एक हरसिंगार दो कचनार

सत्येन्द्र प्रकाश*

हरसिंगार आज उदास था। बहुत उदास! कचनार के वे दो पेड़ शायद आज कट जाएँगे। ये दो कचनार उसके साथ ही तो लगाए गए थे। साथ साथ पनपे, बढ़े। साथ साथ पल्लवित पुष्पित होते रहे। लगभग पंद्रह वर्ष हो गए थे साथ रहते हुए। एक दूसरे की आदत सी हो गई थी। इन पंद्रह सालों में कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता जब ये दोनों उसके आँखों से ओझल हुए हों।

इन दोनों की गैर मौजूदगी में हरसिंगार ने अपने वजूद की कल्पना भी नहीं की थी। उन दोनों के नहीं होने की दशा में कैसे रह पाएगा! इसकी कल्पना मात्र से उसका दिल बैठने लगता। पंद्रह वर्ष भी कोई उम्र होती है। हरसिंगार ये जानता था कि कचनार की औसत उम्र हरसिंगार की औसत उम्र के सामने कुछ भी नहीं होती। फिर भी चालीस-पचास साल तो बड़े आराम से निकाल जाता है। फिर पंद्रह वर्षों में ही ऐसा क्या हो गया कि इन्हें काटा जा रहा है।

अभी पिछली होली की ही तो बात है जब सुबह-सुबह बच्चों में होड लगी थी कचनार के फूल तोड़ने की। होली में कचनार के फूलों के पकौड़े काफी शौक से बनते थे। मालपूआ के साथ इन पकौड़ों का विशेष स्थान था। ऐसा लगता था इनके अभाव में बाकी व्यंजनों का स्वाद फीका पड़ जाएगा। पिछली होली भी कचनार के पकौड़ों ने बाकी व्यंजनों का जायका बदस्तूर बढ़ाया था। ये बात भी नहीं थी कि अब इनमें फूल लगने कम हो गए थे बल्कि इनके फूल तो परिवार के बढ़ते आकार की जरूरतें भी ठीक से पूरी करते लग रहे थे। फिर भला इन्हें क्यों कटना था, यही सवाल हरसिंगार को मथ रहा था।

हरसिंगार की स्मृति में वो दिन आज भी उसी तरह जीवंत था। नया-नया घर बना था। पूरा पक्का। नीव से लेकर छत तक। बीस इंच चौड़ी नीव और पंद्रह इंच की ऊपर की दीवारें। पूरी की पूरी सीमेंट की जुड़ाई। गारे चुने की मोटी पिटी छत, साँख की शहतीर पर टिकी। नील मिले चुने से पुती दीवारें, लाल और नीले पायों पर अटका लटका ओसारा(बरामदा)। सफेद पुती छज्जों की पट्टियाँ लाल और नीले रंगों में रंग कर जैसे मन ही मन इतरा रहीं हों।

हरसिंगार सोच रहा था कि कितने जतन से गृह प्रवेश से पहले उसे उन दो कचनारों के साथ लगाया गया था। घर के ओसारा और सड़क के बीच चालीस फुट चौड़ा दुआर (घर के सामने बरामदे और सड़क के बीच की खुली जगह) जो लगभग साठ सत्तर फुट लंबा रहा होगा। दुआर का उपयोग सुबह शाम की बैठकी के लिए होता था। गर्मी के मौसम में रात में खुले में सोने के लिए दुआर पर चारपाइयाँ  बिछ जाती थी। दुआर सामने की सड़क से बिल्कुल लगा हुआ था। हरसिंगार याद कर रहा था उसे उन कचनारों के साथ यूँ लगाया गया था जैसे वे दुआर और सड़क को विभाजित कर रहे हों।

सड़क से गुज़रने वाले लोगों और पशुओं से उनकी सुरक्षा का पुख्ता बंदोबस्त हुआ। बाँस की फटठियों के बाड़ों का घेरा बना कर उन्हें उनके अंदर छुपाया गया था। गृह प्रवेश के दिन आए आगंतुकों के पाँवों से वे सुरक्षित बचे रह जाएँ, यह परिवार वालों के लिए किसी जंग से कम ना था।

शायद उमड़े मेहमानों के पाँवों का खतरा इतना प्रबल था कि उन तीन के अतिरिक्त और किसी को घर की शोभा में शुमार होने का अवसर गृह प्रवेश के पहले नहीं मिला। गुरूर के सुरूर में खोए वे तीनों यही सोचते रहे कि घर की भव्यता में चार चाँद लगाना उन्हीं के  भाग्य में बदा था। पर गृह प्रवेश के बाद जल्द ही ओसारा के दोनों छोर पर बने नवगोल (नव कोनों वाला कमरा) से बिल्कुल चिपक कर ‘मालती’ और ‘रात की रानी खड़े’ हो गए। तब उन्हें गृह प्रवेश के संभावित आगंतुकों के पाँवों से उनकी सुरक्षा का खौफ परिवार वालों के दिल में कितना गहरा था, का अंदाजा हो पाया।

परिवार के शुभेच्छु गर्व महसूस कर रहे थे, इस परिवार से जुड़े होने पर। और करते भी क्यों ना – आखिर उनके किसी करीबी ने ऐसा घर बनवाया था। आकार और आकृति में ये घर उनकी नज़र में किसी छोटे-मोटे महल से कम न था। परिवार के बड़े लोग पूजा-विधि और आगंतुकों की खातिरदारी से बीच-बीच में समय चुरा कर गृह निर्माण में अपनी छोटी-बड़ी भूमिका की चर्चा कर इठला रहे थे। इसी क्रम में नए-नए रोपे गए उन तीनों की तरफ भी कुछ लोगों का ध्यान आकृष्ट हो जाता। अरे भाई, इन बाड़ों में नई नवेली दुल्हन की तरह किसे छुपा के रक्खा गया है। लोगों की कल्पना में आम तौर पर आम के छोटे कद वाले पेड़ या अमरूद आ पाते। उन दिनों घर के आस पास गाँवों में फूल पौधे लगाने का शौक कुछ राजसी माना जाता था। तो हरसिंगार और कचनार तो सोच से परे थे।

उन्हें भी उत्सुकता थी यह जानने की उनका बखान कैसे होता है। बाड़ों में छुपे रहस्य को कुछ रहस्यमयी मुस्कान के साथ घरवाले छुपा जाते। कहीं इनकी प्रशंसा में निकले शब्दों की ही नज़र इन्हें ना लग जाए। आज आखिरी बार थोड़े ही आयें हैं आप लोग, अभी के लिए तो इसे रहस्य ही रहने दीजिए – अगली बार जब आएंगे तो इस रहस्य का पर्दाफाश होगा, कुछ  ऐसा कह कर हरसिंगार और कचनारों की कोई भी चर्चा हो इसे टाल दिया जाता। आते-जाते बाड़ों के अंदर कुछ लोगों ने ताक झाँक भी की। चार पाँच इंच के उन पौधों का कद, पतले तने पर झूलती कुछ हरी पत्तियाँ। ज़ाहिर था कि ताका-झाँकी करने वालों को कुछ खास समझ नहीं आ रहा था।

गृह प्रवेश के बाद समय बीतता जा रहा था। परिवार के बच्चों के खेल कूद और चहल पहल के साथ वे तीनों भी बड़े होने लगे। बच्चों को अच्छी तरह समझा दिया गया था कि बाड़ों के अंदर वाले पौधों का खास ख्याल रखना है। खेल-कूद के जोश में कहीं ये कुचले ना जाएँ। बाड़ों में छुपे-छुपे उन तीनों की उत्सुकता भी बढ़ती जा रही थी। बाहर खेलते हुए बच्चे जालीनुमा बाड़ों के अंदर से कभी-कभी दिख जाते। बाहर की दुनिया पूरी देखने की जल्दी इन तीनों को थी। कुछ ही महीनों में बाड़ों के ऊपर से हुलक हुलक कर वे झाँकने लगे। पूरा घर अब वे ठीक से देख पा रहे थे जिसकी तारीफ गृह प्रवेश में आए मेहमान आपस में कर रहे थे। वो भी हर्षित और पुलकित थे कि अब घर की शोभा बढ़ाने में उनका भी योगदान होगा और अपनी इस भूमिका पर वो भी जैसे गर्वित थे!

उन्हें अब बेचैनी थी शीघ्र अपने फूलों की सुगंध बिखेरने की। और जैसे ही सर्दी के मौसम ने दस्तक दी, हरसिंगार ने सुबह सुबह ओस सिंचित धरा पर अपने नन्हे नन्हे फूलों को बिखेरना शुरू कर दिया। छोटे छोटे सफेद फूलों की एक चादर सी धरती पर बिछ गई। दुआर और सड़क पर बिखरे इन फूलों की खुशबू आस पास की हवा में घुल कर पूरे वातावरण को सुगंधित करने लगी। घर के सदस्यों और सड़क से आते जाते लोगों की नाकों में रच-बस गई ये खुशबू। हरसिंगार के इन छोटे नन्हे फूलों को चुनना इतना आसान नहीं होता और आम तौर पर लोगों के पाँव के नीचे पिस जाना ही इनकी नियति होती है। फिर भी खुशबू से आह्लादित कुछ लोग इन्हें बटोर कर ले जाने लगे। कुछ पूजा अर्चना के लिए तो कुछ मात्र खुशबू के लिए। कचनारों को भी बसंत का इंतज़ार था जब वे अपनी फूलों की छटा बिखेर पाएंगे।

घर के बच्चे गर्मियों में तो घर की छत पर सोते थे। पर नवरात्रों के साथ जैसे ही मीठी ठंड दस्तक देती, बच्चों की चारपाईयां घर के ओसारे में बिछ जातीं। सुबह साढ़े चार पाँच बजे बच्चों को जगा दिया जाता। ऐसे उपदेश उन्हें दिए जाते कि ब्रह्म मुहूर्त में पढ़ी लिखी बातें आसानी से याद हो जातीं। सामने खड़ा हरसिंगार उन बच्चों के मनोभाव पढ़ने समझने की कोशिश करता। मीठी प्यारी नींद से उठे इन बच्चों का दिल पढ़ाई में क्या खाक लगता। रह रह कर नींद के झोंके इन्हें रजाई कंबल में फिर से दुबकने को उकसाते। पर बार-बार नींद से मुँदती आँखों के बीच इनके नाकों को हरसिंगार के फूलों की मोहक खुशबू गुदगुदा जाती और कोई बच्चा ओस से छन कर आती भीनी सुगंध की तारीफ शुरू कर देता। फिर क्या, पढ़ाई गई ताक पर, गप का सिलसिला चल पड़ता। गप के बीच चुहल और ठहाकों का दौर।

ठहाकों का शोर स्वभावतः बगल में लेटे किसी बड़े की डाँट आमंत्रित कर बैठता। डाँट बच्चों के हित में होती। सुबह जग कर पढ़ाई करो। गप में समय क्यों बर्बाद कर रहे हो। पढ़ाने  सिखाने के क्रम में इन बच्चों को ‘भोर का तारा’, ‘शूकवा’ (venus) को दिखा कर उससे परिचय कराया जाता। बच्चों को बड़ों द्वारा ये भी बताया जाता कि यही ‘शूकवा’ अप्रैल में शाम के समय दिखता है। तब इसे ‘शाम का तारा’ कहा जाता।

हरसिंगार ऐसे कई लम्हों का साक्षी था। शरद ऋतु क्या आई हरसिंगार अपनी खुशबू और घर के बच्चों की चहक में खो सा गया। बगल में ही पल बढ़ रहे कचनार के अस्तित्व को दरकिनार कर हरसिंगार उन सुखद पलों को जैसे चुरा लेना चाहता हो। शरद ऋतु तेजी से बीत रही थी। बच्चों की ‘बड़ा दिन’ की छुट्टियाँ आ गई। गाँव से दूर नौकरी कर रहे भाइयों का परिवार भी बच्चों के साथ गाँव आ गया। दुआर जैसे गुलजार हो उठा। दिन भर धमा चौकड़ी। गिल्ली डंडा, छुपन छुपाई, पिट्टू का दौर एक के बाद एक पूरे दिन चलता। खाने पीने की सुध-बुध खो बच्चे इन खेलों में पूरे दिन मस्त हो जाते। हरसिंगार भी इन उछलते कुदते बच्चों को देख अपनी मौज में रहता।

अच्छे पलों को जैसे पंख लगे होते हैं। लगता है पलक झपकते ये आँखों से ओझल हो जाएंगे। ऐसा ही हुआ। छूटियाँ खत्म हुईं । बाहर से आए बच्चे वापस चले गए। दिनचर्या पुराने ढर्रे पर वापस आ गई। यह सोच कर कि होली में बच्चों का जमावड़ा फिर होगा, हरसिंगार स्वयं को दिलासा दे रहा था। होली की अहमियत तो उन कचनारों के लिए खास थी। 

बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा आते ही हवा की ठिठुरन जाती रही। त्वचा को हवा से चुभन की जगह पुलक महसूस होने लगी थी। कचनार को भी पुलकित का रही थी बसंती हवा की पुलक। हरी पत्तियों के बीच गुलाबी फूल झाँकने लगे। हरसिंगार जिसे अपनी फूलों के मोहक सुगंध पर नाज था, कचनार के इन जामुनी गुलाबी फूलों के सौन्दर्य को देख रश्क खा रहा था। शीघ्र ही अपनी ईर्ष्या को भाँप वह सतर्क हुआ। उसे याद आया जब उसकी फूलों की सुगंध में कचनार कैसे मदमस्त रहते थे। फिर कचनार पुष्प के सौन्दर्य से उसमें ईर्ष्या भाव जागना सर्वथा अनुचित है।

देखते देखते होली भी आ गई। पूरा परिवार फिर एक साथ इकट्ठा था। बच्चों की भीड़ नहीं बल्कि बाढ़ आई सी लग रही थी। अवसर पाते ही बच्चे उधम मचाना शुरू कर देते। पर्व त्योहार के मौके पर बड़ों से डाँट भी कम पड़ती थी। बच्चे इसका भरपूर लाभ उठाते। होली के दिन सुबह बच्चों को कचनार के फूलों को इकट्ठा करने का हुक्म आया। मालपूआ के साथ इनके पकौड़े जो बनने थे। ‘मैं बोध’ से मुक्त हरसिंगार ‘मित्र भाव’ से कचनार के पुष्पों की खास कदर देख प्रसन्न हो रहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे ‘सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढइ जोई।।“

होली के दिन गाँव की ‘होरी’/’चौताल’ गाने वाली मंडली हरसिंगार-कचनार के सामने वाले मुख्य दरवाजे पर भी आई। गाने बजाने का दौर चलने लगा। गायन मंडली का स्वागत नारियल गिरी और छुहाड़े के छोटे टुकड़ों और बतासों के साथ किया गया। पूरे गाँव में गायन मंडली को इन्हीं के साथ नवाजा जाता था। शायद अभाव और विपन्नता के उस दौर में ये चीजें सब के पहुँच में थी। होली जैसे बहुत कम त्योहार हैं जो परिवार की परिधि को चीर एक सामुदायिक सरोकार बन जाते। वैसे में ऐसी सोच जो छोटे बड़े का भेद पाटती हो बहुत दूर की सोच लगती है।

हरसिंगार के मानस पटल पर यह व्यवस्था एक गहरी छाप छोड़ गई। गायन मंडली बारी बारी सभी के घर ‘होरी’/’चौताल’ गाती रही। शाम ढलने को आई। पड़ोस के गाँव के मौलवी साहब होली की मुबारकबाद देने आए। वह इस परिवार के पुराने मित्र थे। हर होली मौलवी साहब व्यक्तिगत मुबारकबाद देने के लिए आते थे, तब से जब ये परिवार यहाँ से अलग किसी घर में रहता था। हरसिंगार ने ऐसा सुना था। मौलवी साहब इस परिवार के बच्चों को स्वयं ईद का मेला घुमाते थे और हर होली मुबारकबाद देने स्वयं आते।

इस होली मौलवी साहब को सौगात के तौर पर मालपूआ के साथ कचनार के फूल के पकौड़े भी बाँधें गए थे। पकौड़ों के स्वाद और गुण की खासियत पर परिवार की तरफ से पूरा एक भाषण दिया गया जिसे मौलवी साहब ने पूरी रुचि लेकर ऐसे सुना कचनार के फूलों के इस नायाब इस्तेमाल के बारे में जैसे पहली बार सुन रहे हों। मौलवी साहब इस बरस अपने इस दोस्त परिवार से उनके नए घर में पहली बार होली मिलने आए थे। उनके लिए भी इस साल की होली कुछ खास थी। हरसिंगार कचनार के फूलों की तारीफ़ें होती देख जैसे गर्व से फूला ना समा रहा हो। हरसिंगार और ये दोनों कचनार मौलवी साहब की साइकिल को जाते हुए दूर तक देखते रहे। कचनारों को मौलवी साहब के शीघ्र पुनः आने की तीव्र उत्कंठा थी। उन्हें मौलवी साहब से ये जो सुनना था कि उनके फूलों के पकौड़े कितने स्वादिष्ट थे। पर उन्हें इसके लिए इंतज़ार करना होगा मौलवी साहब पुनः आने का।              

(शेष मौलवी साहब के पुनः आने के बाद …. ) 

*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।

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10 COMMENTS

  1. होली के दिन कचनार का पकौड़ा और मालपुआ का स्वाद आज भी याद है मुझे। वैसा स्वाद दुसरे पकौड़ा में कहां! मौलबी साहब बशीर चचा थे और वो होली के अवसर पर आया करते थे। उसमहल जैसा नए घर में गृह प्रवेश के तुरंत बाद मेरा जन्म हुआ। तुम्हारे लेख पढ़ने के बाद एक बार फिर मन बचपन की यादों में खो जाता है।

  2. अगर उन तीनों बेजुबान हरसिंगार और कचनार में भी जुबां डाल दी जाए तो शायद अपने मनोभाव इतनी खूबसूरती से ना व्यक्त कर पाएंगे। मैं इन्हें किसी व्यक्ति विशेष से नहीं जोड़ रहा हूं। लेकिन बेजुबान किन्तु सजीव पौधों के रूप में तीन में से दो तो मुझे अच्छे से याद हैं।

    वाकई आपकी कलम में जादू है, ये यूँ ही अनवरत चलती रहे 🙏🙏

  3. बहुत ही रोचक। एक बार पढ़ना शुरु करने के बाद रुकने का मन नहीं हुआ। गांव के घरों और समाज का बहुत ही सरस चित्र हरसिंगार के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। मौलवी साहब पुनः जल्दी आयें ताकि हम आगे की कहानी जल्दी पढ़ पायें।

  4. लेखक ने हरसिंगार और कचनार के फूलों के चारों ओर जिस प्रकार से कहानी को गढा वो अत्यंत ही दिलचस्प है। यकीन ही नहीं होता कि फूलों की पृष्टभूमि पर भी इस तरह की कहानी गढ़ी जा सकती है जो आपको अंत तक बांधे रखे तथा आपके बचपन के समय के आनंददायक क्षणों की अत्यंत ही सहजता से याद दिला दे….. लेखक को इस तरह की रोचक और भावपूर्ण कहानी गढ़ने के लिए दिल से साधुवाद… तथा इंतजार रहेगा कहानी के अगले चरण का…

    • कहानी का दूसरा भाग प्रकाशित हो चुका है। आपकी निगाह नहीं पड़ी होगी।

  5. कहानी का दूसरा भाग बहुत ही मर्मस्पर्शी है। संयुक्त परिवारों के विभाजन के दर्द को कचनारों के माध्यम से बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कहानी की ये कुछ पंक्तियां बहुत ही अच्छी लगीं:
    “अक्सर तुलनात्मक प्रशंसा और उलाहना स्वभावगत विकृतियों को जन्म देती है।”
    “अमूमन शुभचिंतकों की सलाह पर ईर्ष्यालुओं की कानाफूसी भारी पड़ने लगती है।”
    “मुक्ति तो स्वत्व की आहुति में निहित होती है पर स्वत्व का तिरोहण इतना आसान कहां?”

  6. हरसिंगार और कचनार के पौधों के माधयम से कहानी संयुक्त परिवार के सामाजिक और आर्थिक संस्कृति का सुंदर चित्रण करती है। लेखक को मेरी शुभेच्छा और बधाई, सादर प्रणाम 🙏🙏

  7. बचपन की यादें ताज़ी हो गयी। पढ़ते वक्त ऐसा लग रहा था मानो मन की दृष्टी से कोई चलचित्र चल रहा है। ये सम्भवतः 60 से 80 के जन्म वाले व्यक्ति ही महसूस कर पाएंगे। आपने न सिर्फ हरसिंगार को जुबान दिया बल्कि कचनार दीवारे मालपुआ होली दशहरा खेत खलिहान सभी मुझे बातचीत करते हुए महसुस हुआ। त्योहारों में बच्चों के भीड़ और शोरगुल में खुद को भी पाने का एहसास आनन्दित करने वाले था। धन्यवाद चाचाजी ये बोलती हुई कहानी साझा करने के लिए। दूसरा भाग का आनंद कुछ पलों में।।।।।।

  8. कहानी की सराहना के लिए शशांक जी और दिनेश जी दोनों का रहे दिल से शुक्रिया

  9. बहुत ही सुंदर रचना। आपने बहुत ही सरल शब्दों में कचनार और हरसिंगार के मनोभाव का सजीव वर्णन किया है।जिस तरह होली का त्योहार का वर्णन किया है अपने गांव की होली याद आ गई ।अब तो शहर में त्योहार के नाम पे सिर्फ दिखावा रह गया है।

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