चाय दिवस पर विशेष – एक गरम चाय की प्याली हो

अजीत सिंह*

      यह पचास के दशक की बात है। हमारे गांव में समृद्ध परिवारों के दो घर होते थे। ज़नाना और मर्दाना। ज़नाना हिस्से को ‘घर’ कहते थे और मर्दाना हिस्से को बैठक या नौहरा कहते थे। पुरुष मेहमान या आगंतुक बैठक में ही आते थे। अक्सर  दूध  या लस्सी का एक गिलास देकर उनका स्वागत किया जाता था।
    कुछ सरकारी कर्मचारी व अधिकारी भी बैठक में आकर ही मीटिंग वगैरह करते थे। वे दूध लस्सी की बजाय चाय ज़्यादा पसंद करते थे। मेरे पिता मुझे घर से चाय लाने के लिए कहते थे। मैं मां से चाय बनाने के लिए कहता तो वे उखड़ सी जाती थी।
कहती, कौन सड़े  कालजे वाला आ गया?  दूध नहीं पी सकता क्या?
   असल में मां को अच्छी चाय बनाने का पचास के दशक तक कोई अनुभव नहीं था। उसे नहीं पता था कि ज़्यादा पत्ती डालने से बढ़िया चाय बनती है या चीनी या फिर दूध डालने से। मेहमान को तो दूध ही दिया जाता था। अब ये चाय नई चीज़ चली थी। मैं लुटिया भर अनाज लेकर बनिए की दुकान से चाय पत्ती लाता था। तब तक भी हमारे गाँव में ‘बार्टर सिस्टम’ से भी छोटी-मोटी खरीददारी हो जाती थी।
   चाय चूल्हे पर तैयार होती तो एक कटोरी में डाल कर मुझे दी जाती ‘टेस्ट’ करने के लिए। ये तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि ‘टी-टेस्टर्ज’ तो अच्छा-खासा पैसा कमाते हैं। बहरहाल, उस समय मेरा अच्छी चाय का मानदंड इसका मीठा होना होता था जिसे कुछ मेहमान तो  नाक भौ सिकोड़ कर पीते थे। कोई-कोई तो कह भी देते थे कि ये तो शरबत बना दिया। मैं सोचता था, अगर चाय मीठे के लिए नहीं पी जाती तो फिर काहे के लिए पी जाती है !
   बच्चों को चाय पीने की सख्त मनाही थी। चाय अक्सर बीमार आदमी को दी जाती थी, बुखार उतारने के लिए।
   मेरे मामा के गांव में चाय का चलन हमसे पहले हो चुका था। जब वे हमारे घर आते और चाय की मांग करते तो मेरे पिता उन्हें नशेड़ी कह कर छेड्ते। वे मुस्कराते हुए चाय की चुस्की लेते रहते।
   पचास के दशक में निकटवर्ती गांव कैमला में पढ़ाई के दौरान स्कूल के पास एक पंडित जी ने चाय दूध की दुकान खोली तो हम ऑर्डर करते थे पंडित जी पाव दूध में पत्ती। दूध पत्ती पी कर चलने लगते तो पंडित जी कहते, कप धो कर जाओ। हम ना नुकर करते या इधर उधर देखने लगते तो पंडित जी कहते, क्यों, पंडित से अपने झूठे कप मंजवाओगे? हमें मांजने पड़ते। शीघ्र ही एक नाई ने चाय की दुकान खोल ली। वह कप खुद ही धो लेता था। हम सब वहां चाय पीने लगे। पंडित जी ने कप धोने के लिए एक लड़का रखा पर बाद में उनकी दुकान बंद हो गई।
   दसवीं की पढ़ाई करने पानीपत पहुंचे तो हमने कुल्हड़ चाय और दूध का स्वाद चखा मिट्टी की भीनी भीनी सी सुगंध के साथ।
  सत्तर के दशक में शिमला में नौकरी लगी तो वहां कॉफी का ज़्यादा चलन था और या फिर दफ्तर में ग्रीन टी पीते थे।
   अस्सी के दशक में जम्मू यूनिवर्सिटी के एक सेमिनार में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एस सी दुबे का भाषण सुनने को मिला। वे कह रहे थे चाय के प्रचलन के बारे में जानना हो तो तीस के दशक के अखबार देखिए जहां चाय को लेकर भरपूर बहस मिलेगी। उत्तर भारत में आर्य समाज चाय का विरोध कर रहा था। चाय पीनी चाहिए या नहीं, इस पर तर्क वितर्क दिए जा रहे थे। चलिए बीमार या बुजुर्गों के लिए सुस्ती तोड़ने के लिए चाय ली जा सकती है, पर क्या महिलाओं को चाय पीनी चाहिए? उनका गोरापन बिगड़ जाएगा क्या? क्या बच्चों को चाय पीनी चाहिए? दूध के बिना उनकी सेहत बिगड़ नहीं जाएगी क्या?
   जम्मू कश्मीर में लगभग दो दशक की नौकरी के दौरान हमने लेमन टी, लूण चाय, कश्मीरी केसर केहवा और लद्दाख की गुड़गुड़ चाय का स्वाद चखा। सर्दियों में स्टील के गिलास में चाय पीते थे। चाय पीने में ही नहीं, चाय पकड़ने में भी मज़ा आना चाहिए था।
   नब्बे के दशक के अंतिम वर्षों में दिल्ली आए तो हमें ढक्कन चाय पीने को मिली। छोटे छोटे पेपर कप में थोड़ी सी तेज़ पत्ती की चाय बस सामाजिकता के नाते पीनी या पिलानी पड़ती थी।

वर्तमान सदी के पहले दशक में रिटायर होने से पहले गृह राज्य हरियाणा के हिसार में आए तो यहां मसाला चाय का चस्का लग गया। पर यहां पर ऐसे भी कुछ लोग मिले जो कहते थे उन्होंने जीवन में कभी चाय नहीं पी। उन्हें नहीं पता कि चाय का स्वाद कैसा होता है। शायद आर्य समाज का प्रभाव कुछ-कुछ चल रहा है।
   पिछले सवा साल से हमने चाय का एक नया ही रूप देखा है। इसे काढ़ा कहते हैं। हमारी धर्मपत्नी सुमित्राजी इसमें तुलसी, गिलोय, अदरक, दालचीनी और न जाने क्या-क्या मिलाकर पिला रही हैं।
   साथ प्यार से डांट भी पिला देती हैं, इसी से बचे हुए हो, वरना कोरोना रगड़ देता।
   कोरोना से बचने के लिए तो हम कुछ भी गटकने को तैयार हैं। बस इस समय इस गाने की याद आ रही है जो हर दिल जो प्यार करेगा फिल्म से है।

एक गरम चाय की प्याली हो,
  कोई उसको पिलाने वाली हो।
चाहे गोरी हो या काली हो,
सीने से लगाने वाली हो

तो मित्रो, आज आपसे मिलकर नहीं, घर में रहकर ही चाय दिवस मनाएंगे। मौसम बादलवाही का है, श्रीमती जी ने पकौड़े भी बना दिए हैं। आप के साथ चाय फिर कभी, ज़रूर। दुआ है कि जल्दी ही ऐसा हो सके।
   हैप्पी इंटरनेशनल टी डे!

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*अजीत सिंह दूरदर्शन से सेवानिवृत्त निदेशक हैं। संपर्क: [email protected]

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1 COMMENT

  1. बहुत बढ़िया तरीके से इस भू-भाग में चाय के प्रचलन की कहानी बयां की है. अच्छी चाय का मज़ा आ गया!

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