ज्योति शर्मा*
काली मैना
(ससुराल से वापस आने के बाद एक बेटी कीअपनी माँ से बातचीत )
संस्कारों की पोटली इतनी भारीकि उसको ढोते-ढोते मैंने...
ओंकार केडिया*
मैं सरहद के इस ओर से देखता हूँ
उस ओर की हरियाली,
कंटीली तारें नहीं रोक पातीं
मेरी लालची नज़रों को.
मनोज पांडे*
कैक्टस हँस रहे हैं – एक
वर्षों से बरबस बरसती गर्म रेत,टीला बनाते-बिगाड़ते अंधड़ोंऔर सूखा उगलती रातों के बादआज यहां टपक रही हैं बूँदेंजलती ज़मीन पर.
पूनम जैन*
राम तो बसते हैं हर कण में, हर मन मेंवो हो श्रमिक, किसान या दलित हर जन मेंजहां इनका श्रम है, वहीं राम का मन्दिर हैइस धरती,...
आश्चर्य होता है कि कविता अपना रस, अपना पोषण कहाँ-कहाँ से ढूँढ निकालती है। कवि की नज़र अनछुई, अनजानी जगहों में जैसे बेखौफ घुस जाती है और लगभग एक जासूस की तरह कोने में दुबकी महत्वहीन...
प्रेमचंद की जयंती पर राजेन्द्र भट्ट* की श्रद्धांजलि
प्रेमचंद की प्रासंगिकता स्वत:सिद्ध है लेकिन फिर भी इस विषय पर लिखने की उस समय तत्काल ज़रूरत महसूस हुई जब पिछले दिनों हिन्दी की एक...
नरेश जोशी*
किस्से कहानी सुनते आए थे, महाराज अचानक सोते उठते, कभी तो नाक पर मक्खी को उड़ाते प्रजा की चिंता कर बैठते थे। फिर क्या था, आनन-फानन महाराज खुद मुनादी कर...
ओंकार केडिया*
उन्होंने कहा,
मरने के लिए तैयार रहो,
सारा इंतज़ाम है हमारे पास-
गोली, चाकू, डंडा, फंदा,
तुम ख़ुशकिस्मत हो,
मनोज पाण्डे*
पग-पग जमी घूल से उठते सिरों का जमघटढक लेता माटी को,पतझड़ कुछ ज़्यादा हुआ सा.
अधूरी इच्छाओं को दांतों से मसलकरहँसते होंठ खिसियाई हँसी को,
ओंकार केडिया*
बेटे,
बहुत राह देखी तुम्हारी,
बहुत याद किया तुम्हें,
अब आओ, तो यहीं रहना,
खेत जोत लेना अपना,