त्रिनेत्रीय-समझ का विराट

नरेश शांडिल्य* द्वारा मोहन राणा के कविता संग्रह ‘एकांत में रोशनदान’ की समीक्षा

मोहन राणा इस वेब-पत्रिका के लिए नए नहीं हैं। उनकी कुछ कविताएं (उनके संक्षिप्त परिचय के साथ) आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं। उनके पिछले संग्रह ‘मुखौटे में दो चेहरे’ की समीक्षा यहाँ देखी जा सकती है। हाल ही में उनका एक और काव्य-संग्रह आया है – ‘एकांत में रोशनदान’ जिसकी समीक्षा इस वेब पत्रिका के लिए प्रसिद्ध कवि एवं नाट्यकर्मी नरेश शांडिल्य* ने की हैइस समीक्षा के अंत में हम इस संग्रह में सम्मिलित कुछ कविताएं भी प्रकाशित कर रहे हैं।

कहते हैं कविता और ज़िंदगी कभी पूरी नहीं होती। यह एक अनवरत यात्रा की तरह है। इस बात को चरितार्थ करते हैं मोहन राणा। कई मायनों में वे ‘अधूरी कविता के कवि’ हैं। उनकी कविताएँ कहीं से भी शुरू हो जाती हैं और कहीं पर भी समाप्त। इस तरह वे कविता और ज़िन्दगी के दर्शन को ही व्याख्यायित करते लगते हैं। मैं उन्हें ‘वैश्विक कवि’ के रूप में देखता हूँ। क्योंकि उनके अनुभव एक स्थान तक सीमित नहीं हैं, वे सार्वभौमिक हैं। वे अनवरत विचरते हैं और इस विचरण से विरचित उनकी कविताएँ ग्लोबल हो गई हैं।

 मोहन राणा के इस कविता संग्रह का टाइटल भी अपने आप में अकेला और अनूठा है; और अद्‌भुत भी –  ‘एकान्त में रोशनदान’… एक अलग ही विमर्श को प्रेरित करता है। जैसे एकान्त में स्मृतियों की आवाजाही है जो हवा और रोशनी के जरिए आ-जा रही है। उनकी कविताएँ भी इसी प्रकृति की हैं। उनको और उनकी कविताओं को मैंने काफ़ी नज़दीक से जाना है। उनकी कविताओं से गुज़रने के बाद आप पाएँगे कि आप उन कविताओं में खो चुके हैं। एकात्म हो गये हैं। जैसे किसी नदी में उतरते ही आप स्वयं भी नदी-से हो जाते हैं।

 मोहन राणा की भाषा शैली, वाक्य विन्यास, बिम्ब विधान इस कवि को औरों से अलग करते हैं –

 ” कौड़ी चौपड़ में शब्दकार खेलता अपनी बात /  शब्दातीत समय बाँचता भाषा की मरीचिका में  / लिखता हूँ परिचय एक बार फिर अपना उनमें कहीं /  जो मुखौटे कितने-कितने आइनों में बहुरूपियों के / फिर से जैसे पहली बार “

( ‘फिर से पहली बार’ से )

 मोहन राणा की कविताओं का गाम्भीर्य प्रभावित करता है। इनकी कविताओं की एक विस्तृत रेंज है, एक बड़ा फ़लक है। कविताओं की विषयवस्तु में वैविध्य है – यात्राएँ हैं, कुदरत के अनेक रूप हैं, भाषा है, तरह-तरह के नितांत निजी अनुभव हैं, दर्शन है, विचारों का द्वंद्व है…  कविताओं की गहराई और ऊँचाई कवि के विराट व्यक्तित्व को उकेरती हैं। गागर में सागर की तरह। लेकिन मोहन राणा की कविताओं को समझने के लिए प्रज्ञा के अति उच्च स्तर और त्रिनेत्रीय-समझ की ज़रूरत है। मोहन राणा की कविताएँ सबके लिए हैं भी नहीं।

 एक और विशेषता है उनमें। यक-ब-यक वे अपनी कविताओं में ऐसी बात उठा देते हैं जो हमें झकझोर कर रख देती है – 

 ” इतना लिखा गया चिड़िया को लेकर अलिखा कि / दैनंदिन की सुबह और शाम के कोलाहल में व्यस्त / किसी को याद नहीं उस चिड़िया का नाम / कि वह विलुप्त हो चुकी “

( ‘गौरैया’ से )

 मोहन राणा चीज़ों को ख़ुद में खो जाने की हद तक देखते हैं –

 ” अपने अधूरेपन को पलट कर देखता गुनगुनाता कोई अधूरा बोल / मैं जिस अँधेरे को लिफ़ाफ़े में भर रहा था / मैं उसी लिफ़ाफ़े में बन्द था “

( ‘कमरा नम्बर 111’ से) 

मोहन राणा को मैंने कई मायनों में बहुतों से अलग ही पाया है। उनका वैशिष्ट्य प्रभावित करता है। वे मुझे आध्यात्मिक ज़्यादा लगते हैं। उनकी कविताओं की अर्थवत्ता अनन्य है। विदेश में, हिंदी डायस्पोरा में मुझे उनके जैसा दूसरा कवि अभी तक तो मिला नहीं। वे अनूठे, जटिल, अज्ञेय और विकट हैं। उनकी कविताओं की परतदारी उन्हें बड़ा कवि बनाती है। ‘एकांत में रोशनदान’ से ऐसी ही अनेकानेक कविताएँ आ-जा रही हैं। आप भी इनकी आवाजाही से रूबरू होइए और समृद्ध भी होइए।

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इस संग्रह से कुछ छोटी-छोटी कविताएं

तुम

क्या तुम नदी को डूबने से बच सकती हो।

बच लो वरना वो पत्थर हो जाएगी

तुम कुशल तैराक हो

कहते हैं डूबते को तिनके का सहारा

क्या तुम वह तिनका नहीं हो?

नदी डूब रही है आकाश को आँखों में बंद कर

उन तारों का क्या होगा जिन्हें हमने देखा ही नहीं हमने

सपनों का अनुवाद

जो अधूरे रह गए थे,

अभी भी घट रहे हैं

पर याद तो नींद में ही आते हैं

सुबह सपनों का अनुवाद करने के लिए होती है।

जागकर

अब तो उन्हें हवा भी

आंधी दिखाई देती है

औरों से क्या डरना

पहले खुद दे निपट लें

अपने बुत से साये को हटा कर

एकांत में रोशनदान

किसे इस मर्मर शरद में याद करती हो तुम

स्व-निर्वासित अपनी परछाईयों को छुपाए

वह तो गुमशुदा है दबे पाँव गलियों में सरकता

ठिठक एक दुकान के सामने जड़वत

सड़क पर अपने बिम्ब को शीशे में देख

वसंत के लिए कविता लिखते

उसकी तलाश में

हर पेड़ पर मैंने चिपका रखे हैं इश्तिहार

और लोगों ने खंबों पर खो गए सामान, गुम बिल्ली और

लापताओं के चेहरे लगा रखे हैं,

जिन्हें समय भी याद नहीं करता

पर मैं कैसे भूल गया

अपनी ही पहचान को

उस शरद की दोपहर

मैं धीमे से बोलना चाहता हूँ वह शब्द

ताकि लोगों को ऊँचा सुनना पड़े

खिलते हुए फूलों को तुम्हें भेंट करते हुए

जिन्होंने अभी बस साँस भर ली है

बीते लंबे शिथिल मौसम में

ठहर कर इतने दिनों बाद

काल कोठरी में अभ्यागत त्रिकाल दृष्टि

वह माया दर्पण एकांत में रोशनदान

कि मैं हूँ तुम्हारे ही कारण सर्वनाम इस वाक्य में

*नरेश शांडिल्य ‘आधुनिक कबीर’ के रूप में प्रतिष्ठित कवि, दोहाकार, शायर, नुक्कड़ नाट्य कर्मी, समीक्षक और संपादक। विभिन्न विधाओं में सात  मौलिक कविता संग्रह प्रकाशित, आठ पुस्तकों का संपादन।

Email : nareshshandilya007@gmail.com

1 COMMENT

  1. बहुत अच्छी लगी कवितायें और उतनी ही सशक्त – सार्थक समीक्षा

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