जनगणना का कोई प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पिछली बार 1931 में (आज़ादी से पहले) जातिवार आंकड़े जारी किए गए थे। उसके बाद से देश में किसी भी जनगणना में जातिवार आंकड़े नहीं जुटाए गए। इस बीच पिछड़े वर्ग के नेताओं की ओर से लगातार यह मांग होती रही है कि उनकी आबादी की सही स्थिति सामने आने चाहिए। उसके पीछे पिछड़ों को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण लेने की मजबूत पैरवी की मंशा बताई जाती है। दरअसल बिहार के जातीय सर्वे के नतीजों ने विभिन्न राजनीतिक दलों को इसलिए हैरानी में डाल दिया है, क्योंकि यह देश की राजनीति में फिर से बड़े फेरबदल का संकेत देता है। बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ है। सर्वे बताता है कि उस आबादी में 27 प्रतिशत पिछड़े और 36 प्रतिशत अति पिछड़े वर्ग के लोग हैं। यानि कुल 63 प्रतिशत आबादी पिछड़े वर्ग की है। अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति की आबादी 21 प्रतिशत और 15 प्रतिशत सामान्य वर्ग के हैं। पिछड़ों न भी सबसे ज्यादा यादव 14.26 प्रतिशत हैं। इसी तरह पासवान 5.3 प्रतिशत, रविदास 5.2 प्रतिशत, कोइरी 4.2, ब्राह्मण 3.65, राजपूत 3.45, कुर्मी 2.80, बनिया 2.31, मल्लाह 2.60 और भूमिहार 2.86 प्रतिशत हैं, जबकि मुस्लिमों की आबादी 17.7 प्रतिशत है। सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में पिछड़ों को अभी 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। जाहिर है सर्वे के नतीजों बाद यह बात ज़ोर पकड़ेगी ही कि पिछड़ों को उनकी आबादी के हिसाब से फिर से उनका आरक्षण तय किया जाना चाहिए।

इसके अलावा जहां तक चुनावी राजनीति का सवाल है तो कम से कम उत्तर भारत के राज्यों में हार-जीत में जातीय समीकरण अब भी बड़ी भूमिका निभाते हैं। मौजूदा समय में देश के सवर्ण मतदाताओं, खासतौर से ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, कायस्थ को भाजपा से जोड़कर देखा जाता है। हालांकि लोकसभा 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा जिस बड़ी संख्या में वोट मिला है, उसमें सवर्णों के अलावा पिछड़ों व दलितों की बड़ी भूमिका रही है। विपक्षी दल बहुत चाहकर भी भाजपा के इस वोट बैंक को टस से मस करा पाने में नाकाम रहे हैं, लेकिन अब बिहार में जातियों के सर्वे में पिछड़ों की वास्तविक स्थिति सामने आने के बाद नई गोलबंदी से इंकार नहीं किया जा सकता और तब उन वर्गों का वोट भाजपा से छिटक सकता है।

इस बात की पूरी गुंजाइश इसलिए भी है, क्योंकि ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डवलपमेंटल, इंक्लूसिव अलाएंस) गठबंधन के किसी भी दल ने देशभर में जातीय जनगणना सवाल पर असहमति नहीं जताई है। यहां तक कि राजग (एनडीए) गठबंधन के कई घटक दल के नेता जो पिछड़े समुदाय  आते हैं, वे भी जातीय जनगणना की खुलकर हिमायत कर रहे हैं, जबकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस मामले को अब तक ठंडे बस्ते में रखने का ही पक्षधर रहा है। माना जा रहा है कि भाजपा को जातीय जनगणना का मुद्दा विपक्ष के हाथ आने पर पिछड़े वोट बैंक के छिटकने का डर सता रहा है।

उधर, आरएसएस,  भाजपा और उनके दूसरे सहयोगी संगठन आगामी जनवरी में अयोध्या में राम मंदिर के लोकार्पण को बड़े उत्सव में तब्दील करने की पुरजोर तैयारी में अभी से जुट गए हैं। यह मामला भले ही आस्था का हो, लेकिन इसके जरिए हिंदुओं की बड़ी एकजुटता बनाने की भी कोशिश है। यह भी तैयारी है कि लोकार्पण के बाद भी राम मंदिर निर्माण को लेकर उत्तर प्रदेश समेत दूसरी जगहों पर बाद में उसकी खुशी में आयोजन किए जाएं। कोशिश यह बताने की होगी कि किस तरह केंद्र में मोदी सरकार के रहते मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। मोदी ने ही मंदिर निर्माण का शिलान्यास किया था, वही उसका लोकार्पण करेंगे। जाहिर है कि इन कोशिशों का राजनीतिक और चुनावी फायदा भाजपा को ही दिलाने का प्रयास किया जाना है। इस तरह आगामी लोकसभा चुनाव में अयोध्या में मंदिर निर्माण भी एक मुद्दा रहेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, जबकि बदली परिस्थितियों में सामाजिक न्याय के मुद्दे की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। लोकसभा चुनाव में तो यह मुद्दा रहेगा ही, इसी साल होने वाले पांच राज्यों के चुनाव में भी ‘इंडिया’ गठबंधन बिहार के जातीय सर्वे को प्रमुखता से उठाकर भाजपा और उसके सहयोगी  दलों कठघरे में खड़ा करने में कोई कोताही करेगा, यह संभव नहीं दिखता।

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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