एक हरसिंगार दो कचनार (दो)

सत्येन्द्र प्रकाश*

इस कहानी का पहला भाग आप यहाँ  पढ़ सकते हैं।

हरसिंगार होली के दिन मौलवी साहब के साइकिल को जाते हुए दूर तक देखता रहा। कचनारों की आँखे भी जाते हुए मौलवी साहब पर तब तक टिकी रही जब तक वे नजर से ओझल ना हो गए। इन तीनों के दिलो-दिमाग में मौलवी साहब की छवि अंकित हो चुकी थी। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे मौलवी साहब! गोरा-चिट्टा बदन, चारखाने की लुँगी के ऊपर सफेद मलमल का चमकता कुर्ता। कद बहुत लंबा नहीं पर उन्हें नाटों की श्रेणी में तो बिल्कुल नहीं रक्खा जा सकता था। स्थूलकाय होने के बावजूद भी कुल मिलाकर एक प्रभावशाली व्यक्तित्व था मौलवी साहब का।  

मौलवी साहब हरसिंगार के पड़ोस के गाँव के रहने वाले थे। विभाजन के समय उनके के भाई और कई रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए थे पर मौलवी साहब के दिल ने उन्हें अपनी मिट्टी से अलग नहीं होने दिया। अपने गाँव की मिट्टी की खुशबू उनमें कुछ इस तरह से रच-बस गई थी कि परिवार विभाजित होने पर भी उनका दिल यहीं अटका रहा। हरसिंगार ने लोगों को कहते सुना था कि मौलवी साहब अपने भाई से मिलने एक बार पाकिस्तान  गए। उनके भाई ने प्रस्ताव भी दिया कि परिवार के साथ वे भी वहीं आ जाएँ किन्तु मौलवी साहब इसके लिए कतई राजी नहीं थे। कुछ तो वहाँ के हालात से रूबरू होकर पर बहुत कुछ अपने देश की मिट्टी के मुहब्बत की वजह से।

शांत, सौम्य, मृदुभाषी मौलवी साहब की इलाके में अपनी अलग ही पहचान थी। आस-पास के कई गाँवों में उनका बहुत रुतबा था। समाज के प्रतिष्ठित लोगों में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता था। हरसिंगार को फख्र था मौलवी साहब की इस परिवार से दोस्ती पर जिससे वह सतही और आत्मिक दोनों स्तर पर जुड़ा था। फख्र हो भी क्यों नहीं। मौलवी साहब की इस परिवार से दोस्ती आम दोस्ती से भिन्न थी। तभी तो मौलवी साहब, चाहे हालात जो भी, होली पर इस परिवार से मुलाकात को कभी मुल्तवी नहीं करते थे और ईद के मौके पर इस परिवार के बच्चों को मेला घुमाने का दस्तूर भी बड़ी शिद्दत से निभाते।

मौलवी साहब के पुनः आगमन की कचनार की प्रतीक्षा बहुत लंबी नहीं साबित हुई। इस बार ईद होली के बाद जल्दी आ गई। ईद की नमाज के बाद बच्चों को लिवा जाने मौलवी साहब खुद आए। अन्य वर्षों की भाँति। शर्बत पानी के क्रम में होली में सौगात स्वरूप मिले पकवान के ज़ायके की चर्चा लाज़िमी थी। अपने मेज़बान का गर्मजोशी का शुक्रिया अदा करना मौलवी साहब की फितरत थी। जैसे ही होली का जिक्र छिड़ा, कचनारों के कान खड़े हो गए। हरसिंगार भी दोस्ती का फर्ज समझ चुका था। उसे भी अपने दोस्तों की तारीफ में कसीदे पढ़ा जाना भाने लगा था।

मौलवी साहब ने कहना शुरू किया, इस वर्ष के मालपुवों का ज़ायका कुछ अलग ही था। और हो भी क्यों नहीं। नए घर की नई रसोई में पहली होली का पकवान जो पका था। इन पकवानों को बनाने वालों का मन नई रसोई पाकर बल्लियों उछल रहा था। उनके पाक-कौशल और हर्षित मनोभाव के सम्मिश्रण ने पकवानों का ज़ायका बढ़ा दिया था। कचनार के पकौड़ों की चर्चा होनी ही थी। पहली बार जो ये होली के पकवानों में शुमार हुआ था। मौलवी साहब ने इन पकौड़ों का खास जिक्र किया। आलू, प्याज, गोभी आदि के पकौड़े इन फूलों की नज़ाकत के आगे कहाँ टिकते। “पकौड़े तो बहुत खाएं हैं, पर इन फूल के पकौड़ों की बात ही अलग है। बच्चे बड़े सबको भा गए ये पकौड़े। सबका मन मोह लिया।“ मौलवी साहब से यह सुनकर कचनारों के साथ हरसिंगार की भी बाँछें खिल गईं।

प्रशंसा सुनने को आतुर मन थोड़े से संतोष कहाँ करता! कचनारों के कानों की कुलबुली बढ़ गई थी। उन्हें लग रहा था कहानी अभी बाकी है। कहानी बाकी तो थी ही।

इस होली परिवार के पाँचों भाइयों की खाने की पंगत साथ लगी थी। बड़े भाई और दो सबसे छोटे जो गाँव में रहते थे शायद ही कभी साथ बैठकर खाना खा पाते। अपनी अपनी दिनचर्या के अनुसार ही समय तय था उनके खाने का। बीच के दो भाई जब छुट्टियों में गाँव आते तब तीनों बड़े तो साथ खाना खाते। छोटे दोनों खेती किसानी और गाँव की अन्य बाध्यताओं के बीच साथ खाने का समय कभी-कभार ही निकाल पाते। पर इस होली पाँच आसन एक साथ लगे थे। नए घर की पहली होली, उमंग और उत्साह का आलम ही कुछ और था। सभी भाइयों का साथ बैठ कर खाना और व्यंजनों में मालपूआ पर कचनार के पकौड़ों की उपस्थिति। इस वर्ष होली के पकवानों का जायका कई गुना बढ़ गया था। भाइयों द्वारा मौलवी साहब को ये सब बताते सुन कचनार फूले नहीं समा रहे थे।

“इन्हें यानि इन दो कचनार और साथी हरसिंगार को बड़े शौक से मैंने लगवाया है।“ एक भाई ने मौलवी साहब को बताया। हरसिंगार को लगा शायद वे बताना चाह रहे थे, उन तीनों के फूलों की सुगंध और माधुर्य उनके परिवार की ख्याति और आपसी मधुर संबंध के प्रतीक थे। संभवतः ऐसा ही था। लोकप्रियता और सौहार्द की सुगंध और माधुर्य की उसी परिधि में मौलवी साहब खुद को पाते। तभी तो मौलवी साहब को बच्चों को ईद का मेला घुमाने फिराने में सुकून मिलता।

हरसिंगार और कचनार इस परिवार के सुखकर क्षणों को साक्षी भाव से निरखने की बजाय इनके लिप्सा में आत्मसात होते गए। समय काल बीतता रहा। कई होली और कई ईद ने इन सुखद लम्हों को दुहराया। इनकी माया में उलझे हरसिंगार और कचनार अपने भाग्य पर इतराते रहे। छुट्टियाँ आती रही। गाँव में रह रहे बच्चों को इन छुट्टियों में घर आए भाई बहनों का साथ मिलता रहा। छुट्टियों में खेल कूद धमा चौकड़ी भी बदस्तूर चलती रही।

पर कहते हैं न सुखद पलों को बीतते देर नहीं लगती। बढ़ते उम्र के साथ बच्चों का आपसी प्रेम धीरे धीरे प्रतिस्पर्धा में तब्दील होने लगा। परिवार के बड़े तो इसे भाँप नहीं पाए, लेकिन  इसकी भनक हरसिंगार और कचनारों को लगने लगी। शिक्षा-सेवी परिवार के बच्चों से शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे प्रदर्शन की अपेक्षा तो होनी ही थी किन्तु सभी बच्चे परीक्षा में एक सा परिणाम लाएं यह संभव नहीं होता। सभी बच्चों का दिल पढ़ाई में रमता भी नहीं। फिर उनके प्रदर्शन में कमी-बेशी  स्वाभाविक थी।  जीवन का सत्य यही है। 

जिन बच्चों ने अच्छा प्रदर्शन किया होता उनकी प्रशंसा होती। स्तरीय प्रदर्शन ना करने वाले बच्चों को उलाहना का शिकार होना पड़ता। अक्सर तुलनात्मक प्रशंसा और उलाहना स्वभावगत विकृतियों को जन्म देती है। इसके शिकार बड़े भी हो जाते तो फिर बच्चों की क्या बिसात। खेल कूद के आनंद में मस्त रहने वाले बच्चों में छोटी-छोटी बातों पर नोक झोंक होने लगी। प्रशंसा के अभाव में उपेक्षित बच्चे दूसरों की स्वकल्पित शिकायतें बड़ों तक पहुँचाने लगे। अपने बच्चों के प्रदर्शन से क्षुब्ध बड़ों की कुंठा बात-बात पर आपसी खींच तान का रूप लेने लगी।  हरसिंगार और कचनार, जो अब तक अपनी किस्मत पर इठलाते रहे, का मन किसी अनहोनी की आशंका से घबराने लगा।  

शीघ्र ही उनकी आशंका सच साबित होने लगी।  इन खींच तान और आपसी झड़पों के बीच भाइयों ने एक दूसरे से अलग होने का निर्णय ले लिया यानि आपसी बँटवारा। परिवार के शुभचिंतकों ने मनभिन्नता दूर करने का बहुत प्रयास किया किन्तु ऐसे में अमूमन शुभचिंतकों की सलाह पर ईर्ष्यालुयों की कानाफूसी भारी पड़ने लगती है। तभी तो मौलवी साहब का मशवरा भी इस परिवार के विभाजन को टालने में कारगर नहीं हो पाया। मौलवी साहब इस परिवार का भला तहे-दिल से चाहते थे। उन्होनें अपनों से अलग होने का दर्द सहा था विभाजन के समय। वो नहीं चाहते थे उनकी तरह इस परिवार को भी भावनात्मक अलगाव का दर्द सहना पड़े, साथ रहते हुए भी। उन्होंने ने भरपूर प्रयास किया। पांचों भाइयों से अलग-अलग बातें भी कीं और साथ-साथ भी पर होनी कभी टली है क्या।

परिवार बँट गया। भाइयों की रसोई अलग हो गई। कचनारों के दर्द का अहसास हरसिंगार को था। अब उनकी डाली से थोड़े गए फूलों के पकौड़े एक कड़ाही की जगह उसी आँगन में अलग अलग कड़ाहियों में तले जाएंगे। इन्हें तोड़ कर एक टोकरी की जगह अलग अलग टोकरियों में एकत्रित की जाएगी। अपनी ही डाली पर खिले फूलों का अपनी आँखों के सामने एक दूसरे से जुदा होने का दर्द वही समझ सकता है जिसके ऊपर बीतती है। ये दर्द उन कचनारों से बेहतर कौन समझ सकता था। कचनारों के इस दर्द को हरसिंगार कुछ कुछ महसूस कर सकता था। आखिर इतना वक्त साथ जो बिताया था उसने। एक तरह से उन तीनों के बीच दाँत कटी रोटी (मिट्टी) का संबंध था।

अब फूल तोड़ कर अलहदा टोकरियों में रक्खे जाएंगे ये अंदेशा नहीं हकीकत थी। आने वाले वर्षों की होली कचनारों को इस दर्द की अनुभूति बारम्बार कराती। होली के दिन अपनी अपनी टोकरी लिए बच्चे फूल एकत्रित करने पहुँच जाते। बच्चों में ज्यादे से ज्यादे फूल इकट्ठा करने की होड़ अब भी लगती थी। लेकिन होड़ की सूरत और सीरत दोनों बदल गए थे। अब ये भावना प्रबल थी कि दूसरों को फूल न मिले या कम से कम मिले। फिर फूलों के साथ बच्चे निर्ममता करने लगे। निसहाय हरसिंगार देखता सब था, पर कर कुछ नहीं सकता। बच्चों की इस प्रतिस्पर्धा में पढ़ाई में पीछे रहने की कसर निकलने लगी। जो पढ़ाई में पीछे होता वो चाहता कि वहाँ आगे रहने वालों को यहाँ पछाड़ दो। और विडम्बना ये थी कि कई बार यह बड़ों द्वारा प्रेरित होती। मौलवी साहब अब त्योहारों पर आने से कतराने लगे। कैसे आते – आते तो किस भाई की मेज़बानी स्वीकारते और किसकी नहीं?

हरसिंगार सोचता कि काश घड़ी की सुई पीछे मुड़ जाती। काल चक्र विपरीतमार्गी हो जाता। कचनारों को दर्द के इस त्रासद से मुक्ति मिल जाती। पर भला ऐसा कभी हो पाया है! मुक्ति तो स्वत्व की आहुति में निहित होती है। पर स्वत्व का तिरोहण इतना आसान कहाँ!

काल चक्र घूमता रहा। होली दर होली बच्चों का फसाद बड़ों का विवाद होने लगा। फसाद की जड़ बने कचनारों की शीघ्र मुक्ति की चाह बढ़ती जा रही थी। जैसे पास के सर्वसाक्षी बरम  बाबा (ब्रह्म स्थान में स्थित देव) ने कचनारों की प्रार्थना सुन ली। एक होली आपसी विवाद इतना गहराया कि किसी ने सुझाव दिया कि फसाद की जड़ को ही समाप्त कर दिया जाए। निश्चित हो गया कि होली के बाद इन्हें काट दिया जाए।

हरसिंगार के उदासी का सबब बनकर वो दिन आ ही गया। हरसिंगार उदास था। बहुत उदास। पर दोनों कचनार के पेड़ दर्द से निजात और अपनी मुक्ति का क्षण पास पा कर खुश नहीं तो आत्मतुष्ट ज़रूर थे।

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इस कहानी का पहला भाग आप यहाँ  पढ़ सकते हैं।

*सत्येन्द्र प्रकाश भारतीय सूचना सेवा के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। इन्होंने केन्द्रीय संचार ब्यूरो और पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के प्रधान महानिदेशक के रूप में अपनी सेवाएँ दी है। रचनात्मक लेखन के साथ साथ आध्यात्म, फ़ोटोग्राफ़ी और वन तथा वन्यजीवों में भी इनकी रुचि रही है।

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10 COMMENTS

  1. अंत का कारुण्य सम्भवतः आज दिन भर हावी रहेगा। सम्भवतः अंत होता ही करुणामयी है। सम्भवतः अंत होता ही है करुणा की पराकाष्ठा के समापन हेतु।
    आपने परिवार के परिप्रेक्ष्य में बड़ों का हृदयविदारक मर्म कचनारों और हरसिंगारों के माध्यम से सीधा मेरे हृदय पर उकेरा है।

    काश ये कथा,ये लेख परिवारों में पढ़ा जाए। काश !

    • परिवार में होने वाले बिखराव की कहानी को कचनार के वृक्ष के काटे जाने से जोड़ना, हरसिंगार के पेड़ का दर्द को अभिव्यक्त करते हुए दर्शाना – सचमुच प्रशंसनीय है|
      आपने परिवार के हर छोटे बड़े घटनाओं पर सुक्ष्म दृष्टि रखी है| आपसी समन्वय कैसे बिखराव की ओर अग्रसर हो जाता है इसकी अनुभूति भी नही हो पाती है |

  2. एक हरसिंगार, 2 कचनार… दूसरा भाग पढ़ने के बाद कुछ कह पाने के लिए शब्द नहीं हैं… भावनात्मक अलगाव… निशब्द

  3. बेहद भावप्रवण कथा…भाषा, भाव और विचार जैसे एकसार हो कर प्रवाहमान हो चले हों. वाह!!

  4. फिर मयस्सर नहीं हो पाया कचनार फूल का पकौड़ा।कारण जो भी हो किन्तु असमय किसी वृक्ष या जीव का चला जाना दुखद होता है। ‌बहुत सुंदर प्रस्तुति।

  5. कहानी का दूसरा भाग बहुत ही मर्मस्पर्शी है। संयुक्त परिवारों के विभाजन के दर्द को कचनारों के माध्यम से बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कहानी की ये कुछ पंक्तियां बहुत ही अच्छी लगीं:
    “अक्सर तुलनात्मक प्रशंसा और उलाहना स्वभावगत विकृतियों को जन्म देती है।”
    “अमूमन शुभचिंतकों की सलाह पर ईर्ष्यालुओं की कानाफूसी भारी पड़ने लगती है।”
    “मुक्ति तो स्वत्व की आहुति में निहित होती है पर स्वत्व का तिरोहण इतना आसान कहां?”

  6. हौसला अफ़ज़ाई के लिए सभी का धन्यवाद

  7. कहानी का द्वितीय भाग मार्मिक हैं, विस्थापन के दर्द को उकेरित है, देश विभाजन तथा संयुक्त परिवार के विघटन से उत्पन्न समस्याओं को बड़े ही व्यवहारिक पक्षों की तरफ ध्यान आकृष्ट करती है। लेखक साधुवाद के पात्र हैं।
    नवीन कहानी के लिए शुभेच्छा 🙏🙏

    • शशांक जी कहानी आपको पसंद आई जानकर ख़ुशी हुई। बहुत बहुत धन्यवाद

  8. बहुत लोगो ने बहुत कुछ लिखा अपने भावनायें व्यक्त किया। परन्तु में निःशब्द और

    आँखो में बस आँसू है🙏

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