अगर रणछोड़ बने राहुल गांधी

आज की बात

राहुल गांधी पिछले हफ्ते भर लंदन में बताए जा रहे थे। आज उनके शपथ लेने की खबर है। हमारी तरफ से वो कहीं भी हों लेकिन चुनाव हारने के बाद उनका जो व्यवहार रहा है वो निराश करने वाला रहा है। इस तरह का व्यवहार ना केवल कॉंग्रेस के लिए हानिकारक है बल्कि एक तरह से ये विपक्ष की पूरी राजनीति को कमज़ोर बना रहा है। राजनीतिज्ञ तो छोड़िए, राहुल तो एक सामान्य ‘स्पोर्ट्समैन’ जैसा आचरण भी नहीं कर पा रहे। यहाँ यह जोड़ा जा सकता है कि चुनाव-प्रचार के दौरान राहुल ने जो जीवट दिखाया था, यह स्तम्भ उसी उम्मीद से लिखा जा रहा है कि उनमें वह जीवट स्वाभाविक तौर पर था और वह चुनाव के दौरान अपनाई जाने वाली कोई ‘मार्केटिंग-टेकनीक’ नहीं थी।

आप उनके साथ उदारता बरतना चाहते हों तो कह सकते हैं कि राहुल को भी छुट्टी लेने का अधिकार है, आखिरकार उन्होंने चुनाव के दौरान बहुत मेहनत की है और फिर उन्हें दूर-दूर तक इस बुरी तरह हारने का अनुमान नहीं था तो उन्हें समय मिलना चाहिए कि वह अपने ढंग से इस निराशा से उबरें। आप कह सकते हैं कि उन्होंने यों भी अपना इस्तीफा सौंप रखा है तो यह उनकी नहीं कॉंग्रेस के बाकी नेताओं की ज़िम्मेवारी है कि वो कांग्रेस को कैसे खड़ा करना चाहते हैं।

लेकिन सच बात ये है कि उपरोक्त तर्क एक आम आदमी के लिए ठीक हो सकता है लेकिन देश के सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता पर अगर ये लागू करेंगे तो फिर हमें मान लेना होगा कि विपक्ष का होना या ना होना बराबर है। अगर ऐसी ही स्थिति सचमुच आ गई है कि विपक्ष औचित्यहीन या महत्वहीन हो गया है तो फिर देश में लोकतन्त्र पर वास्तविक संकट है।

पूरे भारत के स्तर पर यदि कोई विपक्षी नेता प्रधानमंत्री का उन्हीं की शैली में मुक़ाबला कर रहा था तो वह राहुल गांधी ही था और (सम्पूर्ण विपक्ष के बिना चाहे भी) वह एक तरह से पूरे विपक्ष के सबसे बड़े नेता के रूप में देखे जा रहे थे। क्या ये कोई छोटी ज़िम्मेवारी होती है? यह सही है कि राहुल को ये ज़िम्मेवारी औपचारिक तौर पर नहीं मिली थी लेकिन ना सिर्फ ऐसा ना चाहने वाले अन्य विपक्षी नेताओं को इस पूरी स्थिति पर चुप रहना पड़ा बल्कि देश की जनता के एक बड़े नेता ने भी उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखा जो नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने का प्रयास कर रहा है। और फिर उनकी पार्टी को कुल डाले गए मतों को लगभग 20% तो मिला ही है। क्या ये उसके बाद आने वाली विपक्षी पार्टी से बहुत ज़्यादा नहीं है जिसे चार प्रतिशतसे भी कम मत मिले हैं?

ऐसे में राहुल गांधी का इस तरह का व्यवहार करना बहुत ही निराशाजनक है। हम तो यहाँ तक कहेंगे कि इस तरह का व्यवहार तो इससे भी बुरी हार होती तो भी स्वीकार्य नहीं था। उनकी इस्तीफे की पेशकश या उस पर डटे रहना समझ आता है लेकिन इस्तीफा देकर आप अपनी उस ज़िम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकते जो आपको एक लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं के चलते कुछ तो खुद-बखुद मिली है और कुछ आपने स्वीकार की है।

राहुल कॉंग्रेस के अध्यक्ष रहें या ना रहें, ये उनकी मर्ज़ी है लेकिन चुनावों के दौरान जनता के बीच पूरी शिद्दत से जाकर उन्होने अपनी जो जगह बनाई है, उससे वह इस तरह गुस्सा होकर या निराश होकर भाग नहीं सकते। अगर वो ऐसा करेंगे तो हम फिर दोहराते हैं कि ये देश के लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत नहीं होगा और वह भी आजकल की बन चुकी ऐसी विशेष परिस्थितियों में जब एक पार्टी में नहीं बल्कि उस पार्टी में भी केवल दो व्यक्तियों की एक जोड़ी के पास सारी राज्य-शक्ति केन्द्रित हो गई है।

ऐसे संकेत भी आ रहे हैं कि कॉंग्रेस के क्षत्रप राहुल गांधी को देर-सवेर मनाने में कामयाब हो जाएंगे और वह पुनः कॉंग्रेस अध्यक्ष पद की ज़िम्मेवारी सम्हाल लेंगे। हमारा इस पर कोई निजी मत नहीं है। ना ही ये आकलन करने की हमारी क्षमता है कि राहुल के अध्यक्ष रहने या ना रहने में कॉंग्रेस के लिए और पूरे विपक्ष की राजनीति के लिए और इसी तर्क को आगे बढ़ाएँ तो देश में लोकतन्त्र के स्वस्थ विकास के हित में बेहतर स्थिति क्या होगी।

इस संदर्भ में भारतीय राजनीति के अध्येता की हैसियत से हमें सिर्फ ये कहना है कि फिलहाल विपक्ष के नेता के रूप में यदि सम्पूर्ण भारत के स्तर पर कोई चेहरा है तो वो राहुल गांधी का ही है। उन्हें वह भूमिका कम से कम फिलहाल तो निभानी चाहिए – चाहे वह इसे एक पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से निभाएँ और या फिर एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से जो देश-समाज के लिए, उसके गरीबों के लिए, दलितों के लिए और किसानों-मजदूरों के लिए कुछ बदलना चाहता है (जैसा कि वह चुनाव-प्रचार के दौरान अपने भाषणों में अक्सर कहा करते थे)।

वैसे तो राहुल गांधी को हार के अगले दिन ही या बल्कि 23 मई की दोपहर ही अमेठी के लिए निकल जाना चाहिए था लेकिन ऐसा ना हो सका। उन्हें अगर पार्टी अध्यक्ष नहीं रहना तो ना रहें या फिर संगठन पर पकड़ के लिए अध्यक्ष रहना तो रहें लेकिन जो भी निर्णय करें जल्दी करें। देर होने के बावजूद अभी भी सभी कुछ हाथ से नहीं चला गया है और अगर वह और देरी किए बिना अभी भी देश के दौरे पर निकल पड़ें तो यह देश के लोकतन्त्र के लिए एक अच्छी खबर हो सकती है। वैसे वह अपनी यात्रा अमेठी से शुरू करते तो अच्छा था लेकिन लेकिन वायनाड से भी की तो कोई बात नहीं! लेकिन उस यात्रा को आगे तो बढ़ाना चाहिए था ना – वह तो वायनाड से अज्ञातवास में ही चले गए!

कॉंग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से नहीं लेकिन एक ‘पब्लिक-फिगर’ की हैसियत से राहुल गांधी को अपने आचरण-व्यवहार में ज़्यादा ज़िम्मेवारी दिखानी चाहिए। उन्हें देश भर में दूर-दराज़ के इलाकों तक जाना चाहिए। उन्हें गांधी जी के बारे में जानकारी होगी ही कि जब वह साउथ अफ्रीका से वापिस आए थे तो पूरे तीन वर्ष देश-भ्रमण करते रहे थे। तब तक उन्होंने देश की राजनीतिक स्थिति पर या यहाँ तक कि अंग्रेजों के खिलाफ भी कुछ नहीं बोला। लेकिन फिर जब एक बार उन्होने स्थिति समझ ली तो उन्होंने अर्जित अनुभव के बल पर एक ऐसा स्वतन्त्रता संग्राम शुरू किया जिसमें पूरा देश उनके साथ चला और जिसका मेल मानव सभ्यता के पूरे इतिहास में भी ढूँढना मुश्किल होगा।

राजनीतिक आयु के हिसाब से राहुल गांधी की वय अभी बहुत नहीं है। उनके पास सार्वजनिक जीवन के बहुत साल बाकी हैं। उन्हें हिम्मत दिखानी होगी क्योंकि उन्होने अगर इस मौके पर पीठ दिखा दी तो यह भारतीय राजनीति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

हो सकता है कि उन्हें ये चिंता भी हो कि इस हिम्मत दिखाने की कीमत उनके परिवार को चुकानी पड़ सकती है और यह भी हो सकता है कि ऐसी सब आशंकाओं के चलते ही वह इस समय दुविधा से गुज़र रहे हों लेकिन देर-सवेर उन्हें नैराश्य के इस अंधकार को तोड़ना ही होगा। उनके पास इसके अलावा कोई दूसरा सम्मानजनक विकल्प भी तो नहीं।

विद्या भूषण अरोरा

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