मौलिकता के अग्रदूत कबीर

जयगोपाल*

कबीर मौलिकता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी मौलिकता बेमिसाल है। वे आद्योपान्त मौलिक थे। उनका स्वावलम्बन मौलिक था,  उनका व्यक्तित्व, उनका लिबास – सभी मौलिक था। सिर पर देशी सूत का बना एक टोपा, देशी कते सूत के कपड़े, पैरों में खड़ाऊ उनकी वेशभूषा थी। वे उच्च कोटि के “फक्कड़ फकीर” थे। उनके चेहरे पर जाज्वल्यमान कांति थी। चंचल चपला की सी दमक थी। कमल की सी सुकोमल मुस्कान थी। उनका वाह्य सौन्दर्य इसलिए जीर्ण था, क्योंकि उनका आन्तरिक सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा को छू रहा था। कबीर की आन्तरिक शुचिता बेजोड़ हो गयी थी।

भावों की दृष्टि से कबीर पूरब से पश्चिम तक और उत्तर दक्षिण तक मौलिक थे। एडमन्ड स्पेन्सर अंग्रेजी साहित्य में कवियों के कवि माने जाते हैं। उनकी अमरकृति “फेरी क्वीन से प्रेरणा पाकर कई विद्वान कवि बने। जिनमें शामिल हैं मिल्टन, पोप, बायरन, शैले तथा वडसवर्थ। कबीर भी हिन्दी काव्य में कवियों के कवि हैं। उन्होंने कई कवियों के लिए मौलिक विचारों की पृष्ठभूमि विरासत में छोड़ी है। यहाँ तक कि मध्यकाल के कुछ महान कवियों ने भी कबीर की काव्य परंपरा को आगे बढ़ाया है। उदाहरण के लिए कबीर का निम्न दोहा रहीम ने तनिक हेर-फेर से दोबारा लिखा है:

 एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाई ।

जो तू सीचे मूल को, फूलई फलई अधाई ।।       -कबीर

और रहीम ने इसे इस प्रकार लिखा है :  

एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाई ।

रहिमन सीचे मूल को फूलई फलई अघाई ।।        .-रहीम

 कबीर तथा सूरदास के निम्नलिखित पद में काफी समानता दिखाई पड़ती है:-

 रस गगन गुफा में अजर झरें ।

बिना बाजा झनकार उठे जहं, समुझि परै जब ध्यान घरै।

बिना ताल जह कंवल फुलाने, तेहि चढ़ि हंसा केलि करें।

बिन चन्दा उजियारी दरसै, जंह तहँ हंसा नजर परै।

दसवै द्वार तारी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै ।  -कबीर

अविगत गति कछु कहत न आवै

ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै  

परम स्वाद सब ही सु निरंतर अमित तोष उपजावै

मन बानी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै

रूप रेख-गुन-जाति-जुगति-बिन, निरालम्ब कित धावे ।।   -सूरदास

कबीर की मौलिकता का निम्न पद सबल प्रमाण है, जिसमें तम्बूरे की तुलना मानव शरीर से की गयी है-

 साधो ये तन ठाठ तम्बूरे का।

ऐंठत तार मरोड़त खूंटी,

निकसत राग हजूरे का ।

टूटा तार बिखर गयी खूंटी,

हो गया घूरम घूरे का।

कह कबीर सुनो भाई साधो,

अगम पंथ कोई सूरे का।।

 “अति सर्वत्र वर्जयेत् परन्तु एक कबीर हैं जो सीमा को लांघने में आनन्द का अनुभव करते हैं। जब कोई वस्तु अपनी सीमा लांघ जाती है, तो उसका नश्वर सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और अनश्वर स्वरूप जाग जाता है। विज्ञान में संतृप्त विधि से एक घोल तैयार किया जाता है, जिसको संतृप्त विलयन कहते हैं। इस विलयन को तैयार करने की विधि यह है कि पानी में चीनी डालकर घोलते हैं। तब तक चीनी डाली जाती है, जब तक वह घुलनी बन्द ना हो जाए। फिर इस घोल को बर्नर पर रखकर गर्म करते हैं, ताकि और अधिक चीनी पानी में घुल जाए। परन्तु एक समय स्थिति यह हो जाती है कि चीनी पानी में घुलना कतई बन्द हो जाती है। कबीर ऐसी परम स्थिति को परमत्व की प्राप्ति मानते है।

कबीर ने मानव की इस मनस्थिति को “गूंगे का गुड़ की संज्ञा दी है। गूंगा बोल नहीं सकता है, सुन सकता है, देख सकता है, अनुभव कर सकता है। परन्तु जब गूंगे को आप गुड दिखाएंगे, तो वह गुड़ पाने के लिए कुछ हाव भाव प्रदर्शित करने लगता है। वह मुस्काने लगता है, हंसने लगता है और गुड़ पाने के लिए अपने हाथ को आगे बढ़ाने लगता है। गुड़ खाने के बाद भी वह ऐसे ही हाव- भाव प्रदर्शित करता है। परन्तु बोलकर नहीं बता सकता है। ठीक यही स्थिति एक योगी की होती है, साधु की होती है। जब आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है, तो वह गूंगे की तरह गुड़ का स्वाद तो लेता है। पर कुछ भी कह सकने में अपने आपको असमर्थ पाता है। वह सांसारिक हावभाव से मुक्त हो जाता है।-

 मन मस्त हुआ तब क्यों बोलें

हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।

हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोलें।

 सुरत- कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।

हंसा पाये मानसरोवर, ताल तलैया क्यों ढोले ।

तेरा साहब है घर माही, बाहर नैना क्यों खोले।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिल गये तिल ओले ।।

 शुन्यवाद बौद्ध दर्शन है। बौद्ध दार्शनिक नागसेन की दृष्टि में मूल तत्व शून्य के अतिरिक्त कुछ अन्य नहीं है। शून्य कोई निषेधात्मक वस्तु नहीं है। कबीर भी बौद्ध दर्शन से प्रभावित हैं। शिकागो में विश्व धर्म महासभा में विवेकानन्द ने कहा था। दुनिया में जो है, उस सब की शुरूआत शून्य है। शून्य नीलमणि में विस्फोट से कोटि ब्रह्माड बने। सभी शून्य की लय पर है। उसी (ब्लैकहोल) में समा जाते हैं। शून्य कई लोगों की समझ से परे है। पर कबीर शून्य को सर्वोपरी मानते है। कबीर के “गूंगे का गुड़” का दूसरा नाम शून्य है। इस शून्य का दूसरा नाम सर्वज्ञ है। जैसे ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, सागर की कोई सीमा नही है, आकाश की कोई सीमा नहीं है। ठीक उसी प्रकार शून्य की कोई सीमा नहीं है। शून्य का न आदि है, न अन्त है। शून्य की यह अनन्ता ही कबीर के गूंगे का गुड़ है। गूंगे के इस गुड़ के शहद की मिठास का रसास्वादन फूल में छिपा पारखी भौरा ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब यह मिठास मिलती है, कर्मेन्द्रियां अनुभव शून्य हो जाती है, ज्ञानेन्द्रिया क्रियाशील। इसे ही कबीर का रहस्यवाद कहते हैं:-

 पाणी ही ते हिम गया, हिम हवै गया बिलाई ।

जो कुछ था सोई भया, कछू कहा न जाई । ।

          या

काहे री नलिनी तू कुम्मलानी ।

तेरे ही नाले सरोवर पानी ।।

अथवा

समन्दर लागी आगि, नदियां जलि कोयला भई ।

देखि कबीरा जागि, मछी रूषा चढ़ि गई ।।

 कबीर की भाषा खानाबदोश चरवाहे की है। वे शब्दों के शिल्पी थे। शिल्पकार की भांति उन्होंने अपने काव्य-भवन का निर्माण किया था। उन्होंने शब्दों की एक-एक ईंट को अपनी तीव्र बुद्धि के साहुल-सूत्र से परख कर फिट बैठाया था। यह सही है कबीर ने अपने काव्य-भवन की दीवार के ऊपर व्याकरण रूपी सीमेंट का प्लास्टर नहीं चढ़ाया है और न ही मार्बल घिसाई या पेंट से पुताई की है। फिर भी ईंटों के अन्तराल को उन्होंने भावों के महीन चूने और गारे के मिश्रण से चिपकाया है। कबीर की भाषा के शब्द इमारत की नींव में छिपी  ईंट के समान है, जो इमारत की मजबूती की गारन्टी देती है। कगूरे की ईंट से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है।

जब कबीर की भाषा-हिरनिया के लिए एक स्थान पर चारा समाप्त हो जाता था, तो वे स्थान बदल दिया करते थे। भाषा-हिरनिया भी छलांगे लगाती हुई उनका पीछा किया करती है। उनकी भाषा का काम था, जैसा देश वैसा भेष। यदि कबीर के मार्ग में वाराणसी आ गयी, तो यह भाषा हिरनिया अपने वाराणसी के हिरणों के साथ जा मिलती थी। यदि मार्ग में कुशीनगर पड़ गया, तो कुशीनगर के हिरणों से जा मिलती थी। कबीर भाषा के पिछलग्गू नहीं थे, बल्कि भाषा ही उनकी पिछलग्गू हो गयी थी। यही कबीर की भाषा की बिरलता और विशालता है।

मध्यकालीन युग में सामाजिक विषमताएं अपने चरम पर थीं। उस समय के भक्तिकालीन संतों में अनेक ने जातिगत आसमानताओं के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई। इन संत कवियों में कबीर की आवाज़ सबसे बुलंद आवाज़ों में एक थी जिन्होंने तत्कालीन रूढ़ियों के खिलाफ खूब खुल कर बोला। निर्गुण के उपासक कबीर का मानना था कि ईश्वर की नज़र में ना कोई ऊंचा है और ना नीचा, ना कोई ब्रहमन और ना शूद्र! निर्गुण पंथ का होने के कारण वह मूर्ति पूजा का भी विरोध करते थे और इसी तरह इस्लाम में आई रूढ़ियों के भी विरोधी थे। हिंदुओं और मुस्लिमों की पूजा-पद्धतियों के विरोध में उनके ये दो दोहे तो सभी को याद होंगे – “पाथर पूजे हरी मिलें तो मैं पूजूँ पहार, तांते तो चाकी भली पीस खाये संसार!” इसी तरह का दूसरा दोहा – “कांकड़-पाथर जोरि कै, मस्जिद लेई बनाय – तां चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाए।“ अपनी इस प्रकार की भाषा के कारण कभी-कभी उन्हें भक्तिकालीन युग का सबसे अक्खड़ संत-कवि भी कहा जाता है लेकिन कभी-कभी जब वह अपने निर्गुण ब्रहम की बात करते हैं तो उनकी दीनता का भाव भी देखते ही बनता है। उनके दीन भक्ति भाव का एक उदाहरण-

 कबीर कुता राम को मुतिया मेरा नाऊँ ।

गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ ।।

कबीर के हृदय में कविताएं ऐसी बसी थी जैसे फूल के हृदय में खुशबू बसी रहती है। आप कबीर को चाहे संत के रूप में देखें, कवि के रूप में देखें और या फिर संत-कवि के रूप में – वह अनूठे ही थे। निर्गुण संतों की कड़ी में भी सबसे अलग! मौलिकता की दृष्टि से कबीर हिन्दी साहित्य जगत में टिमटिमाते हुए नक्षत्र नहीं, बल्कि जाज्वल्यमान दिनकर है।

*****

*आजकल जयपुर में रह रहे जय गोपाल भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी रहे हैं। सिविल सर्विसिज़ से 2017 में सेवा निवृत्त होने के उपरांत वह स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन करते हैं और अपने ब्लॉग jaigopal1.blogspot.com पर भी लिखते हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here