डर के खिलाफ बयान पर दस्तखत

राजेन्द्र भट्ट*

शाहरुख की फिल्म ‘जवान’ देखने के बाद राजेन्द्र भट्ट के मन में जो विचार उमड़े-घुमड़े, उनको उन्होंने यहाँ दर्ज कर दिया!

अपने शाहरुख की ‘जवान’ मैंने पूरी कोशिश करके, बल्कि सच कहूँ कि कर्तव्य की तरह
देखी। मालूम था, ‘बंबइया’ फिल्म है और हीरो की वीरता और उसके कारनामों के
परिणामों को, जैसा कला की भाषा में कहते हैं, ‘विलिंग सस्पेंसन ऑफ डिसबिलीफ’ यानी
ज्यादा दिमाग और तर्क पर ज़ोर दिए मान लेना होगा।

फिर भी क्यों देखी, इस मुद्दे पर सीधे आने के लिए कवि रहीम का एक दोहा पेश है –
कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।
मतलब, बेर और केले के पेड़ों का साथ-साथ होना निभ नहीं सकता। बेर का पेड़ जब मजे में
डोलता है तो उसके काँटों से बगल में सरसब्ज और मासूम, मगर बिना किसी चुभाऊ
हथियार वाले केले के लंबे, सुंदर पत्ते खामखाँ फट जाते हैं।

बचपन में मास्टर जी ने इसे ‘नीति के दोहे’ के तौर पर पढ़ाते हुए प्रेक्टिकल सलाह दी थी
कि बेमतलब दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने वाले बेर जैसे काँटेदार दुष्टों को देखते ही
अपने कलात्मक सुंदर पत्तों को (डरते-सहमते हुए) सिकोड़ लो, बचा लो।

लेकिन अगर पुख्ता लोकतन्त्र का रूपक लें जिसका उपहार हमारे सभ्य-सौम्य-विद्वान पुरखों
ने हमें दिया था, तो बेर अपने काँटों की ताकत से केले को हटा नहीं सकता, चुप नहीं करा
सकता, लहराने से रोक नहीं सकता। दोनों को साथ-साथ, अपने-अपने तरीके से आन-बान-
शान से जीने का हक़ है।

‘जवान’ फिल्म को देखने का मकसद दरअसल अपनी लोकतन्त्र की बहुरंगी बगिया में
पिछले कुछ सालों से तन गए ऐसे ही बेरंग बेरों का प्रतिरोध करना था। यों अपनी परंपरा में
तो बेर भी बहुरंगी है, ‘मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो’ जैसा रूमानी है। उसमें छेड़-छाड़ से रोकने
वाले कांटे हैं तो सब्ज पत्तों वाला दिल भी है, देसी रसीले स्वाद वाला फल भी है। बड़ा
जनमुखी है अपना बेर – वो तो ‘मेवा गरीबों का, तेरे-मेरे नसीबों का’, प्यार-भरा फल है। उससे बगिया को कभी खतरा रहा ही नहीं। यहाँ तक कि, रहीम की स्मृति में भी, बेर अपने
‘रस’ में ‘डोल’ रहा था, लहरा रहा था।

लेकिन इधर नए बनाए जा रहे इतिहास, परंपरा और संस्कृति की तरह आजकल अजीब नए बेर
पनपे हैं – इनमें न सब्ज पत्तों की बहार है, न रस की फुहार। ये तो जड़ से सिरे तक बस
कांटे हैं – तने हुए, इकरंगे, रूखे कांटे। ये डोलेंगे क्या, ये तो बस एकदम फौजी तरीके से
दोनों तरफ झटके से 180 डिग्री घूम जाते हैं – आसपास जो भी कदली-वन हो, चम्पा-चमेली
हो, अमराई हो, नीम-पीपल हो – यानी जो भी सुहानी, कलात्मक, उदार, बहुरंगी विविधता हो,
उसे फाड़ कर रख दें। इसके बाद ये 90 डिग्री पीछे की ओर झटक जाते हैं – इनके प्रेरणा-
स्रोत पीछे की ओर, हर गुजरी, पुरानी दिशा में हैं – पूरी तरह जंग खाए। बाकी 360 डिग्री
के आगे की ओर के 90 डिग्री में इनकी गति नहीं है -वहाँ ये अटक जाते हैं, जाम हो जाते
हैं। अगर आप इनकी जड़ों को देखेंगे (आराम से देख सकेंगे, इनकी जड़ें भारत की बगिया
की मिट्टी में ज्यादा गहरे नहीं गई हैं!) तो वो भी चुड़ैल के पाँवों की तरह उल्टी मिलेंगी।

चलिए, रूपक को पिछले कुछ सालों के चंद हादसों पर ले आते हैं। एक फिल्म आई –
‘पद्मावत’। सिनेमा को परखने के पढे-सुलझे लोगों के बहुरंगी-बहुआयामी मानक रहे हैं। पर
इन बेरों को सुलझी बातों से क्या मतलब! इनके तो तने हुए कांटे इस दौरान खासे मजबूत
हो चुके थे। वे पीछे की ओर 90 डिग्री मुड़े; और फिर 180 डिग्री फैलने की धमकी दी कि
हमारी भावनाएँ (पता नहीं, काँटों में भावनाएँ किस जगह टिकी होती हैं!) आहत हुई हैं, हम
नृत्य को फाड़ देंगे, प्रेम को छेद देंगे। हम सेना हैं, हम कबीला हैं – जो भी सुंदर हो और
हममें बेसुरे, बेरूप, बेपढ़ ,बेप्रेम होने की – फकत कांटा होने की कुंठा पैदा करे, वह चाहे
फिल्म की सुंदर-सलोनी नायिका हो या सहृदय दर्शक – गला काट लेंगे।

हम डर गए। बर्दाश्त कर गए। पर भस्मासुर कांटों को तो पता नहीं किस भगवान का वरदान
मिला था, वह तो सब तरफ आग लगाने को उतारू हो गए। फिर एक फिल्म कलाकार की
आत्महत्या का हादसा हुआ। जिनके दिल था, उन सब को दर्द हुआ। पर अपने काँटा-
भस्मासुरों के पास तो दिल की जगह भी कड़वा पित्त (बाइल) था। वो मनमर्जी लोगों को
धमकाते रहे, परिवारों की, बुजुर्गों की इज्जत से खेलते रहे। इन तालिबान काँटों ने कहा –
(उनकी) संस्कृति को खतरा है, बॉलीवुड को आग लगा देंगे। दादा साहब फाल्के से लेकर पूरी
एक शताब्दी की रंग,रूप, संस्कृति, लय, ताल वाले जीवन के रंगों और धुनों को समझने वाली इंद्रियाँ उनमें कहाँ थीं! उनमें इस दुनिया से जुड़े हजारों-लाखों लोगों की रोटी के सवाल को समझने वाला दिल भी कहाँ था! वे तो महज कांटे थे जो अब भस्मासुर हो रहे थे।
दुर्भाग्य से, इन असुरों पर इनके प्रभुओं के वरदान भी बदस्तूर थे। इसलिए जो कुछ भी
अपनी बहुरंगी बगिया का प्रतिनिधि करता था, जो भी ‘खूंखार मर्दाना’ (‘माचो’ टाइप) या
‘चरणों में पड़ी जनाना’ नहीं थे- उनके निशाने पर थे। जो उनकी सेना, कबीले, मजहब का
नहीं था, वह, उसके परिवार निशाने पर थे। वे सब डरे, बेबस, चुपचाप थे।

अपना शाहरुख भी ऐसा ही एक प्रतीक, एक ‘स्टेटमेंट’ था। ‘अपना’ यानी अपना-सा लगे।
डरावना नहीं, ‘माचो’ भी नहीं – बेपनाह मुहब्बत से भरा, भोला, प्यार में चोटखोर ( यानी
‘वल्नरेबल’) –क-क-किरन वाला, सिमरन के साथ उसके परिवार को भी राजी करने वाला
अपना ‘लवर बॉय’, उम्मीद से भरा ‘स्वदेशी’ इंजीनियर, ‘आई एम नॉट ए टेररिस्ट’ वाला
सच्चा-मासूम खान। बस, एक ही कमी थी। उसमें भयानक दाँत-कांटे नहीं थे।

जब वह और उसके जैसे लोग काँटों के, उनके आकाओं के ‘सॉफ्ट टार्गेट’ बने, हम मजबूर
थे, डरे हुए थे। रूखे तालिबानों के सांस्कृतिक दौर में ‘बॉलीवुड’ की फिल्मों का दीवाला
निकलने लगा, हम डरे थे। हम डरे थे कि कोई सवाल न कर दे कि उदार मुहब्बत की
बगिया खिलाने वाली फिल्म क्यों देखी! हम डरे थे कि कोई पूछ सकता था कि सिनेमा के
क्राफ्ट की नज़र से दो कौड़ी की, लेकिन झूठ और नफरत के धंधे को चमकाने वाली फिल्म
देखने क्यों नहीं गए!

लेकिन कई बार, जादुई-हवाई ही सही, ‘पोइटिक जस्टिस’ हो जाता है। अपना मासूम चोटखोर
दुलारा नायक नए ‘माचो’ रूप में आया – काँटों को उनकी ही भाषा में टक्कर देता – बिकी,
निर्दय, अहंकारी व्यवस्था को रोबिनहुड की तरह चुनौती देता, लेकिन अपनी मुहब्बत के
मोहक अंदाज को बदस्तूर रखता नायक।

लोग जुडते गए, कारवां बनता गया। हर सैकड़ों करोड़ की कमाई के साथ हमारा डर कम
होता गया। विघ्नसंतोषी अप-संस्कृति के कांटे जिस बॉलीवुड के नष्ट होने की घोषणा कर रहे
थे, वह ऐसे उठा, जैसे कि कविवर भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में –‘उठो कि जैसे उठे प्रभु
का हाथ।‘

और बस, हमें लगा कि यह फिल्म तो देखनी ही है। जब अपना मासूम हीरो, अपने ‘माचो’ अवतार में, काँटों को पटक कर कहता है कि मजहब, इलाके, कबीले पर नहीं, सही सवालों पर वोट दो; शिक्षा की, स्वास्थ्य की, रोजी-रोटी की बात करो; और हाँ, बेटे से बदतमीजी करने से पहले ज़रा बाप से तो निपट लो – तो अपन ने भी सीटी बजाई। आस-पास जब अपने प्यारे देश के जवान दोस्तों को इस ‘जवान’ के लिए पूरे ‘स्वैग’ में अपने साथ देखा, वाकई मजा आ गया। और अपना तो ‘पैसा वसूल’ उस नन्ही अदाकारा ने कर दिया जो अपनी सुंदर अकेली मां के लिए प्यारा-सा पापा ढूंढ लेती है – बन्ने गाओ भाई, यही तो संस्कृति चाहिए। और इसी संस्कृति का जो ‘स्वैग’ है, वही तो अपनी संस्कृति का ‘उत्सव’ है, ‘राग’ है।

तो इसलिए हमने फिल्म देखी। भरोसा हुआ कि केले हों, चम्पा-चमेली हो, आम हों – अपने
देश, सिनेमा, साहित्य, कला, विज्ञान और जीवन में – सब महकेंगे, झूमेंगे, रस-भीने होंगे।
रही बात काँटों की, वे रहें पर गुंडई न दिखाएँ। हम तो काँटों से कांटे निकालने के कायल
हैं। तो हमने इस ‘स्टेटमेंट’, यानी बक़ौल दुष्यत कुमार, ‘सल्तनत के नाम’ इस ‘बयान’ पर
दस्तखत कर दिए।

उत्सव के उल्लास में एकदम सरलीकृत लेख हो गया है क्या? चलिए, ‘डिस्क्लेमर’ दे दें।
दरअसल, अपनी जवानी के दिनों में ‘जवान’ जैसी फिल्म के लिए ऐसा पागलपन नहीं होता
था। वो भी क्या तरुणाई थी! जैसे फ्रांस की महान क्रांति के दौर के बारे में वर्ड्सवर्थ ने
लिखा था, “Bliss was it in that dawn to be alive / But to be young was very
heaven!” तब भी अभाव थे, बुराई थी, संघर्ष थे – लेकिन हमारे विजनरी पुरखों ने लोकतन्त्र
की हजारों फूलों की बगिया का जो तोहफा हमें दिया था, वह बगिया तब शबाब पर थी।
बेशक, तब एक ‘इमरजेंसी’ ( जिसकी भी परतों और पक्षों को,आज के हालात के बरक्स
तसल्ली से समझना अभी बाकी है) ऊपर से आई थी। लेकिन आज की तरह डर नहीं था कि
किस गली, किस बिल से जात,इलाका,मजहब,उन्माद, क्रोनी कैपिटलिज्म की ‘इमरजेंसी’ डंक
मार दे। इस बगिया के फूलों की तरह हम अनेकता में एक थे, समग्र देश थे। और इस
लोकतन्त्र के खाद-पानी में, हमारी तरुणाई की निर्बाध समझ के लिए मार्टिन लूथर किंग,
चे, यासर अराफात, पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, फैज़, साहिर, सार्त्र, सिमोन द बुवा से
लेकर पाश, धूमिल, सर्वेश्वर, सत्यजित रॉय, अडूर गोपालकृष्णन, बेनेगल, गुलजार – न जाने
कितने नक्षत्र मौजूद थे। जन-समांतर साहित्य था, सिनेमा था।

और तब आज के रॉबिनहुड ‘जवान’ की तरह, सिनेमा में ‘एंग्री यंगमैन’ अमिताभ बच्चन थे।
वे दिन, आज की तरह, आसन्न खतरे के नहीं थे, हमारे पास विविधता को जीने-समझने का अधिकार था, आकाश था। इसलिए तब के विमर्श में, हम सुकून से समीक्षा करते हुए, ‘एंग्री
यंगमैन’ के कारनामों में व्यवस्था के बदलाव की राह में भटकाव लाने वाला ‘सेफ़्टी वाल्व’
और सरलीकरण मान सकते थे। हम उन फिल्मों को नहीं भी देख सकते थे, देख कर भी
बिना भावुक हुए व्याख्या कर सकते थे। सार्थक सिनेमा के विकल्प थे कि बिमल रॉय की
परंपरा में ऋषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार जैसी फिल्में देख कर मानव मन के अथाह
विस्तार का कोई कोना आलोकित हो जाए; या फिर अदूर गोपालकृष्णन से लेकर श्याम
बेनेगल की परंपरा में, व्यवस्था के षडयंत्रों का कोई पक्ष उजागर हो जाए। हमारे पास ‘दीवार’
और जंजीर’ के सार्थक विकल्प थे। हमारे पास बलराज साहनी थे, ‘गर्म हवा’ थी।
तो ‘डिस्क्लेमर’ ये कि ‘जवान’ इसलिए नहीं देखी कि उसके रोबिनहुड समाधानों में मेरा
विश्वास था। इसलिए देखी कि पिछले कुछ सालों से काँटेदार बेरों ने मेरे फिल्म देखने के
अधिकार को, शाहरुख वाली मुहब्बत को डरा रखा था। मैंने बेरों से आतंकित हुए बिना,
किसी फिल्म, किताब, विचार, खान-पान, जीने के तरीके का आनंद ले सकने के अपने
अधिकार को अंगद के पैर की तरह जमा सकने के लिए, डर से मुक्त होने के लिए यह
फिल्म देखी।

बहुत बुरे वक्त का एक आपदधर्म होता है। अभी तो ‘जवान’ देख कर इस धर्म का पालन
किया है। अपनी तरुणाई जैसे बहुरंगी, सरसब्ज बगिया वाले दिन जब लौटेंगे तो फिर विस्तृत
विमर्श भी करेंगे, ‘जवान’ से आगे भी बढ़ेंगे। अभी तो केले के बगीचे को उद्दंड बेर से बचाना
है।

आखिर उम्मीद के सहारे दुनिया टिकी है। उम्मीद है तो जिंदगी है, जिंदगी रहेगी, तभी सच
भी बचेगा, ईश्वर भी बच सकेगा।

*******

*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

16 COMMENTS

  1. Bahut Khoob !
    Shyam Benegal and alike so many directors ( Film & Stage ) and artists : Male & Female (Film & Stage ) have enriched us for decades. Chalie Chaplin, Utpal Dutta to name the few. Naman🙏

  2. Khoob kaha.
    Is bahurangi mahadesh mein sabki jagah hai. Bani rahni chahiye.
    Pratirodh ka koi bhi kadam sarthak hai.

  3. यह एक फिल्म पर लेख नहीं है, निकट गुजरे इतिहास का व्याख्यान है अपने समय की कठोरता से आँख मिलने की चेष्टा है। यह घटा-टॉप अंधेरे के विरुद्ध दीप जलाया गया है, लड़ने की एक नई समझ पैदा की गई है। मैं ने कमर्शियल सिनेमा के हवाले से ऐसा गहरा मन के अंदर तक उतार जाने वाला लेख पहले कभी पढ़ हो, याद नहीं पड़ता। मैं इस का उर्दू में अनुवाद कर के शेयर करने की अनुमति चाहता हूँ।

    • शुक्रिया, दोस्त। ये तो हम सब का साझा काम है।

  4. Very well explained about the present pseudo nationalism where even the liberal minded people are fearful to stand with honour to follow what they want to follow, in food, clothing, entertainment and their daily lives.. it’s always like Big Boss is watching and you will be punished for your true expression. I relate this situation to ‘ Yeh Wrong number hai’ of PK’s Jaggu.

  5. शुक्रिया, दोस्त। ये तो हम सब का साझा काम है।

  6. बहुत बढ़िया
    ‘ पांव पर लेटी जनाना ‘ जरा खला । ऐसे ‘ मुहावरों ‘ से भी दूर रहना बेहतर ।
    आप के ऑब्ज़र्वेशन और रिएक्शन बिल्कुल सही लगे । विचार गंभीर और शैली मनोरंजक। शायद आप अपनी क्षमता का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। समाज पर मीडिया का असर, या आप की रुचि के किसी विषय पर, आप की किताब पढ़ना चाहूंगा।

    • आपने सही जगह आगाह किया। आगे ध्यान रखूंगा। बाकी आपकी दुआएं सच हों तो हम सभी का भला हो।

    • वैसे मैंने ‘चरणों मे पड़ी जनाना’ लिखा है जो शायद संदर्भ (macho men and docile women के स्टीरियोटाइप्स ) के अनुरूप हैं। फिर भी, बेहतर शब्द रखे जा सकते थे।

  7. भट्ट साहब , जवान की समीक्षा पर चकित हूं। अभिभूत हूं । कैसे तारीफ करूं ये सोचने में दो दिन लगा दिये।
    खान को पसंद करने वालों और नापसंद करने वालों की कमी नहीं है।कुछ को वो छिछोरे लगते हैं।कुछ कहते हैं हकलाते हैं ।कुछ कहते हैं भाग्य के धनी हैं जो इतने लोकप्रिय हैं। इस सब में लोग उनकी अभिनय प्रतिभा की ओर ध्यान ही नहीं देते।वो खुद भी अविश्वसनीय फिल्में बनाते हैं। फिर भी बाक्स आफिस पर खरे उतरते हैं।।अपनी बनाई फिल्म को बुरा कहना उसके फ्लाप होने का श्रेय लेना वही कर सकते हैं।
    आपकी समीक्षा पढ़ते पढ़ते लगा कि सचमुच शाहरुख वो हीरो हैं जो अपनी प्रेमिका को जितना प्यार करते हैं उतना ही सम्मान देते हैं। अपनी हर फिल्म में पारिवारिक मूल्यों के महत्व को स्थापित करते हैं ।
    स्वदेश और चक दे इंडिया उनकी सबसे अच्छी फिल्में हैं।

    • अभिभूत हूँ। आभार। आपका विश्लेषण एकदम सही है।

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