सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी*
यह लेख विशेष आग्रह के साथ मंगाया गया है कि हमारे अध्यात्म के कॉलम में धर्म और राजनीति के प्रश्न पर दक्षिणपंथी मत भी आ सके। हालांकि लेखक ने वर्णाश्रम को जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म और संस्कारों के आधार पर बताकर हिन्दू धर्म में हमेशा चलने वाली प्रगतिशील धारा का ही प्रतिनिधित्व किया है।
सभ्यता का सबसे पुराना पेशा कृषि को मान सकते हैं, और भी कोई हो तो मुझे चिंता नहीं, मैं अपनी थ्योरी को स्थापित करने के लिए कृषि को सबसे पुराना पेशा मानकर आगे बढ़ता हूं। जब तक मानव एक जगह पर स्थिर नहीं हुआ, तब तक उसमें और जंगली जीवों में अधिक अंतर नहीं था, लेकिन मनुष्य के स्थिर होने ने उस पर कई ज़िम्मेदारियां और कमज़ोरियां लाद दीं। पहला तो जिस जमीन से उपज प्राप्त कर रहा है, उस ज़मीन की सुरक्षा, जिन संसाधनों से उपज प्राप्त कर रहा है, उन संसाधनों की सुरक्षा, जो उपज प्राप्त हो गई है उसकी सुरक्षा! यहीं तक नहीं बल्कि अंत में उस उपज से लाभ प्राप्त हो जाए तो उस लाभ की समाज में स्वीकार्यता स्थापित करने की चिंता क्योंकि कोई भी मनुष्य दो मूलभूत आवश्यकताओं के लिए ज़िंदा रहता है – महत्व और स्पर्श।
इस किसान की उपज संबंधी उपरोक्त प्रक्रिया में तीन और समानान्तर प्रक्रियाएं के साथ-साथ पैदा होती हैं। इन प्रक्रियाओं को हम सुविधा की दृष्टि से तीन सत्ताएं भी कह सकते हैं। जो उपज की रक्षा करता है, वह राज्य बनाकर रक्षा करता है अर्थात वह है राज्य-सत्ता। इसी तरह जो उपज को लाभ में बदलता है, वह अर्थ-सत्ता है और जो उस लाभ को समाज में मान्यता दिलाता है, वह है धर्म-सत्ता।
किसी भी समाज में ये तीनों सत्ताएं समानान्तर चलती हैं। केवल समानान्तर ही नहीं चलती, अन्योन्याश्रित भी रहती हैं – अर्थात एक दूसरे पर निर्भर! इन तीनों सत्ताओं के परस्पर संतुलन का काम भी समाज में निरंतर चलता रहता है लेकिन शायद एक आदर्श संतुलन की खोज हमेशा चलती रहती है। अब किस दौर में किस प्रकार की सत्ता का पलड़ा भारी हो कहा नहीं जा सकता।
भारत कई मामलों में बहुत विशिष्ट क्षेत्र है, यहां उपज आसान है, मानसून पर आधारित है, भौगोलिक दृष्टि से ‘क्लोज़-सर्किट’ बनाता है और विभिन्न क्षेत्रों को उनकी विशिष्टताओं के साथ ही बने रहने देता है। ऐसे में एक शक्तिशाली समाज का उदय होता है। कोई भी समाज गतिमान होता है और उसे परिवर्तन से बचाया नहीं जा सकता। पूरी दुनिया में हर देश में सामाजिक परिवर्तन लगातार हुए, संप्रदाय आते गए, सभ्यताएं अपना रूप बदलती रहीं, लेकिन भारत में कुछ ऐसा हुआ कि वैचारिक क्रांति के धरातल और आर्थिक धरातल अलग-अलग बने रहे और राजनीति ने इसमें उतना ही हस्तक्षेप किया, जितना राज्य को चलाने के लिए आवश्यक रहा। कैसे हुआ यह चमत्कार?
ईसाई संप्रदाय के उद्भव से पहले यहूदी थे, यहूदियों से पहले पैगन थे, ईसाइयों के बाद इस्लाम का अभ्युदय जहां-जहां हुआ, वहाँ उसने सत्ता और अर्थसत्ता को भी बदल दिया। पश्चिम को देखें तो पता चलता है कि रंग, वर्ण, भाषा और इलाकाई सीमाओं ने देशों का निर्माण किया। अगर कोई एक विजेता किसी दूसरे देश को जीत भी लेता तो इन बाधाओं को पार नहीं कर पाने के कारण जीता हुआ राज्य भी उस राजा के मरने के साथ ही फिर से आजाद हो जाता। ऐसे में ईसाइयत ने एक वृहद् छतरी का काम किया। एक बार जिस देश को जीत लिया गया, उसे धर्म की गोल ध्वजा की छांव में ले लिया गया। छतरी बड़ी होती गई। कालांतर में यही प्रयोग इस्लाम में भी हुआ। जीते हुए भूभाग को पूरी तरह संप्रदाय के अधीन लेने के साथ ही इस्लाम का झंडा बुलंद होता गया।
भारत भूमि पर वैदिक ऋचाओं तक पहुंचने तक क्या कोई क्रांति नहीं हुई होगी। ग्रामीण देवता से वैदिक सूत्रों तक के सफर को क्या हम अचानक खड़े हुए स्तंभ के रूप में देख सकते हैं। कतई नहीं – सभ्यता का विकास हमेशा पिरामिड बनाएगा। अगर वेदों को इस पिरामिड का शीर्ष मान लिया जाए तो इसके निचले हिस्सों का क्या हुआ।
तो क्या ऐसा मान लिया जाए कि भारत जैसे उपजाऊ क्षेत्र में कभी वैचारिक क्रांति नहीं हुई। हमारे शास्त्र स्पष्ट बताते हैं कि न केवल भारत सतत रूप से वैचारिक क्रांति से गुजरता रहा, बल्कि प्रस्तर युग से स्वर्ण युग के बीच और ज़मीनी व्यापार से समुद्री व्यापार तक अपने अर्थतंत्र को भी तेजी से बदलता देखता रहा। ऐसे में इसाइयों और मुस्लिमों के आने से पहले किस प्रकार सनातन ने अपने स्वरूप से बचाए रखा।
इसका जवाब स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था में मिलता है। गतिमान समाज तीनों सत्ताओं में प्रभावी बदलाव करता है, लेकिन वर्ण व्यवस्था का अनुशासन उस बदलाव को वहीं तक सीमित कर देता है। आधुनिक भ्रष्ट धारणा यह है कि जो ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ है वह ब्राह्मण है और जो शूद्र वर्ण में पैदा हुआ है वह शूद्र है। जबकि सनातनी शास्त्र ऐसा नहीं कहते, उनके अनुसार जन्मते जायते शूद्र, यानी जो भी पैदा हुआ है, मूल रूप से शूद्र है, बाद में संस्कारों से वह अन्य वर्णों में शामिल होता है।
यह शामिल होने की प्रक्रिया भी बताई गई है। जो ध्यान, पूजा, साधना, पठन, पाठन और शोध करता है, वह ब्राह्मण है, न कि जो ब्राह्मण है, उसे यह करना आवश्यक है। इसी तरह उत्पादन और उत्पादित वस्तु का विक्रय करने वाला वैश्य है, न कि वैश्य को उत्पादन और विक्रय जैसे काम करने हैं। जो रक्षा करता है और रक्षा के संकल्प को निभाता है वह क्षत्रिय है, न कि क्षत्रिय कुल में पैदा हुए व्यक्ति की यह ज़िम्मेदारी है। सनातन ने गुणों के आधार पर व्यक्तियों का वर्गीकरण किया, लेकिन कालांतर में गलत धारणाओं के चलते जन्म से वर्ण को जबरन जोड़कर उसे स्थिर कर दिया गया।
कर्म या संस्कार के आधार पर हुए वर्गीकरण ने ही धर्म, अर्थ और राज सत्ता को न केवल ठीक प्रकार परिभाषित किया, बल्कि उन्हें एक दूसरे के साथ रहते हुए भी अछूता रखा। तीनों सत्ताओं के शीर्ष पर अपने क्षेत्र के श्रेष्ठतम लोग मौजूद थे, ऐसे में किसी एक व्यक्ति द्वारा तीनों को चुनौती देना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं था। ऐसे में तीनों सत्ताएं समानान्तर चलती रहीं।
वेदों की व्याख्या करते हुए भी आम लोगों में कई प्रकार के धार्मिक विचार रहे, शैव अलग, वैष्णव अलग और शाक्त अलग। दर्शन के स्तर पर चार्वाक, जैन, बौद्ध, मीमांसक, अद्वैत विशिष्टाद्वैत और अनीश्वरवादी सांख्य और बाद में नाथ संप्रदाय के लोग भी साथ-साथ रहे, क्योंकि अर्थ और राज को संभालने वाले लोग अलग थे, विचारधारा वाले लोग अलग। शंकराचार्य ने दक्षिण के समुद्र से लेकर उत्तर के हिमालय तक और सुदूर पूर्व से लेकर पश्चिमी घाट तक अद्वैत को स्थापित किया और बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंका, लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं भी राज सत्ता और अर्थ सत्ता प्रभावित नहीं हुई।
दूसरी ओर अर्थ की सत्ता को संभालने वाले समुद्री किनारों पर अलग वणिक थे, मुख्य भूमि पर अलग और विदेशी व्यापार में लगे बंजारे, ये सभी राजनीतिक और धार्मिक सत्ताओं के समानान्तर अपना व्यापार कर रहे थे। राज सत्ता के बहुत से भाग को हम इतिहास की पुस्तकों में पढ़ते ही रहते हैं, कभी हर्ष, कभी अशोक, कभी मौर्य आते रहे, लेकिन किसी ने धर्म और अर्थ को प्रभावित नहीं किया।
किसी भी शीर्ष पर पहुंचे हुए समाज में जब जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म और संस्कारों के हिसाब से वर्ण का बंटवारा हो और हर वर्ण अपने आप में श्रेष्ठतम रूप में कार्य कर रहा हो, तो धर्म, अर्थ और राज की सत्ताएं एक साथ पूरी क्षमता से बदलाव करते हुए सतत क्रांति को समेटे हुए भी प्रगति कर सकती हैं। यह सनातन का मॉडल हम पीछे छोड़ आएं हैं, अगर कभी समाज फिर से विकसित होकर उस श्रेणी तक पहुंचेगा, तब फिर से ऐसी ही व्यवस्था बन पाएगी, जिसमें अपनी श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ लोगों को अपनी सत्ता में शीर्ष स्थान भी मिलेगा और परिवर्तन भी पुख्ता और व्यापक होंगे।