देवों का उदय : देव-संस्कृति पर मानव दृष्टि

राजेंद्र भट्ट*

समुदायों, राज्यों से लेकर राष्ट्र-राज्यों की लंबी राह को जब हम पुरातात्विक, लिखित तथा वाचिक भाषाई संदर्भों और दस्तावेजों के  वैज्ञानिक  अनुशासन के साथ –  विभिन्न शासकों-राजवंशों और शासन-प्रणालियों के  मील-पत्थरों की क्रोनोलोजी में बांध लेते हैं, तो इतिहास बनता है। लेकिन विभिन्न समुदायों के प्राचीन ग्रन्थों (जैसे वैदिक-पौराणिक साहित्य, महाकाव्य आदि), पीढ़ियों से लोक-जीवन की स्मृति में जुड़ती-घटती-छनती गाथाओं-कथाओं और विविध सभ्यताओं के  आख्यानों के ताने-बाने जब संवेदनशील-मानवीय दृष्टि  से गुजरते हैं, तो मिथकों का जन्म होता है। और जब विविध मिथक, कल्पना और तर्क की  त्रि-आयामीय (थ्री-डाइमेंशनल) अंतर्दृष्टि से देखे जाते हैं तो उनके बीच सिलसिले, अंतर-संबंध नज़र आने लगते हैं; नई कथाएं और आख्यान, उनकी नई परतें  स्पष्ट आकार लेने लगती हैं तो ‘मिथहास’ जन्म लेता है – अतीत के मिथक-मानवों  और समाजों की  बहुरंगी जीवन-यात्रा का वर्तमान की भावनाओं, अनुभवों और जीवन को छूते-चमत्कृत कराते आख्यानों का एक प्रवाहमय विवरण।

देवों का उदय ( लेखक-आलोक अग्रवाल, मयंक अग्रवाल; प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली) अतीत के मिथकों को संवेदनशील अंतर्दृष्टि के साथ एक कालक्रम-युक्त आख्यान में प्रस्तुत करने का श्रमसाध्य प्रयास है। वैदिक-पौराणिक आख्यानों के साथ हित्ती (Hittite) और मित्तानी (Mitanni) साम्राज्यों  के अध्ययनों को जोड़ते हुए, लेखक-बंधुओं ने कथा को एक तार्किक ताने-बाने और कालक्रम में बंधा प्रवाह देने का  प्रयास किया है।

इस किताब पर आगे चर्चा करने से पहले, महाकवि जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति ‘कामायनी’ के एक प्रसंग का जिक्र करना प्रासंगिक लग रहा है। ‘कामायनी’ पौराणिक महाप्रलय के बाद, मानव-समाज के पुरखे मनु के बच जाने और उनसे नई ‘मानव’ सृष्टि के प्रारम्भ की बीज कथा पर आधारित है। प्रलय के उस दौर की समाप्ति के बाद, अहंकार से मुक्त एकाकी मनु निष्कर्ष निकालते हैं –

देव न थे हम, और न ये हैं, सब परिवर्तन के पुतले।

हाँ, कि गर्व रथ में तुरंग से चाहे जो जितना जुत ले।

ऐसे आख्यानों के अनुसार, प्रलय-पूर्व समाज में ‘देवता’ भी इस धरती पर हमारी तरह एक मानवीय समुदाय का हिस्सा थे। मनु प्रलय के विनाश में इस समुदाय के अमरता के ‘गर्व’ के  झूठे पड़ जाने का उल्लेख कर रहे हैं कि ‘देवता’ भी मानवों की तरह मरणशील (परिवर्तन के पुतले) थे, भले ही अहंकार के रथ में जुते घोड़े की तरह कोई कुछ भी भ्रम पाल ले।

आलोक और मयंक की यह पुस्तक देव-संस्कृति की पड़ताल भी  है और मानवों की तरह विचरते ऐसे ही ‘देवों’ (‘सुरों’) का मिथहास है, जिनके  ‘लोक’ इसी  धरती पर थे।  इस आख्यान के अनुसार पश्चिमोत्तर भारत में सरस्वती-तट पर बसे  ‘सुर’-संस्कृति के नायकों और आम जनों का एक जत्था   सुदूर पश्चिम एशिया और कैस्पियन सागर के इलाकों तक गया, वहां बसा और फिर उनकी अगली पीढ़ियां ‘स्वदेश’ लौट  आईं। (इस कथा के अनुसार) ‘सुर’ रक्त-शुद्धि को बहुत महत्व देते थे और आचरण की उच्च कसौटियों को नकारने वाला उनका ही  एक हिस्सा ‘असुर’ बन गया। कहानी में, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र (शिव) को उसी समाज के अत्यंत उदात्त, शक्ति और मेधा-सम्पन्न महामानव बताया गया है, जिनके ‘लोक’  भी ‘सुरों’ के आस-पास ही थे।

इस रोचक गाथा में, हम इन तीन महादेवों के साथ-साथ, मिथक-पौराणिक साहित्य के अनेक सुपरिचित चरित्रों से दो-चार होते हैं, जैसे इन्द्र, शची, मित्र, वरुण, ब्रहस्पति, शुक्र, सोम(चंद्र), अंगिरस, गौतम, अग्नि, भृगु, स्वरभानु (राहु),  हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, प्रह्लाद आदि। ब्रह्मा,विष्णु के स्थल ब्रह्मावर्त  और बैकुंठ भी हैं। समुद्र-मंथन की कथा को एक महत्वपूर्ण समुद्री अभियान की तरह प्रस्तुत किया गया है।

पौराणिक प्रसंगों का यह नव-आख्यान इसलिए हमारे मन को छूता है क्योंकि इन चरित्रों में इकहरी दैविकता नहीं है, बल्कि ये हमारे जैसे अनेक परतों और ‘शेड्स’ वाले मानवीय चरित्र हैं – इनमें हमारी जैसी करुणा, आशा-निराशा, प्रेम, घृणा, काम-भावना, ईर्ष्या, चिंता, महत्वाकांक्षाएं, चतुरताएं और रणनीतियां  हैं। ये अपने वायवीय ‘लोकों’ से उतर कर हमसे संवाद करते हैं, अपने सुख-दुख, संघर्ष बांटते हैं।

लेखक-बंधु : मयंक एवं आलोक अग्रवाल

एक अन्य महत्वपूर्ण बात का उल्लेख करना आवश्यक लग रहा है कि लेखक-द्वय ने पुस्तक में मिथकीय कथाओं में भी समकालीन चिंताओं और सरोकारों को अत्यंत कुशलतापूर्वक पिरोया है। इसका एक अच्छा उदाहरण भृगु ऋषि की पुत्री भार्गवी के परिचय में मिलता है जब नारी स्वातंत्र्य और समाज के वंचित वर्गों जैसे सरोकारों की चिंता कथा में बहुत सहज ढंग से चली आई है। बानगी देखिये – “यह भृगु-पुत्री भार्गवी है।….इसकी रुचियाँ मानव सेवा और सामाजिक विकास कार्य हैं।“ यही प्रसंग जब आगे बढ़ता है तो भार्गवी अपने माता-पिता से बातचीत के क्रम में कहती है – “मुझे लगता है कि वंचित वर्गों के लिए अभी बहुत कार्य शेष है। मुझे उनके लिए कुछ करने में आत्मिक संतोष की प्राप्ति होती है।“…..और इसी क्रम में भार्गवी की यह उद्घोषणा देखिये – “मैं भार्गवी हूँ। मैं अपने निर्णय स्वयं लेती हूँ।“

कथा-प्रवाह  में विवरणों की जो विविधता, चित्रात्मकता और विस्तार है, उससे लगता है कि लेखकों ने अपने स्रोतों का गहरा अध्ययन किया है और घटनाओं का भूगोल भी उनकी दृष्टि में स्पष्ट झिलमिलाता रहा है।  लेखक-बंधुओं ने इस समझ के लिए अपने विद्वान पिता- स्वर्गीय कृष्ण कुमार  को श्रद्धा से स्मरण किया है।  हालांकि, जिन  ग्रन्थों/संदर्भों के आधार पर  विभिन्न कथाओं और कथा-क्रम को विकसित किया गया है, उनकी सूची भी पुस्तक में होती तो सुधी पाठकों और विद्वानों के लिए यह और भी मूल्यवान हो जाती।

ऐसे लेखन की अपनी सावधानियां-सीमाएं भी हैं कि इसमें किसी विचार-धारा/ इतिहास के प्रति पूर्वाग्रह  और सिद्ध करने के प्रयास न हों। इसका उद्देश्य पौराणिक-मिथकीय कथा-प्रसंगों का ऐसी मानवीय अंतर्दृष्टि और तारतम्य के साथ प्रस्तुत करना हो जो मनुष्य के रूप में हमें अधिक उदार, बहुआयामी समझ, करुणा और सौम्यता से संपन्न बनाए।

‘देवों का उदय’ पुस्तक ऐसी ही सद्भावनाओं के उदय में योगदान करती है। इस सुंदर प्रयास का स्वागत है।

पुस्तक के  अंग्रेजी संस्करण The Rise of the Devas को भी प्रभात प्रकाशन ने ही प्रकाशित किया है।

‘देवों का उदय’ को ऑनलाइन खरीदने के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।

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*लंबे समय तक सम्पादन और जन-संचार से जुड़े रहे राजेन्द्र भट्ट अब स्वतंत्र लेखन करते हैं। वह नियमित रूप से इस वेब पत्रिका में लिखते रहे हैं। उनके अनेक लेखों में से कुछ आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

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