राजकेश्वर सिंह*
ज़रा सोचें कि देश के किसी सरकारी कार्यालय में किसी नागरिक की आमद पर क्या सरकारी मुलाज़िम उसके साथ वैसे पेश आता है, जैसा कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जनता के साथ उसके व्यवहार की अपेक्षा की गई है? यह पहला चरण है सरकारी सेवक और आम नागरिक के बीच परस्पर सहयोगी व्यवहार का। चूंकि इस पहले चरण का सकारात्मक उत्तर ही मुश्किल है, लिहाज़ा सरकारी कार्यालयों के अभिलेखों से दस्तावेज़ी जानकारी हासिल करना आसान तो नहीं ही हो सकता। सूचना का अधिकार (आरटीआई) क़ानून देश का पहला ऐसा क्रांतिकारी क़ानून है, जो इस राह को बिल्कुल आसान बनाता है, लेकिन सरकारी सिस्टम की उदासीनता ने इस क़ानून को इतना भोथरा कर रखा है कि वह होकर भी नहीं होने जैसा हो चुका है।
यह सच है कि यह क़ानून भारत के नागरिकों के लिए वह हथियार है, जो उसे देश के किसी और क़ानून से दूर-दूर तक नहीं हासिल हो सकता। सरकार, शासन, प्रशासन में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कामकाज में पारदर्शिता ही एक मात्र तरीक़ा है।
सरकार के कामकाज में जितना खुलापन होगा, सरकार, शासन जनता के उतने ही क़रीब होगा। फिर भी इस क़ानून को बनाने वाले और उसे लागू कराने वाले, दोनों ही बीते 15 वर्षों से इसके प्रभावी अमल से ज़्यादा उसकी कमियों पर बहस छेड़े हुए हैं। उसी उदासीनता का नतीजा है कि केंद्रीय या राज्य जनसूचना अधिकारी नागरिकों को माँगी गई सूचना देने से ज़्यादा न देने के बहाने ढूंढ़ते हैं जबकि आगे की कार्रवाई में प्रथम अपीलीय प्राधिकारी, केंद्रीय व राज्य सूचना आयोग क़ानून के प्रावधानों के तहत कार्रवाई से ज़्यादा शिकायतों व अपीलों को निस्तारित करने में व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। केंद्रीय व राज्य सूचना आयोगों के कामकाज की सटीक समीक्षा से इसकी ज़मीनी सच्चाई का आकलन किया जा सकता है।
सूचना का अधिकार कानून को लेकर सरकारों के रवैये को समझने के लिए लगभग 23 करोड़ आबादी वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर नज़र डालें तो आरटीआई के बदतर अमल को समझ सकते हैं। राज्य सूचना आयोग में राज्य मुख्य सूचना आयुक्त का पद चार महीने से ख़ाली पड़ा है। अब तक की व्यवस्था में मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यकाल पूरा होने और नये राज्य मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति होने तक सरकार किसी राज्य सूचना आयुक्त को कार्यवाहक मुख्य सूचना आयुक्त बना हुआ देती थी। यह इसलिए भी ज़रूरी होता है क्योंकि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के प्रावधानों के मुताबिक़ राज्य मुख्य सूचना आयुक्त ही आयोग का प्रशासनिक मुखिया होता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बार इस व्यवस्था से अलग जाकर किसी कार्यवाहक मुख्य सूचना आयुक्त नहीं बनाया।कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग बीते चार महीने से बिना प्रशासनिक मुखिया के चल रहा है। जबकि रूटीन कामकाज को निपटाने के लिए सरकार ने आयोग के सचिव (जूनियर आईएएस) को अधिकृत कर दिया है।
उत्तर प्रदेश में यह स्थिति तब है , जब राज्य सूचना आयोग के समक्ष वर्तमान में लगभग 46 हज़ार अपीलें व शिकायतें लंबित हैं। आयोग के समक्ष हर महीने औसतन लगभग तीन से साढ़े तीन हज़ार तक अपीलें व शिकायतें आती हैं। सरकार की उदासीनता से ही पूर्व में लगभग ढाई साल तक एक सूचना आयुक्त का पद ख़ाली पड़ा रहा। यूपी में मुख्य सूचना आयुक्त को छोड़कर दस सूचना आयुक्त के पद हैं। पूर्व में ऐसा भी हो चुका है, जब पौने दो साल तक आठ सूचना आयुक्तों के पद ख़ाली पड़े थे।
उत्तर प्रदेश के साथ-साथ अन्य राज्यों और यहाँ तक की केंद्र में भी सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद सूचना आयुक्तों के पद खाली पड़े हैं जबकि लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। आरटीआई एक्टिविस्ट केंद्र और राज्य सरकारों के रवैये से परेशान होकर में सुप्रीम कोर्ट की शरण जाते रहते हैं लेकिन प्रशासनिक ढांचा कोई ना कोई बहाना लगाकर नियुक्तियों से और नियुक्तियों की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने से बचता रहता है।
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आरटीआई को लेकर यह भी गौर करने वाली बात है कि कानून बनने के कुछ वर्षों बाद से ही इसके सकारात्मक पहलुओं से ज्यादा, इसके दुरूपयोग पर बहस छिड़ी हुई है। आरटीआई पर किसी फ़ोरम पर कभी भी चर्चा हो तो इस कानून के दुरूपयोग पर लंबी बहस होती है, जबकि इस कानून के दुरूपयोग का कोई प्रामाणिक डाटा अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। ऐसे में ज़रूरी है कि विभिन्न मंचों पर समय-समय पर आरटीआई पर होने वाले सेमिनार व गोष्ठियों में यह सवाल प्रमुखता से उठना चाहिए कि सूचना का अधिकार की धारा-6 (1) के अंतर्गत सूचना मांगने वाले आवेदक को यदि आवेदन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर सूचना नहीं दी गई या सूचना न देने की स्थिति में उसे उस मियाद के भीतर विधिसम्मत जवाब न देने वाले जनसूचना अधिकारी दंडित किया ही जाना चाहिए ? पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने एक मामले में यह व्यवस्था भी दे रखी है कि यदि जनसूचना अधिकारी तय मियाद में आवेदक को सूचना उपलब्ध कराने में असफल रहता है तो उसे दंडित किया ही जाना चाहिए, लेकिन इस तरह के फ़ैसलों प्राय: उदासीनता देखने को मिलती है।
हमारे देश के सरकारी सिस्टम में पारदर्शिता का प्रश्न शुरू से उपेक्षित रहा है, जबकि पारदर्शिता ही वह हथियार है, जिससे भ्रष्टाचार पर किसी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। हमारी नौकरशाही भी प्राय: सरकारी सूचनाओं को सार्वजनिक करने से ज्यादा उसे छिपाने की पक्षधर रही है। ज़्यादातर नौकरशाह अपने सेवाकाल में लगभग इसी राह पर चलते हैं, लेकिन सूचना आयोगों में मुख्य सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों के पदों पर
नौकरशाहों की भरमार देखी जा सकती है। कई राज्यों में ऐसी नजीरें मिल जायेंगी जब मुख्यसचिव के पद से सेवानिवृत्त होने वाले अफ़सर ही मुख्य सूचना आयुक्त बना दिये गये। ऐसे भी राज्य हैं जहां रिटायर्ड मुख्यसचिव ही मुख्य सूचना आयुक्त होते रहे है। जबकि सूचना आयोगों में नियुक्तियों को लेकर सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 15 (5) में यह प्राविधानित है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त विधि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, समाजसेवा, प्रबंध, पत्रकारिता, जन संपर्क माध्यम या प्रशासन और शासन में व्यापक ज्ञान और अनुभव वाले समाज में प्रख्यात व्यक्ति होंगे।
यह स्थिति एक ऐसे कानून के लिए कतई भी सुखद नहीं है जिसने पिछले डेढ़ दशक में भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए हैं और जिसके कुंद कर दिये जाने के बावजूद आज भी भ्रष्ट लोगों के मन में जिसका कुछ भय तो महसूस किया जा सकता है।

*लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त हैं।
कानून को अप्राभवी बनाने का सरकारी प्रयोग सफल होता दिखाई दे रहा है, आजकल आम आदमी वैसे भी अधिकारों के मामले में निरीह होता जा रहा है।