डॉ. शालिनी नारायणन*
“अबे गुवाहाटी लगे आए वाली ट्रेन पहुँच रही है, चल चला”। ननकउ उसकी कनपटी पर हाथ मार कर लपक लिया प्लेटफॉर्म नंबर एक की ओर। पता नहीं कैसे रिंकूआ की आँख लग गई थी, शायद इतनी घाम में पटरियों के बीच घूमने के बाद प्लेटफॉर्म के पंखे के नीचे नींद आ गई थी। उसने झट अपना ब्रुश उठाया और दौड़ पड़ा ननकउ के पीछे-पीछे। बस पाँच ही मिनट रुकेगी ट्रेन यहाँ। इतनी देर में दोनों को किसी डिब्बे में घुस कर ब्रुश से जमीन की सफाई करनी थी और लोगों से पैसा मांगना था। मौका लगा तो दोनों फतेहपुर तक भी निकल सकते थे। लौटने में किसी भी पैसेंजर ट्रेन में या फिर बस की छत पर बैठ कर आ सकते थे। लेकिन अगर टी. टी. ने देख लिया तो खैर नहीं। चलो वो देखी जाएगी, फिलहाल तो अंदर घुस जाए वही बहुत है। ट्रेन पहुँच ही रही थी स्टेशन में। रिंकूआ ने पूरा जोर लगा कर दौड़ लगाई और रुकती ट्रेन में फट से अंदर घुस गया। बोगी के अंदर आते ही उसने निगाहें नीची की और जमीन पर बैठ कर ब्रुश से झाड़ू लगाने लगा। उसके मैले कपड़ों और स्टेशन की कालिख से काले चेहरे की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। पहले कम्पार्ट्मन्ट में कागज़, पॉलिथीन बुहारते वो कनखियों से ऊपर बैठे हमउम्र बच्चे को देखता रहा – हाथ में बिस्कुट का पैकेट लिए वो नीचे टुकड़े गिराता जा रहा था। दोनों गाल क्रीम बिस्कुट से भरे थे। एक पैकेट खत्म हुआ तो उसने नीचे फेंक दिया, पर उसमें एक बिस्कुट बाकी था। रिंकूआ ने जल्दी से पैकेट उठा कर अपनी जेब में रख लिया। बच्चे कि माँ को ठीक से समझ नहीं आया कि क्या हुआ पर उसे देख कर बोली – “ए, हमार बचवा को कैसिन नजर से देखत हो, चलो यहाँ से।“ वो सिर झुकाए आगे बढ़ गया।
एक बाबूजी अगली सीट पर बैठे थे, उनके बूट के नीचे दबा हुआ था कोई कागज़। उसने निकालने की कोशिश की पर निकाल नहीं पाया। उसने सिर उठाया उनसे पाँव हटाने के लिए कहने के लिए, पर उनकी जलती आँखों के सामने कुछ कह नहीं पाया। “चल भाग यहाँ से, बड़ा आया सफाई वाला! इनको आने कौन देता है इन ट्रेन पर? हाथ मत लगाना मेरे जूतों को, गंदे हो जाएंगे।“ कहते हुए बाबूजी ने भगा दिया वहाँ से।
वो और आगे जा कर सफाई करने लगा। अब टाइम नहीं था ज्यादा उसके पास। ननकउ को अब तक पहुँच जाना चाहिए था उसके पास, पता नहीं कहाँ रह गया था। बोगी के बीच हिस्से में पहुँच कर उसे ननकउ दिख गया, दोनों पीछे मुड़े और अपने-अपने हिस्सों में सफाई के पैसे मांगने लगे। एक भले मानस ने उसे पूरे दस रुपए दे दिए! कुछ ने दुत्कारा, कुछ ने उसकी तरफ देखने की भी ज़हमत नहीं की और कुछ ने सिक्के फेंक दिए उसके हाथों में। ट्रेन बस चलने ही वाली थी, ननकउ एक दरवाज़े से, और वो दूसरे से उतर पड़े। प्लेटफॉर्म पर आते ही दोनों साथी एक दूसरे को देख मुस्कुराये और अपनी ओट की ओर चल दिए। दो खंबों के बीच थी उनकी महफूज़ जगह। वहाँ दोनों ने अपनी जेबें खाली करीं। रिंकूआ के पास एक बिस्कुट, दो चिप्स, एक छोटी हनुमान चालीसा थी और चौदह रुपए। आज का दिन अच्छा रहा था। ननकउ के पास थे दस रुपए, दो सूखी रोटी फॉइल में लिपटी हुईं और एक छोटा सा यंत्र।
“ई का है बे ? हम तो ऐसी चीज कबहुँ देखे नहीं। साला फोन होता तो कुछ काम का होता, या फिर कम से कम कान में लगाऊबे की चीज। ई तो किसी कामऊ की चीज नहीं बाटे,” ननकउ बोला।
“चल, संजू भैया को दिखाते हैं, का हो कुछ पैसा मिलब इह का?” रिंकूआ ने आइडीआ दिया।
पर भूख लग रही थी, पहले दोनों ने एक-एक रोटी, आधा-आधा बिस्कुट, एक-एक चिप्स खाया और फिर संजू भैया के पास चल दिए। भैया का साइबर कैफै चलता था और इन बच्चों से अक्सर वो कुछ पैसों में इलेक्ट्रॉनिक सामान खरीद लेते थे। इसमें दोनों का ही फायदा था। भैया उनके हाथ में वो छोटी सी चीज़ देखकर बोले – “ये पेन ड्राइव कहाँ पा गए तुम दोनों? लाओ इधर दो, देखें इसमें है क्या।“ उस छोटे से पुर्जे को उन्होंने अपने डेस्कटॉप कंप्यूटर में लगाया तो उसमें कुछ नक्शे बने मिले। और कुछ तारीख, कुछ जगह। संजू भैया को कुछ समझ नहीं आ रहा था पर उन्होंने फिर भी वो फाइल सेव कर के लॉक फ़ोल्डर में डाल दी। “ये लो बीस रुपए और भागों यहाँ से!” भैया हंस कर बोले। ननकउ और रिंकूआ ने आपस में दस-दस रुपए बांटे और वापस चल दिए स्टेशन के तरफ। वही तो उनका घर भी था। उनका भी “वर्क फ्रॉम होम”।
यदि आपको यह कहानी अच्छी लगी है और आप इसे आगे भी पढ़ना चाहते हैं तो इसका दूसरा भाग यहाँ पढ़ें।
*डॉ. शालिनी नारायणन लेखक है, कवियित्री हैं और इसके अलावा मीडिया सलाहकार और ट्रेनर के रूप में भी कार्यरत हैं। इससे पहले वे तेईस साल केंद्र सरकार की नौकरी में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर काम कर चुकी हैं, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लिए हुए अब उन्हें एक दशक हो चुका है। तब से मानसिक स्वास्थ्य, ड्रग पुनर्वास और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान रहा है।
पहले एपिसोड में ही जैसे OTT वाले सीरियल के बीज पड़ गए।
दृश्यात्मक है , संजू भैया आगे इस जानकारी का क्या करते हैं , जिज्ञासा है ।
Beautifully-written. The author has ears to the ground. The use of language does justice to the content.
डॉ शालिनी ने एक बढ़िया शब्दचित्र रचा है। कहानी रोचक व भावपूर्ण है।
आंचलिक शब्दों का उपयोग इसे वास्तविकता के मुद्दे की ओर ले जाता है।
पूरा कथानक मार्मिक है।
शालिनी के साथ दिल्ली में आकाशवाणी के न्यूजरूम में काम करने का अवसर मिला था। तब उनके साहित्यिक ज्ञान और रुझान का पता नहीं था।
आपकी कलम चलती रहे। आप नई ऊंचाइयां छूती रहें। यही कामना है।
अजीत सिंह
हिसार
946664707