सनातन वामपंथ – कैसे भिन्न है यूरोप के वामपंथ से

सिद्धार्थ जगन्‍नाथ जोशी*

समाज और राज्य – ये दो तंत्र ऐसे हैं जो प्रकृति के विरुद्ध सर्वाधिक अराजकता पैदा करते हैं। सुनने में अटपटा लगेगा, लेकिन सबसे सफल अराजक तंत्र ही संरक्षित रह पाता है। हर अराजक तंत्र की तरह समाज और राज्य में भी अंतर्विरोध हमेशा रहा है और रहेगा। एक पक्ष दक्षिणमूर्ति बनकर व्‍यवस्‍था को संभालेगा तो स्थापित तंत्र की खामियों से असंतुष्ट वाम मार्ग पर चल निकलेंगे। कार्ल मार्क्‍स के वर्ग संघर्ष आधारित वामपंथ से सैकड़ों या कहें हजारों साल पहले वामपंथ का सटीक उदाहरण विश्‍वामित्र ने पेश किया और समानान्तर सृष्टि की रचना करते हुए समानान्तर स्वर्ग तक बढ़ने लगे थे। त्रिशंकु भले ही हास्य का विषय बन चुका हो, लेकिन अंततः सशरीर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर चुके साधक का शक्तिशाली रूपक है। इसी के साथ भारतीय जनमानस मेँ आज तक सनातन वाम की वे जड़ें हरी हैं। यह हमें बोध कराता है कि वामपंथ केवल वर्ग आधारित संघर्ष नहीं बल्कि समानान्तर सृष्टि का सूत्र है।

विश्‍वामित्र का वामपंथ आज की तरह नकात्‍मक और विध्वंसात्मक न होकर सकारात्मक और सृजनात्मक था। उनकी लड़ाई सीधे-सीधे देवताओं के पुरोहित ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के साथ थी। ऐसे में वशिष्ठ के पास कामधेनु थी, तो विश्‍वामित्र ने भैंस को विकल्प के रूप में पेश किया। देवताओं ने सूर्य को विष्‍णुरूप में स्थापित किया और पालनकर्ता के रूप में पूजन किया तो विश्‍वामित्र ने सफल मंत्रदृष्‍टा के रूप में सविता आराधना के लिए गायत्री मंत्र दिया। अपने योग बल से विश्‍वामित्र ने इक्ष्‍वाकु वंश के राजा त्रिशंकु की इच्छा पूरी करने के लिए स्वर्ग और धरती के बीच एक और स्वर्ग तथा एक और सप्तऋषि मण्डल बना दिया। इंद्र के स्वर्ग को देवताओं के लिए छोड़ दिया और नई सृष्टि बनाई।

जैसा कि सनातन मान्‍यता में सदैव होता रहा है, विश्‍वबंधुत्‍व या कहें यूनिवर्सल ब्रदरहुड वाली परंपरा वाले वामपंथियों को अंतत: विश्‍वामित्र के रूप में महत्‍वपूर्ण ऋषियों में शामिल किया गया और उनके द्वारा बनाई गई ऋचाओं को ऋग्‍वेद तक में शामिल किया गया।

सनातन मान्‍यता के अनुसार स्थापित तंत्र को चुनौती देना न कभी गलत था, न गलत है और न हो सकता है। अगर चुनौती अंतत: तंत्र को पुष्ट ही करती है तो उसे मुख्‍य-धारा में ही शामिल कर लिया जाता है। सनातन का संगीत इसी ऑर्केस्‍ट्रा के साथ लगातार आगे बढ़ता रहा है। रुद्रअष्‍टाध्‍यायी को वेदों में रुद्र साधना में से लिया गया है, उसी अष्‍टाध्‍यायी के साथ शिव आराधना सदैव शिव ताण्‍डव स्रोत के साथ पूर्ण होती है, जिसे राक्षसों के राजा ने बनाया है।

देवताओं की साधना को मोटे तौर पर बांटे तो तीन प्रकार प्राप्त होते हैं, वैष्णव, शैव और शाक्त, इन तीनों ही रूपों के अपने-अपने विशद तंत्र हैं, और तीनों ही तंत्र के अपने वाम मार्ग भी हैं।

जैसा कि हम देखते हैं कि उपरोक्त सभी साधन एक विशिष्ट अवस्था के बाद ही प्राप्त होते हैं, लेकिन लोक यानी आमजन में इसका सीधा प्रभाव नहीं दिखाई देता है, लोक की अपनी विधियां रही हैं। हर किसी के पास इतना सामर्थ्य और साधन नहीं होता कि वह शास्‍त्रोक्‍त विधि से साधना कर ले, ऐसे में कालांतर में करीब हज़ार साल पहले संस्‍कृत के क्लिष्‍ट तंत्र के बीच देवताओं से अपना काम करवाने के लिए तंत्र में भी वाममार्ग ने अपना महत्‍वपूर्ण स्‍थान बनाया। उनकी विधियां वेदोक्‍त नहीं थी, लेकिन परिणामदायक थीं, सो उन्‍होंने अपना समानान्तर मार्ग सदैव बनाए रखा। इसे शाबर तंत्र के रूप में पहचाना गया। जिसमें देवताओं को वैदिक संस्‍कृत के मंत्रों से नहीं, बल्कि आम बोलचाल की भाषा में अपना बनाकर प्रेम से, आन से, कसम देकर काम करवाया जाता रहा है। देश के बहुत से क्षेत्रों में आज भी शाबर तंत्र का अपना साम्राज्‍य है, वैदिक संस्‍कृत के स्‍थापित तंत्र के बीच यह एक विशिष्‍ट परिवर्तन है जो वाम है और स्‍थाई है।

पश्चिमी आक्रांताओं के साथ आए विदेशी वामपंथ ने भारत में पहले से स्‍थापित दक्षिण और वाम के खूबसूरत तंत्र को न केवल बुरी तरह प्रभावित किया, बल्कि वामपंथ की मूल भाव यानी समानान्तर तंत्र, समानान्तर स्वर्ग या कहें समानान्तर सृजनात्‍मकता को समाप्त कर केवल स्‍थापित तंत्र के विरोध के कोने में जबरन खड़ा कर दिया है, जहां सृजन की संभावना न्यूनतम हैं।

वर्ग संघर्ष आधारित वामपंथ भारत के लिए सदैव मूल्यहीन ही था। इसके कई कारण हैं। एक अंग्रेज वाणिज्य विशेषज्ञ जेबेज़ संडरलैंड ने 1928 में एक पुस्तक लिखी India In Bondage  जिसमें बताया गया था कि 1928 से पहले भारत की कुल जीडीपी विश्‍व की कुल जीडीपी की 24 प्रतिशत थी। यह आकार कितना बड़ा था, इसका अनुमान इस प्रकार लगा सकते हैं कि अभी अमरीका की जीडीपी विश्‍व की कुल जीडीपी की 15 प्रतिशत के आस पास है। गौर करने वाली बात यह भी है कि तब तक ईस्‍ट इंडिया कंपनी को तांडव करते हुए 100 साल से अधिक समय हो चुका था और भारत 1901 में छप्‍पनिया अकाल (विक्रम संवत् 1956 के अकाल) को झेल चुका था, इसके बाद भी भारत इतना सक्षम था।

ऐसे देश में जहां अन्‍न आसानी से उगता हो और समृद्धि गलियों में बिखरी पड़ी हो, दक्षता हर द्वार पर खड़ी रहती हो, वहां वर्ग संघर्ष जैसे आधार पर वामपंथ की इमारत खड़ी करना पूरी तरह अव्यावहारिक था। जिस यूरोप से यह विचार आयात हुआ था, वहां भारत की लूट से पैदा हुई औद्योगिक क्रांति से स्‍पष्‍ट रूप से दो वर्ग बन गए थे, उनमें संघर्ष होना स्‍वाभाविक था, लेकिन भारत खुद कभी अपनी जड़ों में वर्ग संघर्ष पर आधारित नहीं था। यही कारण रहा कि भारत में कार्ल मार्क्‍स वाला वामपंथ कभी भी व्यापक समाज में अपनी स्‍वीकार्यता नहीं बना पाया।

इससे यह निष्कर्ष कतई नहीं लगाना चाहिए कि भारत में इसी के साथ वामपंथ समाप्त हो जाएगा और ना वह कोई वांछित स्थिति ही होगी क्योंकि अराजक तंत्र वाले समाज और राज्य कभी वामपंथ से मुक्त नहीं हो सकते, लेकिन भारत की बढ़ती समृद्धि के बाद हम एक भिन्न वामपंथ को देख पाएंगे, जिसमें दक्षिण सृजन करेगा और वाम समानान्तर सृजन करेगा।


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सिद्धार्थ जगन्‍नाथ जोशी बीकानेर में रहते हैं और कई वर्ष पत्रकारिता करने के बाद आजकल अपने पहले प्यार ज्योतिष से जुड़े हुए हैं। वैबसाइट का लिंक ये है: https://theastrologyonline.com


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