जारी है शब्दों की यात्रा – डॉ सुरेश पंत की पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ का दूसरा भाग भी प्रकाशित

डॉ मधु कपूर* द्वारा पुस्तक समीक्षा

प्रमुख भाषाविद एवं भाषा विज्ञानी डॉ सुरेश पंत की पिछले वर्ष प्रकाशित हुई बहुचर्चित पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ का दूसरा भाग भी हाल ही में प्रकाशित हो गया है जो अत्यंत संतोष का विषय है। पहले भाग (समीक्षा आप यहाँ पढ़ सकते हैं) का जिस तरह स्वागत हुआ और सोशल मीडिया पर भी जिस तरह आम हिन्दी पाठकों ने पुस्तक के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की, उसके बाद निश्चित रूप से लेखक को अपनी यह ज़िम्मेवारी जैसी लगी होगी कि उन्हें पाठकों द्वारा उठाई गई शंकाओं, उनकी नई उठती जिज्ञासाओं के समाधान के लिए फिर एक बार शब्दों के साथ नई यात्रा पर निकलना होगा। दूसरे भाग की भूमिका में उन्होंने इस ओर संकेत भी किया है। यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि पेंगुइन स्वदेश (पेंगुइन रैंडम हाउस इंप्रिंट) ने भी इतनी तत्परता से पुस्तक का दूसरा भाग भी प्रकाशित कर दिया, यह अत्यंत प्रशंसनीय है और प्रकाशक की हिन्दी पाठकों के लिए उनकी प्रतिबद्धता भी इससे परिलक्षित होती है।

छोटे छोटे तिरासी अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक हिंदी भाषा प्रयोग को एक नई दृष्टि प्रदान करती है।  पुस्तक की भूमिका केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से जुड़े रत्नेश कुमार मिश्र ने लिखी है जिसका एक हिस्सा हम यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे ― “शायद ही कोई ऐसा क्षण हो जब हमारे चारों ओर शब्दों की धमा-चौकड़ी न हो रही हो। केवल शब्द होते हैं, लिखे-अनलिखे, प्राणी-प्राणीतर, श्रुतिमधुर-कर्णकटु, प्रकट और अवगुंठित नानाविध शब्द!”

इन बिखरे हुए करीब करीब पांच सौ शब्दों से हमारी पहचान डॉ  सुरेश पन्त की पुस्तक शब्दों के साथ साथ  के माध्यम से होती  है।  शब्दों की पोटली में छिपा है शब्दों का व्याकरण, इतिहास, भूगोल, समाज और लोक-व्यवहार का उज्जवल पक्ष।  उच्चारण, वर्तनी और अर्थ, जिन्हें लेकर साधारण से असाधारण पाठक तक गच्चा खा जाते है, उनके लिए मार्गदर्शिका का काम करती है लेखक की नवीनतम पुस्तक।  डॉ  पन्त यह कार्य पहले भी बखूबी निभा चुके है।  अपनी इस पुस्तक के द्वारा लेखक पुनः पाठकों के सम्मुख उपस्थित होते है और समर्पित करते है  “उन भाषा प्रेमियों को, जो निकलते हैं शब्दों के बीहड़ वन में अर्थों के मोती खोजने और जिन्हें प्रिय है चलना शब्दों के साथ साथ नीर-क्षीर विवेक के लिए। ”

संस्कृत, अरबी, फारसी जहाँ-जहाँ से शब्द के उद्गम मिलते हैं, वे उन्हें अपनी झोली में बटोरते चलते हैं।  शब्दों  के रास्ते में आनेवाले एक एक रोड़े और कंकड़ों को साफ करती हुई  पुस्तक द्रुत गति से चलती हैं।  शब्दों की यह यात्रा उनकी गोमुख से गंगासागर तक की है।  सागर में समा कर गंगा अपने अस्तित्व को जैसे विलीन कर देती है, ठीक उसी तरह शब्द अपनी उबड़-खाबड़ यात्रा लोक व्यवहार के समुद्र में गोते लगाते हुए समाप्त कर देती है, क्योंकि “शब्दाः लोकनिबंधना”।  डॉ  पंत के ही शब्दों में, लोक-व्यवहृत शब्द-प्रयोगों का कोई निश्चित मानक हमेशा उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि “नियमों की अपेक्षा अपवाद अधिक हैं।  इनमें अभ्यास के द्वारा ही (‘में, पर और ऊपर’ के प्रयोग में ) निपुणता पाई जा सकती है। ”  

पहले-पहल मानव के बोल भाषा के माध्यम से फूटते है, उस भाषा में एकरूपता लाने के लिए व्याकरण के नियमों की आवश्यकता होती है, जो भाषा को एक निश्चित और स्थिर आयाम देता है।  भाषा में व्याकरण का वही महत्व है जो कच्ची सब्ज़ी से एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में घी, मसालों आदि का होता है, तथा  सात सुरों से निर्मित किसी राग-रागिनी के रसपूर्ण आस्वादन में होता है।  उदाहरण के तौर पर अहम् संस्कृत शब्द किस तरह हिंदी में आकर अहं बन जाता है और अरबी में वही शब्द अहम (अहम बात यह है)  बन जाता और फिर छलांगे लगाता हुआ अहमियत (भाववाचक संज्ञा बनती) अहमक (नादान, अनाड़ी, बुद्धिहीन) तक पहुँच जाता है।  

‘धर्म’ शब्द जो आज लोक व्यवहार में खास करके तथाकथित शिक्षित समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, उसका मूल अर्थ स्वभाव से जुड़ा है, जैसे आग का स्वभाव जलाना, बिच्छू का स्वभाव काटना।   इसके अतिरिक्त कर्तव्य, समाज के प्रति अपेक्षित आचरण और नियमों का पालन धर्म की  अर्थ परिधि में आता है।  संकुचित एकदेशीय साम्प्रदायिक अर्थ लेकर हम समाज में न केवल विच्छिन्नतावाद को प्रश्रय देते हैं, साथ ही लोगो की भावनाओं  को भी आहत करते हैं, एवं कुछ  विवेकशील व्यक्तियों को भी ‘धर्म-संकट’ में डाल देते हैं।  एक ओर अर्थ का विस्तार है तो दूसरी ओर अर्थ का संकोच भी लेखक की सूक्ष्म और पारदर्शी दृष्टि से ओझल नहीं होता है।   

(पुस्तक के लेखक डॉ सुरेश पंत )

भाषा की प्रकृति अत्यंत जटिल, बहुस्तरीय एवं बहुमुखी है—इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देते हुए ‘बात, बातचीत’ शब्दों के प्रसंग में लेखक कहते हैं:  ”सारा संसार बातों का ही पसारा है” और उसकी छटा इस प्रकार बिखेर देते है, जिन्हें बटोरने के लिए अपनी झोली भी खाली रखनी पड़ती है।  दृष्टान्त के लिए ‘बात’ शब्द के विभिन्न प्रयोग देखिए ―

कोई बात नहीं – घबराहट  से बचाने के लिए,

अजीब बात है –आश्चर्य,

कैसी बात करते हो —बेसिर पैर की बात,  

आपकी बात मुझ तक रहेगी —रहस्य या गुप्तभेद अर्थ में,

खास बात न भी हो ―तो भी बात का बतंगड़ बना देते है।  

बात से बतियाना, बतरसिया, बातूनी भाषा की समृद्धता की पुष्टि करता है।

‘आदर’ और ‘सम्मान’ शब्द समानार्थी होने पर भी उनके प्रयोग किस तरह प्रकरण सापेक्ष हो जाते है, वह हमारी बोलचाल की भाषा में झलक उठता है।  इसके साथ जुड़ा है ‘सत्कार’ शब्द।  ‘आदर’ में मानसिक भाव है और ‘सत्कार’ में क्रियात्मक पक्ष है।  तात्पर्य यह है कि पहले मन में आदर की भावना हो उसके बाद सत्कार की औपचारिकता पूरी होती है, इसलिए शब्द युग्म है ‘आदर-सत्कार।  इसी तरह आग्रह, विनम्रता और निवेदन  का अंतर दिखलाने में लेखक जिस सूक्ष्मता का परिचय देते है, वह उनके दार्शनिक पक्ष को न केवल प्रकट करता है, बल्कि हमारी भाषा की संपन्नता और सौंदर्य को भी उजागर करता है।  “आग्रह में ढिठाई हो सकती है, पर अनुरोध में मधुरता का भाव मुख्य है।  नैवेद्यसे बनता  है निवेदन।  ईश्वर को समर्पित किये जाने वाले पदार्थ नैवेद्य कहे जाते हैं। ”

 ‘मारना ‘ शब्द के विविध प्रयोग एवं विविध अर्थों को दिखा कर वे पाठक को   कर देते है।  सूक्ष्म धागों में पिरोई हुई यह माला ―आँख मारना/ थोड़ी सी दूर है, पैदल ही मार लोगे/ गंगा में डुबकी मार ली/ दरवाजे पर ताला मार लो/ घंटों सिर मारा, तब उसकी समझ में आया/ मार मार कर भरता बनाना/ मार मार कर कचूमर निकालना/गोली मारो दोस्ती को,  और अंत में व्यंग्य करना भी नहीं छोड़ते है अपनी क़ानूनी व्यवस्था को लेकर ‘कानून की मार से दूर रहेंगे’।  एक ही परिवार के होते हुए भी विपरीत स्वभाव इनके प्रयोगों में साफ झलकता है।  

खाया, खाई, हुआ, हुई, खाई, खाए, आई, आया, चाहिए, चाहिये का तालमेल मिलाना मेरे लिए भी कई बार मुश्किल हो जाता है और सटीक दिशा निर्धारण करने में असमंजस में पड़ जाती हूँ।  तुलना अर्थ में ‘सा’ किधर रखा जाय तुम के साथ या पृथक रूप से, इसका व्यावहारिक सुझाव लेखक देते हैं हाईफ़न व्यवहार करके।  जैसे तुम-सा, सीता-जैसी, मोती-से दांत इत्यादि।  दूसरी एक मुसीबत मेरी दूर हुई जब मैंने देखा ‘गाँववाला’ =ग्रामीण और गाँव वाला मकान = गाँव का मकान में ‘वाला’ कभी गाँव के साथ युक्त होकर प्रयुक्त होता है और कभी अलग होकर रहता है, बिना अर्थ-बोध के यह प्रयोग संभव नहीं हो सकता।  इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाषा-प्रयोग और व्याकरण दोनों सापेक्ष है।  कर्कट से कड़ा, करार, विचार करते करते लेखक विपरीत भाव में प्रवेश कर उदाहरण देते है—प्यार जताने के लिए कंकड़ फेंकना –कंकरिया मार के जगाया कल तू मेरे सपने में आया बालमा तू बड़ा वो है।  व्याकरण जैसे नीरस और दुर्बोध्य विषय को जिस रस की चाशनी में डुबो कर लेखक प्रस्तुत करते हैं वह पाठकों को रस से सराबोर कर देता है।  

भाषा मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करने का साधन है, अतः सार्थक और स्पष्ट होने के लिए आवश्यक है कि उनका अर्थ ठीक-ठीक मालूम हो।  पर अक्सर देखा जाता है कि भाषा बिना किसी घोषित सूचना के अपने स्वरूप को सहज ही रूपान्तरित कर लेती है, और भाषाविद् शुद्धता और अशुद्धता के प्रसंग को लेकर विवाद में फंस जाते हैं।  परम्परा या युगों से जिनके प्रयोग होते आये हैं, वे घास की तरह नरम मिट्टी में स्वयं उग आते है, वे प्रयोग तर्कहीन नहीं हैं।  उन्हें समेटते हुए यदि शब्दों की ऊँची उड़ान भरी जाय तो बेहतर होगा।   भाषा को इतने कठोर नियमों के बंधन में न बाँधा जाय कि वह दम तोड़ दे और न ही उसे इतना मुक्त छोड़ दिया जाय कि कटी हुई पतंग बन कर रह जाए।  क्षेत्रीय प्रभाव के कारण उच्चारण में फर्क पड़ता है, पर उसे दोष न समझ कर उसे स्थान विशेष का प्रभाव ही समझना उचित होगा।  

डॉ  पन्त प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक होने के  साथ साथ भाषा कलाविद भी है। अपनी पुस्तक के माध्यम से वे न  केवल भाषा सम्बन्धी नियमों का ज्ञान विधिपूर्वक देते हैं, बल्कि उसका उपयोग भी सिखाते हैं।  विचारों में शुद्धता यदि तर्क-शास्त्र के ज्ञान से आती है, तो भाषा में रसमयता साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से आती है, डॉ  पन्त इस बात का बखूबी ख्याल रखते हैं, और प्रकरणानुसार वे साहित्यिक उद्धरणों  से अपने कथन को प्रमाणित भी करते है।  

हिंदी भाषा के  पाठकवृन्द और जिन्हें हिंदी भाषा को सीखने में एक नई दृष्टि की जरुरत है, वे इस पुस्तक को  अवश्य पढ़ें।  पुस्तक यदि ऑनलाइन खरीदना चाहें तो इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। पुस्तक का पेपरबैक संस्करण उपरोक्त लिंक पर 240 रुपये में उपलब्ध है।

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*डॉ मधु कपूर कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं। दर्शनशास्त्र के अलावा साहित्य में विशेष रुचि रही है। उन्हीं के शब्दों में, “दार्शनिक उलझनों की गुत्थियों को साहित्य के रास्ते में तलाशती हूं।“ डॉ कपूर ने हिंदी से बंगला में कुछ पुस्तकों का अनुवाद किया है और कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। आजकल इस वेब पत्रिका में वह दार्शनिक विषयों पर लिख रही हैं और अब तक चार लेख लिख चुकी हैं।

डिस्क्लेमर : इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं और इस वैबसाइट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। यह वैबसाइट लेख में व्यक्त विचारों/सूचनाओं की सच्चाई, तथ्यपरकता और व्यवहारिकता के लिए उत्तरदायी नहीं है।  

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