बारिश के आत्मालाप में – मोहन राणा के कविता संग्रह ‘मुखौटे में दो चेहरे’ की समीक्षा

गोबिन्द प्रसाद*

इस वेब-पत्रिका के पाठक मोहन राणा के नाम से अपरिचित नहीं हैं। उनकी कुछ कवितायें आप इस पोर्टल पर यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं। दिल्ली में जन्मे मोहन राणा पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा से ब्रिटेन के बाथ शहर में रह रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित ‘मुखौटे में दो चेहरे’ सहित, उनके नौ कविता संग्रह निकल चुके हैं। उनकी अनेक कवितायें अंग्रेज़ी सहित यूरोप की कई भाषाओं में पढ़ी और अनुवाद की गईं हैं। गोबिन्द प्रसाद जी ने उनके हालिया संग्रह  मुखौटे में दो चेहरे’ की समीक्षा के बहाने मोहन राणा की काव्य यात्रा पर एक निगाह डाली है जिससे उनकी कविता का रसास्वादन करने में आसानी हो सकती है।

मुखौटे में दो चेहरे

मोहन राणा की कविता पढ़ते समय यह अहसास सर उठाने लगता है कि इन कविताओं का आस्वाद वैसा कुछ नहीं है जैसे हम हिन्दी की कविताओं में पढ़ते चलते आए हैं। संरचना, शिल्प-संरचना और भाषिक विन्यास में भी ये कविताएँ बहुत कुछ अलग-सी जान पड़ती हैं। ऐसा लगता है इन कविताओं में ‘लिरिकल एलिमेंट’ का जो पारम्परिक रचाव होता है उसमें निहित अनुभव को एक नये स्थापत्य में ढाल दिया गया है। इस स्थापत्य  में बिम्ब को रिप्लेस  करके  स्मृति और समय के बारीक तारों को छेड़कर एक ऐसा नगमा गूँजता हुआ मालूम होता है जो अपनी स्वप्निलता में एक अगोरत्व को बुनता रहता है। समय की  क्रूरता, समाज-संस्थाओं का बिखरता ताना-बाना और व्यापती जा रही अमानुषता और असंवेदनशीलता का सामना करने अथवा रेखांकित करने का कवि का अपना तरीका है।

  समय -स्मृतियों और ग़ुजर गए दिन, दिन के कई पहर या कई रंग, या कोई घटना जो अनुभव-कोष में  मौन विचरती रहती है – इन अनुभवों को वे कविता में कुछ इस तरह से विन्यस्त कर पाते हैं  जिससे पाठक के मन में एक अनन्तका जैसा, आकार से परे जैसा कुछ उभरने लगता है।

  मोहन राणा प्रतीक-रूपक और बिम्बों में बात करने के क़ायल नहीं  हैं। इन कविताओं में वैसी लयात्मकता  और शब्दों की काव्यात्मकता भी नहीं है जिसे सुनते ही पाठक समझ जाता है कि यह कविता है। यह कवि दिन तारीखों, दिन, दिन के चढ़ते-उतरते अनेक रंग-पहर और मौसमों की आती-जाती बारीक से बारीक, सूक्ष्मतर अनुभव- खण्डों से दूर तक प्रभावित रहता है – कुल मिलाकर मोहन राणा की कविताओं की बेशतर पृष्ठभूमि में काल और देश (Time and Space) का बहता हुआ दरिया मिलेगा। इस देश के बहते दरिया में अपने समय-समाज-स्वप्न को समेकित कर एकाकार करने का उद्यम है।

  मोहन राणा अपने ढंग के अकेले दिखाई पड़ते हैं। वे अपनी कविताओं में एक बेशानगी लिए हुए भटकते दिखाई पड़ते हैं। इसी जनम में  रहते हुए जैसे वे किसी दूसरी दुनिया में भूले हुए समय में अपने आप को पाने के लिए, अपने को पहचानने  और रूपान्तरित होने के लिए इन्तज़ार के आगोश में दुनिया से बेगाना हुए बैठे हैं। मोहन राणा की कविताओं में  समय का चेहरा  प्रायः अनुपस्थित होकर भी उपस्थित रहता है। समय उनकी कवि चेतना पर सवार है। समय से दो-चार होना लगता है कवि की फितरत में है। इस जनम के पार भी लगता है कोई दूसरी दुनिया का गोचर-अगोचर संसार मोहन राणा की कविताओं में अनेक अनुभव और रंग और समय के बदलते  चेहरे की रंगतों की स्वप्निल छायाएँ दिखाई देती हैं। वह समय में रहते हुए समय के पार जाने और अपने आपको भूल कर उबरने की प्रक्रिया जैसा कुछ साधना चाहता है।  सोफ़िया में पतझर कविता में  कवि का सामना समय से कैसे होता है।

कब फिर वहीं लौटेगा धूमकेतू उसी समय किसी और जनम के साथ

भीगती दोपहर सोफ़िया में पतझर

चुपचाप शोर अपने आपसे बात करता,

समय नहीं चाहता था कि मैं उसे पहचान लूँ फिर से

जैसे देखा था पहली बार खुद को भूल कर

(सोफ़िया में पतझर)

  — मुखौटे में दो चेहरे, पृष्ठ 68

  ऊपर दी गई छोटी-सी कविता अपने आप में पूरी तरह से उद्धत की गई है। इस कविता में बहुत कुछ ऐसा है जिसके आस पास ही कमोबेश मोहन राणा की कविताओं को  पहचाना जा सकता है। उनकी कविताओं में नींद हैं, बारिश है बारिश में सड़कों आदि का भींगना, पेड़ और पतझर, भीगती दोपहर, भटकती हवाएँ, साय-साय करती खिड़कियाँ और न जाने क्या कुछ जिसकी देख-सुनकर एक अजीब सी रहस्यमयी दुनिया का शुमाँ होता है और कवि मन इन सबके बीच जनमों-जनमों तक अपनी अनुपस्थिति में जैसे स्वप्न, सच्चाई और नींद के बीच एक ‘बावली धुन’ से घिरा हुआ है—

रात थी सुबह हो गई
करवटों में भी नहीं मिली कोई जगह
यह ग़लत पतों की यात्रा है मेरे दोस्त
रास्ता भूलना है तो साथ हो लो,
शर्त यही कि भूलना होगा अपना नाम पहले,
वैसे डर किसे नहीं लगता लोगों के भूल जाने का
याद दिलाते रहें जनम जनमों तक
उन्हें अपनी अनुपस्थिति की।
कब होगी पहचान सपने और सच्चाई की
जागकर भी कैसे पता चले जवाब
जब सोया हो हर कोई आसपास
स्मृति की नींद में,
एक बावली धुन साथ है जो उतरती नहीं मन से।

(बावली धुन )

— मुखौटे में दो चेहरे, पृष्ठ 77

  प्रायः देखा गया है कि कवियों को ऋतुओं के साथ भी सम्बंध रहा है – सम्बंध ही नहीं रचनात्मक सम्बंध देखा गया है। कालिदास से लेकर रीतिकाल तक तो वर्षा और ग्रीष्म के चित्र हमारे काव्य की धरोहर समझिये। आधुनिक काल में  भी पंत, प्रसाद, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र प्रभृति कवियों तक में ऋतु चित्र कमोबेश मिल ही जाएँगे। यूँ तो इधर का आधुनिकता से भरा जीवन प्रकृति के साहचर्य से लगातार दूर होता गया है। मुझे  आश्चर्य हुआ मोहन राणा की कविताओं में  बारिश की ज़िक्र बहुत सी कविताओं में है। बारिश के साथ-साथ इन कविताओं में पतझर का मौसम भी  दिखाई पड़ेगा। लगता है  कवि का अवचेतन मौसम विशेष से तो संचालित है लेकिन बारिश का वर्णन  या जिक्र कविता के माध्यम से कवि की मानसिक अवचेतन की संरचनात्मक घटक बनकर रहता है। बारिश में लगातार भीगना कवि के मन  की दीवारों पर बयाबान पहचान बनकर उभरती हैं—

लगातार बारिश में भीगती हैं

मन की दीवार पर उकरी बियाबान पहचान

– मुखौटे में दो चेहरे , पृष्ठ 28

बारिश से सम्बंधित कुछ और पंक्तियाँ देखिए —

बारिश में घुलते दुख को मैंने चूमा है                     
— वही, पृष्ठ 81

चलती रही सारी रात

तुम्हारी बेचैनी लिस्बन की गीली सड़कों पर

रिमझम के साथ— वही, पृष्ठ 86

क्या बारिश भी भीग जाती होगी

—————————

आज बारिश होती रही दिनभर

और शब्द धुलते रहे तुम्हारे चेहरे से        

मुखौटे में दो चेहरे, पृष्ठ 88

यहाँ तो बारिश होती रही लगातार कई दिनों से

जैसे वह धो रही हो हमारे दाग़ों को जो छूटते ही नहीं

बस बदरंग होते जा रहे हैं कमीज़ पर

जिसे पहनते हुए कई मौसम गुजर चुके

जिनकी स्मृतियाँ भी मिट चुकी हैं दीवारों से

कि ना यह गरमी का मौसम

ना पतझर का ना ही यह सर्दियों का कोई दिन

कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ

शायद कोई रंग ही ना बचे किसी सदी में इतनी बारिश के बाद

यह कमीज़ तब पानी के रंग की होगी !

(पानी का रंग)

— मुखौटे में दो चेहरे, पृष्ठ 91

  ‘मैं बारिश में शब्दों को सुखाता हूँ — इस एक पंक्ति में ऊपर दी विभिन्न रंग-छटाओं की बारिश की पंक्तियों का अंतरंग उद्घाटित होता है। प्रस्तुत संग्रह की अन्तिम कविता – ‘अर्थ शब्दों में नहीं तुम्हारे भीतर है’ – संग्रह की न केवल  महत्वपूर्ण कविता है बल्कि कहूँ बारिश के साथ कवि का एक अंतरंग सम्बंध दिखाई पड़ता है। बहुत दूर तक कवि का अवचेतन बारिश के माध्यम को कविता की आंतरिक संरचना के साथ  लिपटा दिखाई पड़ता है।

और में मैं कहूँ कि अर्थ शब्दों में नहीं तुम्हारे भीतर है अपने आप में  काव्य  की रचना -प्रक्रिया को ही  अपनी सहजता ते साथ प्रस्तुत करने वाली कविता है। इस कविता का आरंभ देखिए –

मैं बारिश में शब्दों को सुखाता हूँ

और एक दिन उनकी सफ़ेदी ही बचती है

जगमगाता है बरामदा शून्यता से

फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ

— मुखौटे में दो चेहरे, पृष्ठ 96

(सुखाने का बाद सफ़ेदी ही अर्थात शुद्धता, पवित्रता, कलमष रहित) बचती है, बरामदा शून्यता  से जगमगाता है और फिर  मैं उन्हें भीतर (अर्थात अपने मनस्तव की कोठरी में)  ले आता हूँ।

दूसरे पैरा में कवि  भीतर लाए हुए उन शब्दों को चुन-जोड़कर  कोई अनुभव बनाने का प्रयास करता है लेकिन जिसका  कोई अर्थ  नहीं बनता। पतझर, बादल, बरसात दो किनारों  को रोक कर पुल  बनाकर कुछ कहना चाहता है लेकिन  उस रास्ते पर ही लोग दिखाई देते हैं। क्योंकि स्वयं यह कहता है —

यह किसी नक़्शे में नहीं है

कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता

बस जैसे चलते-चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही

बन पड़ती कोई दिशा
जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर

कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं

— वही, पृष्ठ 96

  रचना-प्रक्रिया अनोखी चीज़ है – वह कहाँ से और कब शुरू होती है और कहाँ वह अपने अन्तिम रूप को दर्शायेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। रचना-प्रक्रिया अपने-आप में  रहस्य से भरी बहुत कुछ ‘अन प्रिडिक्टेबल’ चीज़ है।

और अन्त में  ‘ईंट के मकान’ इसी संग्रह  की बहुत सुंदर और अर्थवान कविता है। कवि  बारिश में भीगने को नया  अनुभव के साथ-साथ शहर की ईँटों का भीगना  और भीगी सुबह का अनुभव करते  हुए बारिश के  माध्यम से काव्य-मन  के मर्म  को  अचानक यह पंक्तियाँ खोल देती हैं-

बचे बुलबुले सतहों पर

सुनते कुछ चुपचाप

बारिश के आत्मालाप में

— वही, पृष्ठ 24

कविता की अन्तिम पंक्ति अपने-आप में क्या कुछ नहीं कहती!

मुखौटे में दो चेहरे (कविता संग्रह)
मोहन राणा
प्रकाशक – नयन पब्लिकेशन,
गाजियाबाद
, उत्तर प्रदेश
पेपर बैक । मूल्य : 125 रुपये
[email protected]

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*गोबिन्द प्रसाद कवि और आलोचक हैं। फारसी के भी विशेषज्ञ हैं। कुछ समय पूर्व तक वह जवाहर लाल नेहरू (जेएनयू) विश्वविद्यालय के भाषा केंद्र में थे।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।

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