अजंता देव की कविताएं – 3

इस वेब-पत्रिका में अजंता देव की कविताओं की यह तीसरी कड़ी है। पहले आप उनकी कविताएं यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं। इस बार की कविताएं कुछ अलग मिजाज़ की हैं लेकिन फिर भी जिन लोगों ने पहले अजंता को पढ़ा है, उन्हें कवि का नाम दिखाये बिना भी ये कविताएं पढ़वाई जाएँ तो शायद उन्हें कवि को पहचानने में ज़रा भी दिक्कत ना हो। बहरहाल आप इन कविताओं का आनंद लीजिये और ज़रूरत लगे तो ऊपर दिये गए लिंक्स पर जाकर पहले की कविताएं भी देखिये।

आहत

वायुमण्डल की सारी परतें
भर गयीं हैं हिंसक ध्वनियों से
प्रार्थनाएँ बुदबुदाई जातीं हैं
पर आर्तनाद चीर देता है अंतरिक्ष को
मंत्र को दबा कर हुंकार फैल जाता है दिशाओं तक
दबोचे जाने पर छूटने की आख़िरी कोशिश की पुकार
धातुओं की किर्र किर्र
गों गों और हिचकियों की असंख्य आवाज़ें
सामूहिक रुदन ,सिर पटकने की लगातार ,
राईफल के बट का खोपड़ी पर वार पर वार
हताश प्रलाप ,वीभत्स अट्टहास
आबादी पर गिरते ही बमों का कर्णभेदी विस्फोट
यह पृथ्वी चोट के निशानों से नीली पड़ गई है ।

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प्रक्षालन

बारिश आगे आ जाती है
धुंधला करती हुई पीछे का दृश्य
नरम रेखाओं में दिखता है क्रूर चेहरा
मिट जाते हैं कुछ भयावह निशान
इस पृथ्वी  को ज़रूरत है मूसलाधार की
लगातार एक सदी तक !

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विसर्जन-1

 बाद मरने के
मेरा नाम भी मिले ग़द्दारों की सूची में
जो दुश्मन के हाथ में हो
और हो उसकी आँखों में
नफ़रत  और ग़ुस्सा मेरे लिए
मेरे सारे नक़ाब बाँट दिए जाएँ
युवा घुड़सवारों को
मेरे तौर तरीके फैल जाएँ दूर तक
बेरंग किताब बन कर
उसके पीछे ख़ाली सफ़े हों
अगले संशोधन के लिए
मेरी दूरबीन घर घर बने कुटीर उद्योग में
मेरे सारे उपकरणों के साँचे पहुंच जाएँ कारखानों तक
मेरे सारे उद्देश्य उजागर हो जाएं
मेरा युद्ध जारी रहे
बाद मेरे मरने के ।

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विसर्जन-2
सब जा चुकी हैं मैदान या घर में
ढलते सूर्य की तिरछी रोशनी में
घाट पर बैठी हैं गिनती की
बची खुची औरतें
ये इतनी अकेली हैं कि जी भर के देख रही हैं मछुआरे का कसरती बदन
देख रही हैं जा चुकी भीड़ के बाद
दुर्गा की प्रतिमा को आहिस्ता डूबते
सबसे बाद में डूबता चेहरा
और अंत में इधर उधर तैरते शस्त्र
ये उठ जाती हैं विसर्जन के घाट से
चिल्ला कर पुकारतीं हैं मल्लाह को “भिड़े भिड़े “
उस पार किराया देती हैं सिक्के गिन कर
मुस्कुरा कर उठा लेतीं हैं अभी अभी पकड़ी ताज़ा मछली
कहतीं हैं अगली पूजा में चुका देंगी दाम ।


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अजन्ता देव हिन्दी कविता जगत की एक सुपरिचित नाम हैं। लगभग चालीस वर्षों से लगातार लिख रहीं हैं । उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – राख का किला, एक नगरवधू की आत्मकथा, घोड़े की आँख में आँसू और बेतरतीब। अभी कविता शृंखलाओं पर काम कर रहीं हैं।

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