‘लिट्टी चोखा’ – एक फलसफा

सत्येन्द्र प्रकाश*

हम हैं लिट्टी-चोखा – भारत के एक ‘पिछड़े’ प्रांत के व्यंजन! शुरुआत में ही दो बातों की माफी मांग लेते हैं। पहला, अपने उद्भव के प्रांत को पिछड़ा कहना। दूजा स्वयं को व्यंजन की श्रेणी में शुमार करना। पहले के लिए आरंभ में ही सफाई भी देना चाहेंगे हम। हम दोनों ने साथ मिलकर बहुत सोचा कि अपनी जननी जन्म-भूमि को किस विशेषण से अलंकृत करें! काफी सोच विचार के पश्चात ही इसे ‘पिछड़ा प्रांत’ कहा हमने!

सच कहें तो कुछ और कहने में डर सा लगा। यूं तो हम अपनी जन्म भूमि को गणतंत्र की जननी भी कह सकते थे और इसी तरह बुद्ध और महावीर की ज्ञान स्थली भी उपयुक्त हो सकता था – या फिर विश्व को ‘शून्य’ देने की सामर्थ्य वाली धरा। वही ‘शून्य’ जिसके आकार को पाकर हमारा अस्तित्व है या वो ‘शून्य’ जिसमें ब्रह्मांड समाहित है। ऐसे और बहुतेरे नायाब तोहफे हैं जो इस मिट्टी ने (जहां हम जन्मे हैं) विश्व को दिए हैं।

लेकिन पिछड़ेपन  के अलावा किसी और से अपने को जोड़ने में भय लगा। भय लगा कि पिछले लगभग दो दशकों से चल रहे अथक प्रयास को कहीं झटका ना लगे। अथक प्रयास अपने प्रवास के परिक्षेत्र के लिए ‘पिछड़ा राज्य’ का ‘विशेष दर्जा’ प्राप्त करने के। सच कहें तो हमें  थोड़ा गर्व हुआ। जहाँ ‘आधुनिक’ कहलाने की होड़ मची है, हमने अपनी ‘पुरातनता’ को बड़ी मजबूती से पकड़ रखा है। और पकड़े भी क्यों नहीं?

आखिर हमारा वजूद तो ‘पुरातन’ ही है। ‘आधुनिक’ बनने बनाने की दौड़ में कहीं खुद को ही ना खो बैठें। अगर ‘लिट्टी’ बने रहना है और ‘चोखा’ का साथ संभालना है तो ‘चीज़ बॉल’ और ‘बर्गर’ की शकल और नकल से तो बचना ही होगा। यूं ही नहीं हम लिट्टी बन जाते। उपले और कंडे की आग पर तप कर ये शक्ल पाई है। हमारी पैदाइश की धरती पर लिट्टी पकाई नहीं जाती। इन्हें बड़े जतन से लगाई या बनाई जाती है। इनके साथ ही उपले और कंडे की आग में बैगन सिंकतें है तब जाकर सोंधी लिट्टी को सोंधा-सोंधा चोखा का साथ मिलता है।

गोबर के उपले पर सिंक कर बनने वाली चीज़ भला व्यंजन कैसे कहला सकती है। वो भी देहाती, मोटे तौर तरीके से बन सँवर कर। शकल सूरत भी तो अपनी कोई बहुत आकर्षक नहीं दिखती। गोल मटोल, जले कटे के निशान के साथ। खुद को व्यंजन कह कर संबोधित करना वो दूसरी बात है जिसके लिए हमने शुरू में माफी का जिक्र किया था।

‘व्यंजन’ में शालीनता है। नज़ाकत है। नफासत है। हम ठहरे ठेठ देहाती। तो ‘व्यंजन’ कहलाने की हमारी गुस्ताखी मुआफ़ी को मुखातिब तो होगी ही।

शुरू में मुँह से निकले एक वाक्य का फ़साना बन गया पर इसे गैर-मुनासिब ना समझे। ‘बाल की खाल’ न उधड़े और ‘बात का बतंगड़’ न बने, इसके लिए यह ज़रूरी था। पर बात तो हमें अपनी ही करनी थी। लिट्टी और चोखा की। तो चलिए फिर वापस आ जाते हैं अपनी कहानी पर।

कहें जो भी, हमारा उद्भव स्थल परिचय का मोहताज नहीं है। चाहे इसे गणतंत्र की जननी कहे या ‘विशेष दर्जे का पिछड़ा प्रांत’। है तो ये चिर परिचित। इस धरा पर हमारा प्राकट्य भले ही गणतंत्र के प्राकट्य या बुद्ध-महावीर के ज्ञान प्राप्ति जितनी चर्चित ना हो, पर है ये भी ‘क्रांतिकारी’। भोज्य पदार्थों का रसोई की चहारदीवारी लांघने की हिमाकत हो या इनका महिलाओं के चंगुल से छूटने का कयास, या फिर पुरुषों की ‘महिला मुक्ति’ की दिशा में सायास उठाया कदम या महिलाओं की पुरुषों से खाना पकवाने की साज़िश। रहा जो भी हो, परिणाम एक समान!

‘लिट्टी’ और ‘चोखा’ बनने की चर्चा मात्र से उत्सव का माहौल बन जाता। आटा, चने का सतू, बैंगन इन सबकी चहलकदमी बढ़ जाती। रसोई भंडार से बाहर खुली हवा में साँस लेने का अवसर जो मिल रहा होता। उपले कंडों की व्यवस्था करने की कवायद शुरू हो जाती। मुझ ‘लिट्टी’ को जो माफिक आए ऐसा आटा सभी नहीं गूँथ पाते। ना गीला हो ना ही कड़ा । एक विशेष मृदुलता जो ‘लिट्टी’ को करारी तो बनाए पर कठोर नहीं। आटा तो फिर ‘विशेषज्ञ’ के हाथों ही गूँथा जाएगा। आटा को ये सौभाग्य प्राप्त होने की खुशी होती तो, सत्तू को गरीबों की थाली से निकल जायका नफ़ीसों की थाल तक पहुँचने का मौका मिलने की। बरसात की भीनी शाम हो या शरद की ठिठुरती रात, खुले आसमान के नीचे हम ‘लिट्टी चोखा’ का साथ परवान चढ़ना, अद्भुत आनंद की प्राप्ति हमें भी और हमें जीमने वालों को भी।

‘मूक क्रांति’ नहीं तो और क्या है। महिलाओं की रसोई में उनके सतत संगी रसोई के बाहर छलांग लगा कर, उन्हें रसोई की जिम्मेवारी से मुक्ति दिलाने की ओर कदम उठाते हैं। एक शाम के लिए ही सही। वो भी यूँ कि पुरुषों को, जिन्होंने पुरुष प्रधान व्यवस्था’ में रसोई का चिरंतन दायित्व महिलाओं को सौंप रखा है, खुशी महसूस हो। हमें यानि हम ‘लिट्टी चोखा’ को बनाना उन्हें आनंद दे, ना कि उन्हें बोझ लगे। है ना ये ‘नारी मुक्ति’ की दिशा में उठा एक ठोस कदम। रसोई महिलाओं के बंदिशों की प्रतीक बन कर ही तो रह गई है।  

बात ‘नारी मुक्ति’ आंदोलन की चली है तो इसमें हमारे योगदान की चर्चा फिर से करना अनुचित नहीं होगा। तीज त्योहार, खासकर जिसमें महिलायें निराजल व्रत रखती हैं, में ‘लिट्टी चोखा’ बनाने का दस्तूर सा रहा है। ऐसे मौके पर अमूमन ऐसा होता है, ‘आज लिट्टी लाग जाव, त घर के औरत लोग जे भुखल पियासल बा, का तनी आराम हो जाई’। महिलाओं की इतनी ‘खैर-ख्वाही’ पुरुष करने लगें, ये क्रांति से कम है क्या। इस जज्बा के साथ हमारा आगाज होता है।       

भले हम देहाती हैं, लेकिन बनने के हमारे बड़े ठाट हैं। पहले तो चने के सतू की ‘घाठी’ तैयार की जाती है। ‘घाठी’ जिसे ‘भभरी’, ‘भौरी’ आदि नाम से भी जाना जाता है, लिट्टी का मर्म है, इसकी जान है। जान हो भी क्यों ना, इसे ही तो आटे के गोले (लोई) के बीच भरा जाता है। हाँ भाई वही जिसे ‘फिलिंग’ या ‘स्टफिंग’ भी कहा जाने लगा है। ‘घाठी’ बनती है जब चने के सत्तू में बारीक कटी प्याज, लहसन, हरी मिर्च, अदरख, नमक को मसल कर अच्छी तरह मिलाया जाता है। फिर अजवाइन और मंगरैल (कलौंजी) से इस मसाले को नवाजा जाता है और कड़ू (सरसों) तेल से सँवारा जाता है। मिरचे का भरवाँ अचार और नींबू का साथ मिल जाए तो ‘घाठी’ की नफासत और बढ़ जाती। थोड़े पानी का साथ पाकर ये भुरभुरा हो जाता। ‘भभरी’ या ‘भौरी’ नाम तभी तो मिला है इसे। ‘घाठी’ तैयार होकर एक थाल में सज जाता है। अरे वाह! सत्तू का ये ठाट तो लाट साहब के भी ना हों।

लिट्टी अपने बनने के बखान में ऐसा मस्त हुई कि मुझ चोखा की चर्चा ही भूल गई। हम दोनों का साथ बिल्कुल चोली दामन का है। चोखा की तैयारी साथ चल रही होती। चोखा के  लिए भी उन्हीं बारीक कटे लहसन, प्याज, अदरख, धनिया पत्ता, हरी मिर्च में से थोड़ा बचा कर रख लिया जाता है जो लिट्टी की ‘घाठी’ के लिए तैयार किये गए थे।   

‘घाठी’ जब तक सज सँवर रही होती है, उसी बीच आटा ‘विशेषज्ञ’ के हाथों गुँथ रहा होता है।  रोटी के आटे से थोड़ा कडा, फिर भी मुलायम। गुंथे आटे में ये गुण तब आते हैं जब पानी से नम हाथों से गूँथते समय इसे अच्छी तरह रौंदा जाए। मुट्ठी भींच कर हल्के पानी के हाथों जब रौंदने की प्रक्रिया बार बार दुहराई जाती है तब जाकर ‘लिट्टी’ के लायक ये बन पाता है। आटा तैयार, घाठी तैयार, अब शुरू होता है हथेली और उंगलियों का अद्भुत खेल। हाथों के दोनों अँगूठे आटे के गोले (लोई) के एक बिन्दु पर टिक लोई को धीरे धीरे अंदर दबाना शुरू करते हैं। अन्य अंगुलियां अँगूठे से दबाई जा रही लोई को शनै: शनै: घुमाते रहने का दायित्व संभालती हैं। लोई दबकर अपने दिल में जगह बना लेती है घाठी को छुपाने भर। घाठी जैसे ही लोई के दिल में प्रवेश करती है उंगुलियाँ कोमलता से लोई के दिल का प्रवेश द्वार बंद कर देती हैं। स्वाद का पूरा ब्रह्मांड अब इस ‘शून्यायकार’ गोले में बंद हो जाता है।

जब आटे के गोले (लोई) में घाठी भरने की प्रक्रिया चल रही होती है उसके साथ ही उपले कंडे की आग भी तैयार होती रहती है, ताकि जब लिट्टीयों को आग पर सेंकने हेतु रखा जाए, आग धुआँ मुक्त हो गया रहे। लिट्टीयाँ सिंकती है मद्धिम आँच पर। तो धुआँ खत्म होते ही जब तक आग की तपिश तेज होती उनमें चोखे का बैगन भून लिया जाता।          

लोई में घाठी भरने के बाद इसे हथेलियों से दबा चपटा कर दिया जाता, ताकि ये आग के ऊपर ठीक बैठे और बराबर सिंके। अब बारी होती हम लिट्टीयों के आग पर तपने की। उलट पलट हम कुछ यूँ तपते हैं जैसे कुंदन बन के ही बाहर आएंगे। कुंदन बन भले ही ना निकले, पर हमारी अकड़ उससे कुछ कम नहीं होती। गर्व से फूले, सीना ताने हम बाहर निकलते जैसे पूरे विश्व का गुरूर अपने अंदर भर लिया हो। तलते सिंकते समय ‘पूड़ी’ ‘रोटी’ का सीना भी फूलता है, अकड़ में वे भी आते, पर क्षण भर में ही उनकी हेंकड़ी गुम जाती। लेकिन हम जो एक बार अकड़ गए तो बस अकड़ गए। ठोक पीट चाहे लाख चिपटा किया गया हो हमें, आग पर चढते ही हम अकड़ से गोल हो जाते। फिर अपने अस्तित्व के अंतिम पलों तक हम अपनी अकड़ में बने रहते। हमारी अकड़ ऐसी हो भी क्यों नहीं? ‘नारी हित’ में कुछ करने के निमित्त जो बने हैं हम। और तो और, चुपके से पुरुषों की अकड़ भी तो थोड़ी चुरा ली हमने।     

भुने बैगन के छिलके उतार बस मसल भर देने की बात है। बचे हुए लहसन, अदरक, प्याज, हरी मिर्च, धनिया पत्ता के टुकड़े और नमक, मसले बैगन में मिक्स हो कड़ू तेल की ऊपर से मालिश पा, चापलूस चटपटा चोखा लिट्टी की तीमारदारी को तैयार हो जाता।

अरे अरे घबड़ाएं ना। इतना विधान – तौबा तौबा। हम तो सहजता से तैयार हो जाने वाले ‘व्यंजन’ हैं। गुस्ताखी माफ फिर अपने को व्यंजन कहने की हिमाकत की। पर ऊपर कहे विधि विधान से बने तो किसी ‘व्यंजन’ से कम भी ना हैं हम। सहज-सुलभ इतने कि ‘शुगर मिल’ तक बैलगाड़ी से अभी हाल के दशकों तक गन्ना पहुँचाने वाले गाड़ीवानों की हम पहली पसंद होते। हजारों नहीं तो सैकड़ों बैलगाड़ियाँ होती शुगर मिल के इर्द गिर्द। ऐसा नहीं होता कि गए और झट से गन्ना गिरा वापस चल पड़े। कई बार तो कई कई दिन इंतजार करना पड़ता।

सर्दी का मौसम, खुले में प्रतीक्षा करते गाड़ीवान। बैलगाड़ी छोड़ कर कहीं और विश्राम के लिए जा भी नहीं सकते, पता नहीं कब नंबर आ जाए। ऐसे में हमारा (लिट्टी चोखा का) बनना, ‘एक पंथ दुई काज’ करता। भोजन का भोजन और ठंड से बचाव के लिए साथ में अलाव। जब एक साथ कई जगह लिट्टी लगने का आयोजन हो रहा हो तो कैम्प फायर या पिकनिक सा दृश्य बन जाता। कैम्प फायर या पिकनिक हो ना हो, हमें तो हमारे द्वारा क्रांति की दिशा में उठाया एक कदम लगता। ‘सर्वहारा’ का सर्दी में साथ, और साथ में मर्दों की पाक क्रिया में सामूहिक भागीदारी। दोहरी क्रांति से कम है क्या!

प्रांतीय प्रतिस्पर्धा प्रगति के दौर में प्रखर हो गई है। क्षेत्रीय व्यंजनों का व्यवसायीकरण आम हो चला है। आक्रामक बिक्री रणनीति को व्यावसायिक प्रचार का बल मिल गया है। दौड़ के इस दौर में हमारे जनक की सामाजिक चेतना हीन भावना का शिकार होती सी दिखने लगी थी। तब हमने अपनी कमर कसी। ‘चोखा’ को वैसे तो हीनता और अमंगल का चरम समझ जाता था पर ‘लिट्टी’ के साथ अपनी पुरानी जुगलबंदी में ‘चोखा, ने एक नया मुकाम हासिल कर लिया है।

‘आहार सूची’ में प्रांत के ‘प्रतीक व्यंजन’ के रूप में प्रतिष्ठित स्थान पाकर ‘हीनता’ से उबरने का माध्यम बन गए हैं ‘लिट्टी चोखा’। शादियों और अन्य आयोजनों के ‘व्यंजन सूची’ में गर्व के साथ शामिल होने लगें हैं– ‘मौलिकता’ के साथ ‘आधुनिकता’ को अपनाने का ‘फलसफा’ बन कर।      

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*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।

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21 COMMENTS

  1. जैसा स्वादिष्ट लिट्टी-चोखा वैसा ही रसीला ये वर्णन।।
    भले ही अब दिल्ली मुंबई जैसे शहरों में भी लिट्टी चोखा मिलने लगा हो लेकिन लिट्टी लगाने का जो उत्सव गाँव मे था वो अद्भुत है। आज आपने उन उत्सवों की याद ताजा कर दीं।
    शानदार लेखन… अगले बुधवार की प्रतीक्षा रहेगी।

  2. लिट्टी चोखा सचमुच एक ऐसा व्यंजन है जो शरीर और मन के लिए लाभदायक होता है। मैंने देखा,जिन प्रांतों के लोगो ने लिट्टी चोखा और सतू की खूब आलोचना किए, कालान्तर में इन व्यंजनों में स्वास्थ्यवर्धक गुण दिखाई पड़ने लगे और स्वीकार भी किया लोगों ने।
    घर की महिलाएं सचमुच लिट्टी चोखा के दिन उत्सव मनाते दिखती थी क्योंकि यदा कदा ही रसोई घर से मुक्ति मिलती उन्हें।
    रचना शैली उत्कृष्ट और गांव की वास्तविकता को बर्णन करने में सक्षम है। सतत प्रयास करते रहो…….

  3. लिट्टी चोखा की महिमा,भक्त ही जाने। भक्त इसलिए कहा क्योंकि इस मर्म को समझने के लिए इस मिट्टी से जुड़ाव आवश्यक है,आराधना की सीमा तक।
    ख़ैर, लिट्टी चोखा का वर्णन अद्भुत है। स्वाद तो आ ही गया पढ़ते पढ़ते ,पिछड़ेपन के गौरव का निरंतर अनुभव होता रहा।

  4. लिट्टी चोखा के सभी पहलुओं को जिस अंदाज में रखा गया है, वह बहुत बढ़िया है। एक एक पंक्तियां डूब कर लिखी गई हैं। पढ़ने वाले का कब लार टपक जाए, पता नहीं। लेखक महोदय को साधुवाद और आभार।

  5. बेजोड़ है, अदभुत विवरण सर। एकदम लिट्टी जैसा चटक🙏🥳

  6. बेजोड़ है, अदभुत विवरण। एकदम लिट्टी जैसा चटक🙏🥳

  7. पहले लिट्टी चोखा को बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता है।लेकिन धीरे धीरे उसके प्रति लोगो का नजरीया बदल रहा है।खान पान में यह बहुत ही शुद्ध लगता है ।अब शादी विवाह और पार्टियों में भी इसके स्टॉल लगे रहते है

  8. “लिट्टी चोखा” का स्वाद चखने और साथ ही इसके मर्म को समझने हेतु आप सभी का धन्यवाद। आगे की रचनाओं को भी आपका ऐसा ही साथ मिलेगा, आशान्वित हूँ।

  9. दो शब्दों का समास छत्तीस (छत्तीस भोग) के समास पर भारी।

  10. बहत सुंदर कृति, लिट्टी भी, चोखा भी!आशा है सत्येन्द्र आगे भी इस तरह के लेख लिखते रहेंगे।

    • धन्यवाद सर, आपको लेख पसंद आया जानकर संतोष हुआ। आप लोगों की शुभकामनाएँ हैं तो प्रयास जारी रहेगा।

  11. लिट्टी चोखा का यह एक ऐसा अनोखा आत्मकथ्यात्मक विवरण है जिसमें सामाजिक राजनीतिक विचार और व्यंग्य अदभुत ढंग से पिरोए गए हैं. चाहे वो पिछड़ा राज्य का विशेष दर्जा प्राप्त करने की कोशिश (जैसे पिछड़ी जाति का दर्जा प्राप्त करना एक उपलब्धि जैसी होती है) हो या फिर लिट्टी को एक महिला मुक्त प्रक्रिया बना कर इसे ‘महिला मुक्ति’ के विचार से जोड़ने वाली बात, सुंदर भाषाई मुहावरों से सजा यह एक सरस लेखन का सुंदर नमूना है. वाह!

    भाषा का सौंदर्य प्रक्रिया की बारीकी को विचार और भाव की उदात्त व्यंजना से जोड़ने पर कैसा अद्भुत समां बांधती है उसका उदाहरण यह अंश उद्धृत किया बिना रहा नही जा रहा:

    “हाथों के दोनों अँगूठे आटे के गोले (लोई) के एक बिन्दु पर टिक लोई को धीरे धीरे अंदर दबाना शुरू करते हैं। अन्य अंगुलियां अँगूठे से दबाई जा रही लोई को शनै: शनै: घुमाते रहने का दायित्व संभालती हैं। लोई दबकर अपने दिल में जगह बना लेती है घाठी को छुपाने भर। घाठी जैसे ही लोई के दिल में प्रवेश करती है उंगुलियाँ कोमलता से लोई के दिल का प्रवेश द्वार बंद कर देती हैं। स्वाद का पूरा ब्रह्मांड अब इस ‘शून्यायकार’ गोले में बंद हो जाता है।”

    लिट्टी की तरह ही एक तरह की अनगढ़ भाषा भले ही कहीं कहीं अखरती है, लेकिन फिर लिट्टी की तरह ही भाषा का अपना सौंधा पन (स्मोकी फ्लेवर कहिए) लेकर एक अद्भुत आस्वाद दे जाती है.

    लिट्टी केवल एक खाना या व्यंजन ही नहीं एक घटना, एक विशेष अनुभव का स्थान ले लेती है, जब वो कुछ खास परिस्थिति में (निर्जला उपवास के समय या फिर गन्ना तौलवाने का इंतजार करते हुए) जीवन रक्षा का उत्सव बन कर उपस्थित होती है.

    आपकी बेहतरीन लेखनी को और धार, और प्रवाह मिले ताकि हम उसका आनंद उठा सकें. शुभेच्छा

    • ऐसी ही समालोचना की अपेक्षा रही है आपसे। “लिट्टी की ही तरह अनगढ़ भाषा का कहीं कहीं अखरना और फिर लिट्टी की ही तरह भाषा का अपना सोंधापन लेकर आस्वाद दे जाना”
      आपने काफ़ी बारीकी से लेख को पढ़ा है और एक उदात्त राय व्यक्त की है। बहुत बहुत धन्यवाद। भाषा के परिमार्जन और लेख को और रुचिकर बनाने में ऐसे विचार सहायक सिद्ध होंगे। तभी तो आपके राय की प्रतीक्षा बेसब्र करती है।
      पुनः धन्यवाद।

  12. लिट्टी और चोखे के बनने की प्रकृया का जितने जीवंत रूप में वर्णन किया गया है वह अत्यंत ही अप्रतिम व अनोखा है। इस रचना में लेखक ने हम सब के दृष्टिपटल पर उन छणों को फिर से जीवित कर दिया जब हमारे घरों में यह व्यंजन बनाया जाता था। आम तौर पर यह व्यंजन पुरूषों द्वारा बनाया जाता है, महिला सशक्तीकरण के एक अलग स्वरूप का भी व्यंजन के बनने की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए लेखक ने बड़े ही उत्तम प्रकार से जिक्र किया है। लेखक की एक व्यंजन को बनाने की विधि को कहानी के रूप में ढालने की कला जिसमें व्यंग भी है, भावनाएं भी हैं, वास्तव में अद्भुत है। लेखक से विनम्र अनुरोध है कि वे इस प्रकार की रचना हमारे लिए प्रस्तुत करते रहें, ताकि हम सहज रूप से अपने आपको अपनी जड़ों से जोड़कर रख सकें। इंतजार रहेगा लेखक की अगली रचना का।

  13. लिट्टी चोखा आज कल अत्यधिक चाव से खाये जाने वाले व्यंजनों में शुमार है.| आपने अपनी अद्भुत लेखन शैली एवम कलात्मक अभिव्यक्ति से इस कथानक का वास्तविक चित्रांकन कर दिया है| बहुत ही सुंदर प्रस्तुति|

  14. लिट्टी-चोखा की जीवंत कथा यात्रा, आपकी इस स्वप्रवाह रचना ने मेरे बचपन के दिनों में लिट्कीट चोखा के सुस्वादु यादें ताज़ा कर दी ।

  15. Wonderful presentation of a simple subject matter. You have nicely highlighted it’s cultural place in our society 👏👏👏

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