काश्मीर – कहीं कोई जल्दबाज़ी तो नहीं हो रही?

आज की बात

आज जम्मू-कश्मीर से संबद्ध संविधान की धारा 370 को रद्द करने का प्रस्ताव पेश करके और साथ ही इस राज्य को दो हिस्सों में बांटकर केंद्र-प्रशासित राज्य बनाने का प्रस्ताव लाकर एनडीए सरकार ने जम्मू-कश्मीर के बारे में लगाए जा रहे अनुमानों में एक ऐसे अनुमान को सच कर दिया जिसके बारे में लग रहा था कि नहीं शायद ऐसा तो नहीं होगा।

इस कदम के समर्थकों को भी शायद इतने बड़े निर्णय की उम्मीद नहीं थी और एक तरह से मोदी सरकार ने अपनी उसी पुरानी हैरान कर देने वाली अदा के साथ इस प्रस्ताव को आज संसद में पेश किया जिस तरह प्रधानमंत्री ने कुछ वर्ष पहले नोटबंदी की घोषणा की थी। यह अलग बात है कि इस बार उन्होंने स्वयं सामने आने की बजाय गृहमंत्री अमित शाह को आगे किया। इस बात के भी संकेत मिल रहे हैं कि नोटबंदी की तरह ही इस निर्णय पर भी ना केवल विपक्ष या कश्मीरियों से कोई विमर्श नहीं हुआ बल्कि सरकार के भीतर भी इस पर कोई चर्चा हुई नहीं लगती।

शायद उसका जवाब ये हो सकता है कि इस तरह के विमर्श की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि भाजपा और उसकी पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ के हर चुनावी घोषणा-पत्र में धारा 370 का ज़िक्र ज़रूर रहता था। सबको मालूम है कि भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है तो ये काम होना ही है।

हमारी पहली प्रतिक्रिया तो ये है कि फिर आप ये काम इतने चुप-चुपाते क्यों करना चाहते हैं? हमें मालूम है कि यदि पहले से विचार-विमर्श की प्रक्रिया चलती तो स्वाभाविक था कि राज्य के कई हिस्सों में खासतौर पर काश्मीर घाटी में हलचल हो जाती और हो सकता है कि उग्र प्रदर्शन भी होते। हो सकता है कि हिंसात्मक वारदातों को रोकने के लिए भी सरकार को पूरी जद्दोजहद करनी पड़ती और हो सकता है कि सरकार को अपना ये इरादा कुछ समय के लिए टालना पड़ता।

लेकिन क्या एक बड़े निर्णय को लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से पूरा करने का प्रयास करना उचित ना होता? जिस राज्य के बारे में आप निर्णय कर रहे हैं, उसी राज्य के दो-दो भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को आप नज़रबंद कर रहे हैं और वो भी ऐसे लोग जिन्होंने कठिन समय में भी चुनावों में हिस्सेदारी करके राज्य में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को मजबूत किया था। इसके अलावा पूरे राज्य में किसी तरह के आपसी विमर्श का कोई रास्ता हम नहीं छोड़ रहे। ऐसे में क्या ये माना जाये कि ये देश के बड़े हिस्से के ‘सामूहिक अहम’ या ‘collective ego’ की तुष्टि के लिए उठाया गया एक कदम है?

यह कदम सही है या नहीं, बिना इस डिबेट में जाये भी इतना तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस निर्णय की प्रक्रिया नैतिक तौर पर तो सही नहीं लग रही।

सिर्फ नैतिक तौर पर ही नहीं, अगर भूतपूर्व गृह एवं वित्त मंत्री पी चिदम्बरम की मानें तो इस बिल को संसद में लाने की पूरी प्रक्रिया ही दोषपूर्ण है। उन्होंने और कुछ अन्य सदस्यों ने ये गहरी चिंता व्यक्त की कि इस तरह की प्रक्रिया अपनाने से देश के संघीय ढांचे पर बहुत नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि ऐसी प्रक्रिया से तो राज्यों की स्थिति बहुत कमज़ोर हो जाती है।

चिदम्बरम ने कहा कि यदि भविष्य में कोई भी केंद्रीय सरकार चाहे तो इसी प्रक्रिया को अपनाकर राज्यों को बिना विश्वास में लिए उनको भंग कर सकती है और उनको केंद्र-शासित प्रदेश बना सकती है। उन्होंने अपने भाषण में एक और बड़ी गलती की ओर इशारा भी किया किन्तु उसका खुलासा ये कह कर नहीं किया कि वो समय आने पर पता चल जाएगी। संभवत: वह कोर्ट में उस गलती का खुलासा करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में तो इस संशोधन को चुनौती दी जानी निश्चित है। यों तो किसी भी केंद्र सरकार के लिए आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट से अपने पक्ष में निर्णय लेना बहुत कठिन नहीं होता लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार को ये सहूलियत कुछ ज़्यादा ही मिल रही लगती है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के लिए भी संसद द्वारा पारित किसी विधेयक को अवैध घोषित करना आसान नहीं होता। ऐसे में इस बात की संभावना कम ही है कि इस निर्णय के विरोधी अदालत से इस निर्णय को निरस्त करा सकेंगे। हाँ, एक संभावना हो सकती है कि अदालत की नज़र में इस संशोधन विधेयक को पारित कराने की प्रक्रिया में यदि कोई स्पष्ट कानूनी त्रुटियाँ हुईं होंगी तो उनमें सुधार करने की हिदायत दे सकती है।

बहुत सारी बातें हैं और तरह तरह की प्रतिक्रियाएँ हैं लेकिन एक बात साफ है कि इस निर्णय से बहुत सारे लोग काफी खुश नज़र आ रहे हैं (और ऐसे लोगों की तादाद बहुमत में लग रही है) लेकिन हमें इतना तो समझ आना ही चाहिए कि ये मामला जल्दी से सुलझने वाला नहीं लग रहा। देखना है कि सरकार कब तक ये बंद जैसी स्थिति बनाए रखती है क्योंकि बहुत लंबे समय तक ऐसा करना शायद व्यवहारिक ना हो। ऐसे में आने वाली स्थिति का अनुमान लगाना कठिन होगा।

हमारी इच्छा और प्रार्थना है कि शासकों को सही निर्णय लेने की क्षमता मिले और कश्मीर जल्द से जल्द सामान्य हालात में पहुंचे ताकि वहाँ के लोग भी आम भारतवासी की तरह अपना जीवन-यापन कर सकें। स्वराज पार्टी के अध्यक्ष योगेन्द्र यादव ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक वक्तव्य याद दिलाया जिसमें वाजपेयी जी ने कहा था कि उनकी कश्मीर नीति के तीन सूत्र हैं : इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत!

मोदी जी और अमित शाह स्वयं तय करें कि क्या उनका ये निर्णय इन पैमानों पर खरा उतर रहा है?

विद्या भूषण अरोरा

9 COMMENTS

  1. अरोरा जी। लगता है जल्दबाज़ी नहीं बड़ी देर हुई ऐसे निर्णय लेने में। दोनों मुख्यमंत्री राज्य की नहीं अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने में लगे रहे। केंद्र ने जो किया वह पर किया गया निर्णय जान पड़ता है। अब घाटी की चुनौतियों क्या है? जिनसे निपटने की कार्य योजना क्या है, यह जानने का समय है।

  2. कश्मीरियत पंडितों के साथ ही समाप्त हो गयी थी। एक सैनिक की दृष्टि से देखें तो ये सही कदम है। जब 370 लागू हुई थी तो पूरे देश में सिर्फ एक नाम था : नेहरू। मई 1954 में जब 35A जोड़ा गया तो संसद को बिना बताए, राष्ट्रपति के आदेश से।
    आज की धारा 370 अलगाववाद को बढ़ावा देने और नेताओं की जेबें भरने के सिवा और कुछ नहीं है।
    जल्दबाज़ी नहीं ये फैसला कम से कम 5 दशक देर से हुआ है।
    जय हिंद

  3. आपका विश्लेषण अपनी जगह सही✔ है। लेकिन आज जो हुआ मुझे अच्छा लगा है।

  4. 70 सालो से भी ज्यादा हो गए है, 370 जो कि temporary थी, ओर आप पूछते है कि कही जल्दी तो नही की,यदि समय रहते हटी ली जाती तो ये दशा और दुर्दशा न होती।

  5. मैंने भी अपने जीवनकाल में केंद्र शाषित प्रदेश से राज्य बनते हुए देखें है जैसे गोया, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश तथा आंशिक रूप से पॉन्डिचेरी एवं दिल्ली। जम्मू कश्मीर का मुद्दा पिछले सत्तर सालों से सुलग रहा था परंतु इतनी जल्दी में तथा गोपनीय तरीके से इस पर निर्णय लेना थोड़ा अटपटा ही लगा। जम्मू कश्मीर पुनर्स्थापना विधयेक 58 पृष्ठ का है। अर्थात बड़े ही गोपनीय तरीक़े से इस पर गहन काम हुए है। परंतु पैर देश आज मोदी सरकार के इस निर्णय के साथ खड़ा दिखाई देता है। मुझे लगता है पुराना नासूर के ईलाज़ करने के लिए कड़े कदमों की आवश्यकता है। देखते है आगे क्या होता है। अमित शाह ने भरोसा दिलाया है कि अगर सब ठीक रहे तो जम्मू एवं कश्मीर पुनः राज्य बन जाएगा।

  6. सटीक त्वरित टिप्पणी के लिए साधुवाद। इसमें कोई शक नहीं कि अनुच्छेद ३७० को हटाने के लिए जिस प्रक्रिया का सहारा लिया गया वह पूरी तरह अनैतिक, अवैध और असांवैधानिक है। मुझे विश्वास है कि अदालत में सरकार को मुंह की खानी पड़ेगी।

  7. I am pained to state that observation are quite correct intellectually but don’t agree that human aspects could have been ignored. The inability of the society to give solution to the issue which has already taken much more than 50000 lives and would continue indefinitely.
    Believe me we need solution of such bleeding issues and not political debate.

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