कौशाम्बी: खंडहर बोलते हैं

भगवान् बुद्ध से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग

मयंक अग्रवाल*

मयंक अग्रवाल की कौशाम्बी यात्रा पर आधारित यह लेख कई मायनों में महत्वपूर्ण है। कौशाम्बी के नाम से हमारे सुधि पाठक परिचित होंगे ही। यह बुद्ध-कालीन भारत का एक बहुत ही समृद्ध शहर था। उस समय की बहुत सारी रोचक घटनाओं को मयंक अपनी अगली पुस्तक के लिए संग्रहीत कर रहे हैं जो शीघ्र ही एक उपन्यास के रूप में हमें उपलब्ध होगी। यह उपन्यास आज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व का भारतीय समाज कैसा था, उस समय लोगों की जीवन-पद्धति कैसी थी, समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी रिश्ते और समीकरण कैसे थे, अर्थव्यवस्था कैसे संचालित होती थी इत्यादि – ऐसे अनेक पहलुओं से पाठकों को अवगत कराएगा।

उत्तर प्रदेश में प्रयागराज से करीब 60 किमी और दिल्ली से करीब 650 किमी दूर एक ऐतिहासिक स्थान है कौशाम्बी। वर्तमान में यह एक छोटा सा कस्बा मात्र है, पर प्राचीनकाल में इसकी गणना भारत के प्रमुख नगरों में होती थी। इसके वैभव की गाथा दूर-दूर तक फ़ैली हुई थी।

हम बात कर रहे हैं लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले की। उस समय भारत में 16 महाजनपद थे, या हम कहें तो 16 प्रमुख राज्य थे। इनमें भी मगध, अवंती, काशी, पांचाल, कुरु, गांधार और वत्स का नाम अधिक प्रमुखता से लिया जाता है। वत्स राज्य की राजधानी थी कौशाम्बी – प्रयागराज में गंगा-यमुना के पवित्र संगम से कुछ पहले यमुना के तट पर स्थित।

वैसे प्रयागराज से मेरा घनिष्ठ रिश्ता रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान 1980 के दशक का एक लंबा काल मेरा इलाहाबाद में ही व्यतीत हुआ था हालांकि  कौशाम्बी जाने का अवसर मुझे कुछ वर्ष पूर्व ही मिला। किसी कार्य से मैं 2018 में इलाहाबाद गया था तो मन में जाने क्यों कौशाम्बी जाने की इच्छा हुई या शायद यह कहना अधिक उचित होगा कि अन्दर कहीं से लग रहा था कि वह नगर मुझे बुला रहा है।

समय के प्रहारों ने इस प्राचीन वैभवशाली नगर को उजाड़ दिया और फिर यह ज़मीन में दब कर विलुप्त हो गया। 1940 और 1950 के दशकों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर जी आर शर्मा के नेतृत्व में यहाँ पर खुदाई कराई गई, और फिर यहाँ के टीलों में दबे मिले ऐतिहासिक नगर कौशाम्बी के भग्नावशेष – प्राचीन भवनों की ईंटों से बनी दीवारों के अवशेष, टूटे-फूटे बर्तन, मुद्राएँ, हथियार आदि।

कौशाम्बी का इतिहास बहुत रूचिकर और समृद्ध रहा है। इस स्थान का वर्णन पुराणों, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य के साथ-साथ संस्कृत साहित्य में बहुत व्यापक तौर पर मिलता है। इसका पांडव वंश के राजाओं से बहुत घनिष्ठ संबंध रहा। पौराणिक कथाओं के अनुसार पांडव वंश के राजा निचक्षु, जो कि परीक्षित से संभवतः छठी पीढ़ी में हुए थे, कुरु राज्य की राजधानी को हस्तिनापुर से कौशाम्बी ले गए। कारण था, पहले बाढ़ और फिर टिड्डी दल के आक्रमण से हस्तिनापुर और आस-पास के क्षेत्र में आई विनाश लीला।

इन पांडववंशी राजाओं के शासन काल में कौशाम्बी का बहुत विकास हुआ और पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले व्यापारिक मार्गों की संधि पर होने के कारण यह नगर बहुत फलने-फूलने लगा। कौशाम्बी की खुदाई में वहाँ के प्राचीन महल और नगर की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर बनाई गई ऊँची विशाल दीवार के अवशेष प्राचीन काल में वहाँ के वैभव और महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। कौशाम्बी की खुदाई में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण अवशेष मिले हैं, घोषिताराम विहार के, जहाँ भगवान बुद्ध अपनी कौशाम्बी यात्रा के दौरान रुका करते थे।

प्राचीन नगर कौशाम्बी की बात वहाँ के सबसे प्रसिद्ध राजा उदयन के बिना अधूरी रह जाती है। उदयन भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के समकालीन थे। जहाँ उदयन की माता मृगावती जैन धर्म की अनुयायी हो गयी थीं, वहीं उदयन पर बुद्ध धर्म का गहरा प्रभाव था। वह समय था जब वैदिक परंपरा के क्लिष्ट अनुष्ठानों से हटकर भगवान् बुद्ध और महावीर स्वामी ने धर्म के नए मार्गों को प्रतिपादित किया था। इन्होंने जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए समतामूलक समाज की संरचना पर जोर दिया था। और यही कारण था कि एक वर्ग के भारी विरोध के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इनके बताये मार्गों का अनुसरण करने लगे।

धर्मों के इन टकरावों के मध्य उदयन ने बहुत कुशलता से अपने राज्य वत्स में सर्वधर्म समभाव बनाए रखा। वैदिक परंपरा का अनुपालन करने वाले उनके राज्य में जहाँ उनकी माता जैन धर्म का अनुसरण करने लगी थीं, वहीं उनकी एक रानी सामावती बुद्ध की अनुयायी हो गयी थीं। उदयन ने राज-काज को इन विवादों से दूर रखा और सभी धर्मों का समान आदर किया।

कौशाम्बी के उत्खनन के दौरान घोषिताराम विहार की खोज ईस्वी पूर्व छटी शताब्दी के इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। घोषित, राजा उदयन के कोषाध्यक्ष और कौशाम्बी के एक प्रमुख व्यापारी थे जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था। दो अन्य प्रमुख व्यापारी कुक्कुट और पवरिका ने भी उसी दौरान बौद्ध धर्म अपनाकर कौशाम्बी में विहारों का निर्माण करवाया था।

मैं जब घोषिताराम में भ्रमण कर रहा था तो मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे वहाँ के खंडहर गौतम बुद्ध के कौशाम्बी में निवास की कहानी मुझे सुना रहे हों। कौशाम्बी की वीथिकाओं में करीब ढाई हज़ार वर्ष पहले अपने शिष्यों के साथ घूमने वाले और वहाँ के लोगों को अपने प्रवचनों से सराबोर करने वाले इस महान संत की कौशाम्बी से जुडी कुछ घटनाएं मेरे मस्तिष्क में उन खंडहरों के मध्य घूमते हुए कौंध गयीं। इनमे से दो प्रेरणादायक घटनाएँ मैं पाठकों से साझा करना चाहूंगा।

राजा उदयन की चार प्रमुख रानियों में से एक थी अनुपमा – सौन्दर्य की बहुत धनी पर विचारों की बहुत कुटिल। कहते हैं कि एक समय अनुपमा के पिता अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव लेकर गौतम बुद्ध के पास पहुँच गए। गौतम बुद्ध तो सांसारिक बंधनों से मुक्त थे और जैसा होना ही था कि उन्होंने इस विवाह प्रस्ताव को कोई महत्त्व ना देते हुए अनुपमा के माता पिता को उपदेश देने प्रारम्भ कर दिए। उसका फल ये हुआ कि अनुपमा के माता पिता तो संसार त्याग कर गौतम बुद्ध के शिष्य बन गए पर अपने रूप के अहंकार में डूबी अनुपमा प्रस्ताव को ठुकराने को अपना अपमान मान बैठी और गौतम बुद्ध से प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगी। बाद में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि अनुपमा का विवाह राजा उदयन से हो गया। उसने ठान लिया कि जब भी गौतम बुद्ध कौशाम्बी आयेंगे वह उन्हें नीचा दिखाकर उनसे बदला लेगी।

कुछ समय बाद गौतम बुद्ध कौशाम्बी प्रवास के लिए आये। बुद्ध को प्रताड़ित करने के उद्देश्य से अनुपमा ने कुछ भाड़े के लोग जुटा लिए। जैसे ही बुद्ध और उनके अनुचरों ने भिक्षाटन हेतु नगर में प्रवेश किया, उद्दंडी लोगों ने उन पर अपशब्दों की बौछार शुरू कर दी और कौशाम्बी से भाग जाने को कहा। जहाँ भी बुद्ध की टोली जाती, ये लोग पीछे-पीछे जाकर अपशब्दों से उन्हें अपमानित करते जाते।

अपने महल की खिड़की से बुद्ध और उनके शिष्यों की यह दुर्दशा देख अनुपमा मन ही मन प्रसन्न होती। किन्तु, संन्यासियों को भी उनके गुरु ने सहिष्णुता की वह दीक्षा दी थी, जो उन्हें किसी भी उकसावे से सर्वथा उदासीन रखती थी।  

कुछ दिनों में बुद्ध के प्रमुख शिष्य, आनंद का धैर्य टूटने लगा। उन्होंने बुद्ध से कौशाम्बी छोड़ कहीं और चलने का आग्रह किया। बुद्ध ने हँसकर उनसे समस्या का सामना करने के लिए कहा और बोले कि अन्यत्र भी तो इस तरह के संकट का सामना करना पड़ सकता है!

आनंद ने एक बार यह कहकर प्रतिकार किया कि संकट इसलिए गहरा है क्योंकि रानी स्वयं इस अभियान के पीछे थीं। इस पर बुद्ध बोले कि शक्तिशाली सत्ताएं सदैव भ्रम के पाश में बंधी होती हैं। इससे डर कर भागना उचित नहीं। बुद्ध बोले, “आनंद, मैं तो समरभूमि में अपनी मस्त गति से झूमते उस गजराज की भाँति हूँ, जो पूर्ण निस्पृह भाव से, तूणीर से निकले वेगवान नुकीले तीरों को सहता हुआ आगे बढ़ता जाता है।”

बुद्ध और उनके अनुयायी निरन्तर उन अपशब्दों के प्रहार को अत्यंत धैर्य और सहनशीलता के साथ सहते रहे। वे दुष्ट अंततः इन बौद्ध भिक्षुकों की सहनशीलता और अदम्य धैर्य भाव से पराजित अनुभव कर इस कुकृत्य से हट गए और सातवें दिन घुटने टेक दिये और अपने लिए पर पछतावा करने लगे। अनुपमा अपनी योजना की विफलता से कड़वा घूँट पी कर रह गयी।

Image by Dean Moriarty from Pixabay

एक अन्य रोचक घटना भगवन बुद्ध के शिष्य आनंद से जुड़ी हुई  है। एक दिन वे राजवाटिका में ध्यान करने बैठ गए। भगवान् बुद्ध की अनुयायी रानी सामावती को जब यह पता चला तो वह अपनी परिचारिकाओं को लेकर उनके पास पहुँच गयी और प्रवचन का अनुरोध किया। आनंद ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। वे सभी महिलाएँ आनंद के अमृत-वचनों में ऐसे ओत-प्रोत हो गयीं कि उन्होंने प्रवचन के बाद अपना बाहरी लम्बा वस्त्र यानि कि राजसी लबादे दक्षिणा में दे दिए।

यह सब जानकार उदयन को घोर विस्मय हुआ और उन्होंने आनंद के पास जाकर पूछने का निर्णय लिया कि वे एक संन्यासी हैं, कोई कपड़ा व्यवसायी नहीं, तो इतने सारे वस्त्रों का क्या करेंगे? बड़े विनम्र भाव से उन्होंने आनंद से पूछा, “आप वस्त्रों के उस ढेर का क्या करेंगे, गुरुदेव!”

“मैं उन्हें उन जनों में बाँट दूंगा, जिनके वस्त्र फट गये हैं।”

“फिर उन फटे वस्त्रों का क्या होगा? वे तो व्यर्थ ही हो जाएंगे।”

“नहीं, राजन। इन फटे वस्त्रों का प्रयोग आवरण या चादर की खोल बनाने में होगा।”

 “फिर उन पुरानी चादरों का क्या होगा? वह तो फेंकने के ही काम आएंगी।”

आनंद मुस्कुराए। “कुछ भी फेंका नहीं जाएगा, राजन! नई चादरों को नीचे बिछाया जाएगा। लोग उस पर बैठकर प्रवचन का आनंद लेंगे। पुरानी चादरों को दरवाजे पर पैर पोंछने के पायदानों के काम में लाया जाएगा।”

थोड़े विराम के बाद आनंद पुनः बोले, “यहाँ  तक कि पायदानों के फटने पर भी, उनके  चिथड़ों को गारे में मिलाकर भवन-निर्माण के काम में लाया जाएगा। कुछ भी व्यर्थ नहीं होता राजन, कुछ भी व्यर्थ नहीं होता! प्रकृति का प्रत्येक कण उपयोगी है।”

उदयन बहुत प्रसन्न हुए। उनके चेहरे पर मुस्कान उभरी। “ये संन्यासी  कितने विवेकशील और बुद्धिमान हैं! कुछ भी व्यर्थ गँवाने नहीं देते।”

उन्होंने आनंद को प्रणाम किया और प्रसन्नतापूर्वक पाँच सौ अतिरिक्त परिधानों की व्यवस्था उनके लिए कर दी।

वत्स राज्य के इतिहास की और भी बहुत सारी रोचक घटनाएँ संस्कृत, बौद्ध और जैन साहित्य में मिलती हैं।

उदयन की सबसे प्रिय थी वत्स की बड़ी रानी वासवदत्ता। कैसे उदयन के प्रेम में डूबी अतीव सुन्दरी वासवदत्ता जो उस समय अवंती के बलशाली राजा चंड प्रद्योत महासेन की पुत्री थी, उदयन के साथ अवंती की राजधानी उज्जयनी से भाग कर कौशाम्बी पहुँची, इस पर साहित्यकारों ने बहुत लिखा है। यह सब भी तब हुआ जब वत्स और अवंती राज्यों में घोर दुश्मनी थी।

********

*मयंक अग्रवाल भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं जिन्होंने अपने लगभग चार दशकों के कार्यकाल में भारत सरकार के कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है। सेवा निवृत्ति से पहले वह दूरदर्शन समाचार के प्रधान महानिदेशक रहे हैं और उन्होंने काफी समय प्रसार भारती के सीईओ का पद भी सम्हाला है। कुछ माह पहले प्रभात प्रकाशन से इनकी पुस्तक ‘देवों का उदय’ आई है जिसे खूब प्रशंसा मिली है। इस पुस्तक के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

इस लेख के सभी चित्र लेखक द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं जो उन्होंने अपनी कौशाम्बी यात्रा के दौरान लिए गए थे।

4 COMMENTS

  1. मयंक जी के साथ सुबह सुबह अपने गौरवमयी अतीत में झांकने का अवसर मिला। अति सुखद अनुभूति रही। सधी हुई भाषा में रची हुई ऐतिहासिक कहानी काफ़ी रुचिकर बन पड़ी है।

  2. कौशाम्बी, गंगा यमुना के मध्य, निचले दोआब क्षेत्र में स्थित एक महाभारत काल के उपरांत जन्मा एक महाजनपद रहा है. सोमदेव ने इसे अपने ग्रन्थ कथासरित्सागर में कुरु सम्राट उदयन की प्रेमकथाओं और युद्ध कौशल के वृतांतों के साथ जीवंत किया है.
    मयंक जी ने हमें इतिहास के उन पन्नों को अपनी सुलभ भाषा में पुनः जीवंत कर दिया है. कौशांबी के अवशेष तत्कालीन समृद्ध भारत की कथा स्वयं बताते हैं.

  3. मिथ और इतिहास को टटोलती मयंक जी की सतर्क वैज्ञानिक दृष्टि में एक अत्यंत रोचक कथा का प्लॉट झलक रहा है। कौशांबी के पालने में सनातन के तीन दर्शन – हिंदू, बौद्ध और जैन के साथ साथ झूलने की आहट गूंज रही है। ऊपर का आलेख उनके प्रकाश्य उपन्यास की अर्गला के साथ – साथ पाठकों के मन की जिज्ञासा की सांकल भी खोल रहा है, जहां पाठक कथा के प्रवाह में कौशांबी की कुल परंपरा की पड़ताल करने को अधीर हो रहे हैं। शुभकामनाएं, इस अधीर मन को यथाशीघ्र शांत करने की।

  4. विवेकानंद त्रिपाठी सीनियर जर्नलिस्ट

    मयंक जी ने “देवो का उदय” के सृजन के बाद फिर चौकाया है। विज्ञान के अध्येता होने के साथ भारतीय इतिहास और पुरातत्व पर गहन गवेशना उनका प्रिय शगल है। वह जिस भी विषय पर लेखनी चलाते हैं अपने प्रवाह में पाठक को बहा ले जाते हैं। कौशांबी को मैने इतिहास में पढ़ा है मगर मयंक जी के लेखन ने कौशांबी के इतिहास पर जो रोशनी डाली है वह सर्वथा नवीन है। वह इतिहास और साहित्य दोनो में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए अनमोल है। मयंक जी के लेखन की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है। लगता है वह शब्दचित्र खींच रहे हैं। कौशांबी पर उन्हें पढ़ते समय लगता है सचमुच उस काल के पत्रों से हम प्रत्यक्ष संवाद कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here