कैसी है यह विपक्षी एकजुटता ?

राजकेश्वर सिंह*

कुछ ही महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के पूर्व यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है कि जब देश में बहुत कुछ राजनीति की मान्य व स्थापित परंपराओं के विपरीत हो रहा हो और लोगों की बेहतरी से जुड़े कई इंडिकेटर नकारात्मक संकेत दे रहे हों, तब भी सरकार के बजाय विपक्ष से सवाल किया जाए या फिर उसकी जवाबदेही को लेकर उसे कटघरे में खड़ा किया जाए। अमूमन ऐसा होना तो नहीं चाहिए, लेकिन केंद्र की सत्ता के खिलाफ आधे-अधूरे मन से एकजुट हुए विपक्ष ने यह स्थिति तो पैदा कर ही दी है कि उसकी भी कारगुजारियों पर भी नजर डाली जाए। यह सच है कि सरकारों और सतारूढ़ दलों से उनके कामकाज को लेकर सवाल होने ही चाहिए, लेकिन जब जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को लेकर विपक्ष अपनी समुचित भूमिका न निभाए तो उससे सवाल क्यों नहीं होना चाहिए, वह भी, तब जब ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस) गठबंधन के बैनर तले 28 राजनीतिक दल खुद के साथ-साथ चलने का दावा कर रहे हों। 

असल सवाल यहीं से पैदा होता  है कि क्या वाकई ‘इंडिया’ गठबंधन के 28 दल एकजुट हो गए हैं और तीन-चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने कोई ठोस कार्यक्रम बना लिया है? या फिर उनके बीच ऐसा कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बन गया है, जिसे लेकर वे जनता के बीच जाकर यह समझाने का प्रयास करेंगे कि केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार, मतलब कि राजग सरकार के स्थान पर वे एक बेहतर विकल्प देने की स्थिति में है और 2024 के लोकसभा चुनाव में यदि गैर भाजपा, गैर राजग सरकार केंद्र की सत्ता में आती है तो देश के लोगों के जीवन में वह क्या खुशहाली ला देगी या फिर उसके सत्ता में होने पर किसी के साथ उसकी भाषा, धर्म, संप्रदाय के नाम पर कोई हकतल्फी नहीं होगी। सभी सरकारी कार्यालय और जांच एजेंसियां इतनी स्वतंत्र होंगी कि वे भ्रष्टाचार के मामलों में सत्तापक्ष और विपक्ष के लोगों के साथ बिना पक्षपात किये, समान रूप से कार्रवाई करेंगी। एकता कायम करने की लाख कोशिश के बाद भी बीते छह महीने में कहने को एकजुट हुए विपक्ष के कामकाज पर नजर डालें तो ऐसा कुछ तो अब तक लोगों के सामने नहीं आया है, उल्टे बीते महीनों में हुए पांच राज्यों के चुनाव के समय से लेकर अब तक उनके बीच के झगड़े और मतभेद और मनमुटाव अक्सर सामने जरूर आते रहे हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि यह सिलसिला अब भी जारी है। विपक्ष की यह एकता कितनी विरोधाभासी  है, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के कई घटक दल अपने-अपने राज्यों में अगले लोकसभा चुनाव के लिए अघोषित रूप से प्रत्याशियों तक को मैदान में उतारने लगे हैं। वे साथ ही यह दावा भी करते फिर रहे हैं कि उनके राज्यों में गठबंधन के दलों के बीच सीटों का बंटवारा भी आसानी से हो जाएगा।


देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं। जो भी राजनीतिक पार्टी इस राज्य में बड़ी संख्या में लोकसभा सीटें जीतती है, केंद्र में उसकी सरकार बनने की उतनी ही ज्यादा गुंजाइश बनती है। ‘इंडिया’ गठबंधन में यहां समाजवादी पार्टी और कांग्रेस दो प्रमुख दल हैं। आम लोगों में अभी तक दोनों दलों में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तालमेल से ज्यादा बीते विधानसभा चुनावों के दौरान झगड़ों का जिक्र ही हावी है।

चुनाव नजदीक आता जा रहा है और जिस बिहार में इस बार की विपक्षी एकता की नींव पड़ी थी, वहां भी अभी तक सीट बंटवारे की तस्वीर साफ नहीं हो पाई है, बल्कि विपक्षी एकता के सूत्रधार रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आगामी भूमिका को लेकर कई बार लोग आशंकित भी दिखते हैं। साथ ही राजद और जदयू के बीच भी कुछ न कुछ ऐसा चलता ही रहता है, जो मीडिया में सुर्खियां बनता है। पश्चिम बंगाल में गठबंधन का मुख्य घटक दल ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है। उसी गठबंधन में इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ वामदल भी शामिल हैं, लेकिन वहां कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के आए दिन एक दूसरे के खिलाफ जिस तरह की बयानबाजी होती है, वैसा आक्रामक रुख तो कई बार ये दल उस  भाजपा के खिलाफ भी नहीं अपनाते हैं, 2024 में जिस रोकने के लिए ये लामबंद हुए हैं।

‘इंडिया’ गठबंधन की इस मौजूदा स्थिति के बीच उसके सबसे अहम घटक कांग्रेस की कार्यशैली भी कम चौकाने वाली नहीं है। घटक के कई दूसरे दल उससे बड़े भाई की भूमिका की उम्मीद रखते हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर वे उससे ही ज्यादा कुर्बानी देने की भी अपेक्षा रखते हैं, लेकिन कांग्रेस अपने ही ढर्रे पर है। वह मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के लिए महज आधा दर्जन सीटें तक छोड़ने को तैयार नहीं हुई। वह भी तब, जब यह साफ था कि समाजवादी पार्टी वहां कुछ सीटों पर जीत भी जाती तो भी कांग्रेस के लिए उससे कोई खतरा नहीं था और यदि वहां कांग्रेस की सरकार बनती तब भी वह वहां उसे गिराने  की स्थिति में तो नहीं ही होती, लेकिन कांग्रेस ने वहां सपा के साथ जो व्यवहार किया, वह ‘इंडिया’ गठबंधन को मजबूत करने वाला तो कतई नहीं था, बल्कि उससे विपक्षी एकता की बदरंग तस्वीर ही उजागर हुई। दरअसल देखा जाए तो कांग्रेस भी अपनी खुद की जमीनी हकीकत का ईमानदारी से आंकलन करने को शायद तैयार नहीं है, इसीलिए वह राष्ट्रीय स्तर पर मोदी और भाजपा से ईमानदारी से लड़ने का मंसूबा रखने के बावजूद गैर कांग्रेसी प्रभाव वाले राज्यों में भी खुद को ताकतवर मानने की गलती कर बैठती है, जबकि उसका हकीकत से मेल नहीं होता। 

कांग्रेस को यह समझना होगा कि केंद्र में यदि 2019 में मोदी की अगुवाई वाली राजग की फिर से वापसी हुई थी तो उसके लिए कांग्रेस कम जिम्मेदार नहीं थी। यह सच्चाई सबके सामने है कि देश के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल में भाजपा के सामने सीधे मुक़ाबले में कांग्रेस ही होती है। इन राज्यों के साथ ही इसमें उत्तर प्रदेश और दिल्ली को जोड़ दें तो लोकसभा की कुल 225 सीटें होती हैं। लोकसभा के 2019 के चुनाव में भाजपा ने इन 225 सीटों में से 200 सीटें जीत ली थी, वह भी तब, जब 2018 के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत के बाद कांग्रेस की सरकार बनी थी, जिसमें भाजपा ने बाद में मध्य प्रदेश की उसकी सरकार गिराकर अपनी बना ली थी। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश और दिल्ली को छोड़ दें तो कांग्रेस बाकी उन राज्यों में भी भाजपा को नहीं रोक सकी, जहां उसकी अपनी सरकारें थीं या फिर वहां वह भाजपा के सामने सीधी लड़ाई में थी। इन स्थितियों से साफ है कि इस समय कांग्रेस को अपने इस गुमान और गुरूर से उबरने की जरूरत है।


बात यहीं नहीं खत्म होती। यह कम काबिलेगौर नहीं है कि जब लोकसभा का चुनाव अब लगभग सिर पर आ गया है और जब हर राज्य में ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों के साथ आम सहमति से कोई नीति, कार्यक्रम बनाकर जल्द से जल्द सीटों का सीटों का बंटवारा करके घटक दलों के प्रत्यशियों को मैदान में उतारने की जरूरत है, तब कांग्रेस भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकालने जा रही है। यह यात्रा उसकी अपनी है। कहा जा रहा है कि राज्यों में गठबंधन के घटक दल भी उसमें शामिल हो सकते हैं। निश्चित तौर पर यह फैसला कांग्रेस का है, लेकिन जब भाजपा और राजग के दल पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गए हैं, तब इंडिया गठबंधन का लोकसभा सीटों के बंटवारे में देरी करना उसकी अदूरदर्शिता ही कहा जाएगा और उसके लिए कांग्रेस की जवाबदेही ज्यादा है। हालांकि कांग्रेस के साथ ही ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दल इन स्थितियों को गंभीरता से लेने में जितनी देरी करेंगे, उनका नुकसान उतना ही होगा। भाजपा की तैयारी से तुलना करें तो इंडिया गठबंधन द्वारा न्यूनतम साझा कार्यक्रम की घोषणा में और घटक दलों के बीच सीटों के मोटे तौर पर बंटवारे में भी पहले ही देर हो चुकी है, और देरी तो विपक्ष के लिए आत्मघाती ही होगी। 

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* लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजकेश्वर जी अमूनन हमारी वेब पत्रिका के लिए लिखते रहते हैं। इनके पहले वाले लेखों में से कुछ  आप यहाँयहाँ और यहाँ देख सकते हैं।

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